जुबिली न्यूज डेस्क
बिहार में विधानसभा के पहले चरण का मतदान 28 अक्टूबर बुधवार को होना है। सोमवार को पहले चरण का चुनाव प्रचार थम गया। चुनाव प्रचार के दौरान सभी राजनीतिक दलों ने मतदाताओं से बड़े-बड़े वादे किए, जिसमें रोजगार अहम मुद्दा रहा। इसके अलावा शिक्षा-स्वास्थ्य और फ्री कोरोना वैक्सीन पर भी बात हुई।
लेकिन इस पूरे चुनाव प्रचार अभियान में बिहार का सबसे ज्वलंत मुद्दा पूरी तरह से गायब दिखा। जी हां, किसी भी राजनीतिक दल ने बाढ़ से मुक्ति या उससे होने वाले नुकसान को रोकने के लिए जनता के सामने कोई रोडमैप नहीं रखा।
बिहार में सबसे बड़ी समस्या बाढ़ है। हर साल यहां के लोग बाढ़ की समस्या से जूझते हैं। गांव, कस्बा और शहर कोई इससे अछूता नहीं रहता। बिहार के 38 में 28 जिले बाढ़ प्रभावित हैं। बाढ़ से ना सिर्फ राज्य में आधारभूत विकास जैसे सड़के आदि का नुकसान होता है बल्कि खेती और जंगलों को भी भारी नुकसान उठाना पड़ता है।
इस साल भी बाढ़ के चलते राज्य में करीब 83 लाख लोगों को विस्थापित होना पड़ा है। इनमें से कई अभी भी बहुत सारे लोग राहत कैंपों में रह रहे हैं।
बिहार के लोग हर साल बाढ़ की त्रासदी झेलते हैं। हजारों लोग हर साल उजड़ते हैं फिर बसते हैं। बिहार में बाढ़ के चलते करीब 7.54 लाख हेक्टेयर कृषि जमीन बर्बाद हुई है। बावजूद इसके राजनीतिक दलों के पास इस समस्या के लिए कोई रोडमैप नहीं है।
यह सच है कि बाढ़ एक प्राकृतिक समस्या है, पर इससे होने वाले भीषण नुकसान से बचा जा सकता है। बावजूद इसके साल दर साल सरकार की तरफ से इस दिशा में शायद ही कोई क्रांतिकारी कोशिश की जाती हो।
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बाढ़ की समस्या के बावजूद लोगों का नदी किनारे बसना जारी है। इसके अलावा पेड़ों की तेजी से कटाई, वेटलैंड का अतिक्रमण ऐसी चीजें हैं, जो बाढ़ की समस्या को विकराल बनाती हैं लेकिन सरकार की तरफ से इस दिशा में पर्याप्त कदम नहीं उठाए गए हैं।
चूंकि बिहार में नयी सरकार चुनने की कवायद चल रही है बावजूद इसके किसी भी राजनीतिक दल को इतनी बड़ी समस्या मुद्दा नहीं लग रही। विपक्षी पार्टियों द्वारा बेरोजगारी, लॉकडाउन में प्रवासी मजदूर पलायन, महंगाई, अपराध, कृषि जैसे मुद्दों पर तो घेरा जा रहा है लेकिन वह भी बाढ़ के मुद्दे पर कोई बात नहीं कर रही हैं।
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बाढ़ के अलावा बिहार की समस्याओं में जनसंख्या घनत्व, शिक्षा और पलायन भी बड़ा मुद्दा है और कमोबेश अधिकतर पार्टियां इन मुद्दों पर ज्यादा बात नहीं कर रही हैं। सवाल उठता है कि चुनाव में राजनीतिक दलों को जब ये सब मुद्दे नहीं दिखाई दे रहे हैं तो सत्ता में आने के बाद कहां दिखाई देगा।