प्रीति सिंह
बिहार में विधानसभा चुनाव हो रहा है और इस बीच निर्वाचन आयोग ने लोकसभा और विधानसभा चुनाव में खर्च की सीमा दस फीसद बढ़ा दी है। आयोग ने यह फैसला कोरोना संकट के मद्देनजर लिया है, क्योंकि उन्हें ऐसा लगा है कि उम्मीदवारों को चुनाव प्रचार आदि में अधिक खर्च करने की जरूत पड़ेगी।
नये फैसले के मुताबिक अब उम्मीदवार विधानसभा चुनाव में अट्ठाईस के बजाय तीस लाख अस्सी हजार रुपए और लोकसभा के उम्मीदवार सत्तर की जगह सतहत्तर लाख रुपए खर्च कर सकेंगे। वैसे चुनाव खर्च की सीमा पहले भी बढ़ती महंगाई और चुनाव प्रचार में संसाधनों की आवश्यकता के मद्देनजर समय-समय पर बढ़ाई जाती रही है, लेकिन इसके साथ ही चुनाव खर्च में पारदर्शिता की जरूरत भी महसूस की जाती रही है।
सभी ने देखा होगा कि चुनावों में किस तरह धनबल का प्रयोग होता रहा है। निर्वाचन आयोग की सख्त निगरानी के बावजूद ज्यादातर उम्मीदवार तय सीमा से ऊपर खर्च करते देखे जाते हैं। जो नेता जितना बड़ा है वह उतना ही नियमों का का उल्लंघन करते देखे जा रहे हैं। उनके खिलाफ विपक्षी दल शिकायत भी दर्ज कराते हैं पर इस प्रवृत्ति पर रोक नहीं लग पाती।
पिछले कुछ सालों से चुुनावों में जिस तरह से धनबल का प्रयोग हो रहा है वैसा शुरुआत में नहीं था। 1952 का प्रथम चुनाव पूरी तरह स्वतंत्र एवं निष्पक्ष था जिसमें धनबल, बाहुबल या जाति की कोई भूमिका नहीं थी, लेकिन धीरे-धीरे बाहुबल एवं धनबल का प्रदर्शन बढऩे लगा।
हालांकि जब चुनाव आयोग की कमान टीएन शेषन के हाथों में आई तो उनकी सक्रियता के कारण चुनाव में बाहुबल का प्रयोग तो लगभग समाप्त हो गया, लेकिन धनबल की भूमिका अभी भी काफी सशक्तहै। इधर कुछ वर्षों से चुनाव आयोग की तत्परता के कारण प्रशासन करोड़ों की धनराशि चुनाव के वक्त जब्त कर रहा है, लेकिन चुनाव में खपने वाली भारी-भरकम धनराशि की तुलना में जब्त की जाने वाली यह राशि ऊंट के मुंह में जीरे के समान है।
अब तो चुनाव में चाहे वह विधानसभा हो या लोकसभा, नकद राशि के साथ-साथ शराब, साड़ी, गहने, बर्तन आदि तक बांटी जाने लगी है। चूंकि यह सब गुप्त रूप से किया जाता है, इसलिए निर्वाचन आयोग उन खर्चों को उम्मीदवार के खर्च में नहीं गिन पाता।
हालांकि इस पर अंकुश लगाने की दिशा में सुप्रीम कोर्ट से लेकर चुनाव आयोग लगातार प्रयास कर रहे हैं किंतु सफलता पूरी तरह नहीं मिल पाई है। दरअसल, राजनीतिक दलों ने उन प्रयासों को निष्प्रभावी करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है।
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अब चुनावों में धनबल का प्रदर्शन खुलेआम होने लगा है। चुनाव खर्च के लिए पार्टियां और उनके उम्मीदवार चंदा जुटाने के लिए व्यापक अभियान चलाते हैं, फिर पार्टियां ऐसे उम्मीदवारों को टिकट देना ज्यादा बेहतर समझने लगी हैं, जिनके पास चुनावों में खर्च करने के लिए पर्याप्त पैसा हो। इसलिए चुनावों में न सिर्फ पोस्टर, बैनर, बड़े-बड़े कटआउट, संचार माध्यमों में युद्धस्तर पर विज्ञापन आदि देने की होड़ देखी जाती है, बल्कि मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के लिए गुप्त रूप से काफी धन खर्च करने की शिकायतें भी आम हैं।
चुनाव रैलियों में इस्तेमाल होने वाले वाहनों, हेलीकॉप्टर, बड़े-बड़े मंचों आदि पर होने वाले खर्च का बहुत सारा हिस्सा उम्मीदवार पार्टी फंड में दिखा देते हैं। चूंकि चुनाव खर्च उम्मीदवारों के लिए तय है, पार्टियों के लिए नहीं, इसलिए बहुत सारे बड़े खर्चे निर्वाचन आयोग के हिसाब से बाहर ही रहते हैं।
अदालत ने भी चुनाव में धनबल की भूमिका को कम करने का किया प्रयास
अदालतों के समक्ष भी विभिन्न याचिकाओं के माध्यम से यह प्रश्न उठता रहा है कि राजनीतिक दल, दोस्तों एवं संबंधियों द्वारा किए गए खर्च को भी प्रत्याशियों के खर्च में शामिल माना जाना चाहिए या नहीं। हालांकि प्रारंभ में अदालत इसे उम्मीदवार के खर्च में
शामिल करने के पक्ष में नहीं थी। रणंजय सिंह बनाम बैजनाथ सिंह से लेकर बीआर राव बनाम एनजो रंजा मामलों में शीर्ष अदालत ने खर्च के बारे में यही रवैया अपनाया, लेकिन 1975 में कंवरलाल बनाम अमरनाथ में अदालत ने व्यवस्था दी कि अत्यधिक संसाधन की उपलब्धता किसी उम्मीदवार को दूसरों के मुकाबले अनुचित लाभ प्रदान करती है जो अलोकतांत्रिक है।
शीर्ष अदालत ने एक चेतावनी भी दी, ‘चुनाव के पहले दिया गया चंदा चुनाव के बाद के वादे के रूप में काम करेगा जिससे आम आदमी के हितों पर कुठाराघात होगा।’ इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक दल, दोस्तों एवं रिश्तेदारों द्वारा किए गए खर्च को उम्मीदवार के चुनावी खर्च का हिस्सा माना, लेकिन अदालत के फैसले को निष्प्रभावी करने के लिए 1974 में जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 77 में संशोधन कर एक नई व्याख्या जोड़ दी कि ऐसे खर्च को प्रत्याशियों के खर्च से अलग माना जाएगा और इस तरह चुनाव में ऊलजुलूल खर्च करने को वैधानिकता प्रदान की गई।
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हालांकि 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने गडक वाईके बनाम बालासेह विखे पाटिल मामले में इस व्याख्या को खत्म करने पर जोर दिया। फिर सुप्रीम कोर्ट ने गंजन कृष्णाजी बापट मामले में राजनीतिक दलों द्वारा प्राप्त एवं खर्च की गई राशि का सही हिसाब रखने के लिए नियम बनाने की जरूरत पर जोर दिया।
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1996 में भी कॉमन कॉज मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जन प्रतिनिधित्व कानून, 1951 की धारा 77 की व्याख्या कंपनी अधिनियम, 1956 के आलोक में की। कंपनी अधिनियम की धारा 293-ए के तहत कंपनियों द्वारा राजनीतिक दलों को चंदा देना वैध है तथा आयकर अधिनियम की धारा 13-ए के अंतर्गत इस पर कर में छूट है, किंतु ऐसा कोई कानूनी प्रावधान नहीं है, जो राजनीतिक दलों को सही खाता रखने को मजबूर करे।
इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि जो राजनीतिक दल आयकर रिटर्न नहीं भर रहे हैं वे आयकर कानून का उल्लंघन कर रहे हैं और केंद्रीय वित्त सचिव को इसकी जांच करने का निर्देश दिया। इस तरह अदालत ने लगातार स्वतंत्र चुनाव सुनिश्चित करने के लिए धनबल की भूमिका को कम करने का प्रयास किया।
चुनाव आयोग भी इस दिशा में पिछले कई दशकों से अपनी महती जिम्मेदारी का निर्वाह कर रहा है पर उसे राजनीतिक दलों का समर्थन प्राप्त नहीं हो रहा। आज भी कई राजनेता चुनावी कदाचार के लिए चुनाव आयोग की सख्ती को जिम्मेदार मानते हैं। वह तर्क देते हैं कि आयोग ने प्रचार पर इतनी तरह की पाबंदियां लगा दीं कि लाचार होकर उम्मीदवारों ने नोट और शराब बांटनी शुरू कर दीं।
चुनाव आयोग लोकसभा और विधानसभा चुनाव में कुछ हद तक धनबल पर रोक लगा पाता है लेकिन राज्यसभा चुनाव में तो थैलीशाह खुलकर विधायकों की खरीद-फरोख्त करते हैं और धनबल के बलबूते राज्यसभा में प्रवेश करते हैं। अभी देखा जाए तो कई ऐसे राज्यसभा सदस्य मिल जायेंगे जो उन राज्यों से निर्वाचित हुए हैं जहां चुनाव लडऩे से पहले वे कभी गए तक नहीं थे।
दरअसल चुनावों में धनबल के इस्तेमाल को रोक पाना इतना आसान नहीं दिखता। आज यदि चुनाव हिंसा मुक्त हो चुके हैं तो इसका कारण है कि अपराधी समझ गए कि गुंडागर्दी करने पर वे कानून की गिरफ्त में होंगे। इसलिए इस पर रोक लग गई, लेकिन जब तक धनबल के बारे में ऐसा संदेश नहीं दिया जाता यह रोक पाना असंभव है। ऐसा ही संदेश धनबल के बारे में जाना चाहिए। इसलिए निर्वाचन आयोग न सिर्फ चुनाव खर्च की तय सीमा का पालन कराने के उपाय करे, बल्कि इसका उल्लंघन करने वालों के खिलाफ कड़े कदम भी उठाने का साहस दिखाए।
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