कृष्णमोहन झा
मोदी सरकार ने जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने का साहसिक और ऐतिहासिक फैसला जिन दिन किया था उसके पहले ही उसने यह अनुमान लगा लिया था कि नेशनल कांफ्रेंस के मुखिया फारुख अब्दुल्ला ,उनके बेटे उमर अब्दुल्ला और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की मुखिया महबूबा मुफ्ती सहित कश्मीर के और दूसरे अलगाववादी संगठनों के नेता सरकार का के इस साहसिक फैसले के खिलाफ राज्य की जनता को भडकाने से बाज नहीं आएंगे।
इसलिए राज्य में इस तरह की अलगाववादी सोच रखने वाले नेताओं को सरकार ने पहले ही या तो गिरफ्तार कर लिया था या उन्हे नजरबंद कर दिया गया था। इसीके तहत राज्य के दो पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला व उमर अब्दुल्ला को सात माह तक नजरबंद रखा गया और गत मार्च में में उनकी रिहाई की गई।
उम्मीद तो यह की जा रही थी कि नजरबंदी से रिहाई के बाद फारुख अब्दुल्ला जैसे नेता अपनी राष्ट्र विरोधी सोच से तौबा कर लेंगे और जम्मू कश्मीर को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने की दिशा में उठाए गए मोदी सरकार के ऐतिहासिक कदम का समर्थन करने में कोई संकोच नहीं करेंगे।
परंतु जल्द ही फारुख अब्दुल्ला ने अपने विवादास्पद बयानों का पुराना सिलसिला फिर से शुरु कर यह साबित कर दिया कि उनसे सुधरने की थोडी सी उम्मीद करना भी बेमानी होगा।
नजरबंदी से रिहाई के बाद सोच संभलकर बयान देने के बजाय वे ढाक के वही तीन पात कहावत को सच साबित करने में जुट गए हैं। विगत कुछ महीनों में फारुख अब्दुल्ला ने ऐसे कई बयान दिए हैं,जिनसे यह प्रतिध्वनित होता है मानों वे राष्ट्र की संप्रभुता,अखंडता और एकता को चुनौती दे रहे हों।
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उनके घोर आपत्तिजनक बयानों के लिए उन पर कोई कानूनी कार्रवाई न होने से उनका दुस्साहस इतना बढ गया कि उनने जम्मू कश्मीर में पुन: अनुच्छेद 370 की अपनी राष्ट्र विरोधी मांग को पूरा करने के लिए चीन से सहयोग लेने की बात कहने में भी कोई शर्म महसूस नहीं की ।
हाल में ही फारुख अब्दुल्ला ने कहा है कि चीन ने जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 समाप्त करने के केंद्र सरकार के फैसले का समर्थन नहीं किया है और अब चीन की मदद से ही राज्य में अनुच्छेद 370की बहाली संभव होगी।
यही नहीं फारुख अब्दुल्ला तो बयान देने में इतना आगे निकल गए कि चीन के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तनाव की वजह भी उन्होंने एक वर्ष पूर्व के मोदी सरकार के उस फैसले को बता दिया जिसके तहत जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी कर उसे भी भारत संघ का एक सामान्य राज्य बना दिया गया था।
फारुख अब्दुल्ला के इस राष्ट्र विरोधी बयान का देश भर में विरोध हो रहा है और उनके विरुद्ध देशद्रोह की धाराओं में मुकदमा चलाने की मांग की जा रही है। इतने सब के बावजूद फारुख अब्दुल्ला ने अपने आपत्तिजनक बयान के लिए क्षमायाचना नही की है ,न ही अपना बयान वापिस लिया है जिससे यह साबित होता है कि यह उनकी सोची समझी शराऱत है जिससे लिए उनके विरुद्ध कठोर कानूनी कार्रवाई होना ही चाहिए।
गौरतलब है कि फारुख अब्दुल्ला अभी तक अपने बयानों से पाकिस्तान परस्ती के सबूत देते आए हैं लेकिन अब उन्हें इस कडवी हकीकत का अहसास हो चुका है कि आतंकवाद के मुद्दे पर अंतर्राष्ट्रीय जगत में शर्मसार हो चुके पाकिस्तान से किसी मदद की उम्मीद करना बेकार हैे इसलिए पहली बार अब उन्होंने चीन का राग अलापा है लेकिन वे यह नहीं जानते कि भारत की सद्भावना का नाजायज लाभ उठाकर सीमा पर उकसाने की कोशिशों मे लगे चीन की तरफदारी उन्हें कितनी महंगी पड सकती है।
जम्मू कश्मीर या देश के किसी भी भूभाग के बारे में निर्णय लेने के हमारे अधिकार को चुनौती देने का अधिकार किसी देश को नहीं है। फारुख अब्दुल्ला चीन की मदद से जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 की बहाली का दिवा स्वप्न भी देख रहे हैं तो देश की संप्रभुता को चुनौती देने के अपराध जैसा है।
चीन या किसी भी देश को हमारे आंतरिक मामलों में दखल देने का कोई अधिकार नहीं है। फारुख अब्दुल्ला जैसे नेताओं को याद रखना चाहिए कि मोदी सरकार ने जम्मू कश्मीर के मामले में मध्यस्थता के अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प के प्रस्ताव को मानने से से भी स्पष्ट इंकार कर दिया था। जम्मू कश्मीर को भारत संघ का सामान्य राज्य बनाने का जो ऐतिहासिक फैसला मोदी सरकार ने एक वर्ष पूर्व किया था वह अंतिम था जिसका उद्देश्य राज्य को आतंकवाद से मुक्ति दिलाकर अमन चैन की बहाली और विकास के नए युग कीशुरुआत का मार्ग प्रशस्त करना है।
दरअसल मोदी सरकार के इस फैसले से राज्य के उन अलगाववादी नेताओं की राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि के सारे रास्ते बंद हो गए हैं जो जनता को बरगलाकर राज्य में अपने हित साधने में जुटे रहते थे। अब वे जिस तरह के बयान दे रहे हैं उनसे खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे कहावत ही चरितार्थ हो रही है। दिक्कत यह है कि उनकी इसके लिए उनकी कितनी भी लानत मलानत क्यों न की जाए वे अपनी इस पहिचान को छोडने के लिए तैयार नहीं हैं।
सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि उनकी पार्टी केंद्र में भी गठबंधन सरकार का हिस्सा रह चुकी है और वे खुद केंद्रीय मंत्री की कुर्सी पर आसीन रह चुके हैं परंतु विवादास्पद बयानों से तौबा करने का विचार उनके मन में कभी नहीं आया। गत वर्ष केंद्र की मोदी सरकार ने जब जम्मू कश्मीर राज्य को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले संविधानके अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने का साहसिक फैसला किया तब सरकार ने राज्य में अमन चैन बनाए रखने के लिए जिन नेताओं को नजरबंद कर दिया था। उनमें फारुख अब्दुल्ला भी शामिल थे।
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इसमें कोई संदेह नहीं कि अगर उन्हें भी दूसरे नेताओं के साथ नजरबंद नहीं किया जाता तो वे राष्ट्र विरोधी बयानों से राज्य के अलगाववादी तत्वों को भडकाने से बाज नहीं आते इसलिए सरकार को दूसरे नेताओं के साथ उन्हें भी नजरबंद करने का फैसला लेना पडा। उनकी वृद्धावस्था को देखते हुए हाल में ही उन्हें जब रिहा किया गया था तब उम्मीद तो यह की जा रही थी कि अब तक उनकी मानसिकता में परिवर्तन आ चुका होगा परंतु अपने ताजे बयानों से उनने केवल यही साबित किया है कि उनसे ऐसी कोई भी उम्मीद करना बेयानी है।
राज्य में मुख्यमंत्री और केंद्र सरकार में मंत्री पद का उपभोग करने के लिए ही उन्होंने में संविधान में पूर्ण निष्ठा की शपथ ली थी लेकिन उसके अनुरूप आचरण करने की उनसे अपेक्षा नहीं की जा सकती। यदि जम्मू कश्मीर में आतंकवाद के उन्मूलन,अमन चैन की बहाली और राज्य के द्रुतगामी आर्थिक विकास में वास्तव में उनकी कोई रुचि होती तो वे इसका मार्ग प्रशस्त करने वाले केंद्र सरकार के उस साहसिक फैसले का स्वागत करने का साहस दिखाते जिसके पीछे राज्य के नागरिकों को राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल करने का पावन उद्देश्य था परंतु वे हमेशा ही ऐसे बयान देते रहे हैं जो उनकी पाकिस्तान परस्ती का सबूत देते हैं।
उनके उस बयान को कैसे भुलाया जा सकता है जिसमें उन्होंने पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को लेकर पडोसी देश के प्रति हमदर्दी दिखाई थी। फारुख अब्दुल्ला यह कैसे भूल गए कि भारतीय संसद अतीत में एक मत से यह प्रस्ताव पारित कर चुकी है कि पाकिस्तान ने जम्मू कश्मीर के जिस भूभाग पर अपना नाजायज कब्जा कर रखा है वह भारत का अभिन्न अंग है। फारुख अब्दुल्ला हों या मेहबूबा मुफ्ती उन सभी नेताओं के सामने इस सच को स्वीकार कर लेने के अलावा कोई विकल्प शेष नहीं है।
फारुख अब्दुल्ला ने यह बयान न केवल शरारतपूर्ण है बल्कि इसमें देशद्रोही मानसिकता की बू भी आती है इस बयान की देश के दूसरे राजनीतिक दलों को भी निंदा करनी चाहिए। यदि कोई राजनीतिक दल फारुख अब्दुल्ला के बयान की निंदा करने से परहेज करता है तो उसका यही मतलब निकाला जाएगा कि वह परोक्ष रूप से फारुख अब्दुल्ला का समर्थन कर रहा है।
लोकतांत्रिक देश में सरकार के किसी फैसले की आलोचना का अधिकार सभी को परंतु किसी दूसरे देश की मदद से उस फैसले को पलटवाने के मंसूबे पालना निसंदेह देशद्रोही मानसिकता का ही परिचायक है और फारुख अब्दुल्ला ने अपने ताजे बयान से साबित कर दिया है कि वे कैसी मानसिकता रखते हैं