जुबिली न्यूज डेस्क
कोरोना महामारी की वजह से बिहार की जनता भले ही संकट में फंसी हो लेकिन विधानसभा चुनाव के एलान के बाद से ही सत्ता-राजनीति से जुड़ी जमातें यहा चुनावी खेल में खुलकर उतर चुकी हैं।
पिछले 15 वर्षों से सत्ता की चाबी अपने पास रखे जनता दल युनाइटेड (जेडीयू) के अध्यक्ष और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक बार चुनावी मैदान में उतरने जा रहे हैं।
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2015 विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के साथ गठबंधन कर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने वाले नीतीश कुमार को इस बार राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का चेहरा हैं।
हालांकि, चुनाव से पहले जिस प्रकार लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) ने उनके खिलाफ मोर्चा खोल रखा है, उससे ये बात है कि इस बार नीतीश के लिए कुर्सी की राह आसान नहीं होने वाली है।
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एलजेपी के अलावा इस बार सुशासन बाबू के नाम से चर्चित नीतीश कुमार के सामने कई और चुनौतियां भी मुहं बाये खड़ी हैं। कभी अपने विकास कार्यों और शराबबंदी जैसे फैसलों की वजह से जनता के दिलों पर राज करने वाले नीतीश कुमार की छवि पर पिछले तीन-चार सालों से लगातार दाग लग रहे हैं।
सृजन घोटाला, मुज़फ़्फ़रपुर बालिका गृह कांड, बाढ़ और अब कोरोना के इंतज़ामों को लेकर सुशासन बाबू की लगातार आलोचना हो रही है। लॉक डाउन के दौरान दूसरे राज्यों से लौटे प्रवासी मजदूरों में नीतीश को लेकर खाफी नाराजगी बताई जा रही हैं।
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बताया जा रहा है कि लंबे समय से सत्ता पर काबिज नीतीश कुमार के खिलाफ कई क्षेत्रों में विरोधी लहर पर चल रही है। इसका खामियाजा उन्हें आगामी विधानसभा चुनाव में भुगतना भी पड़ सकता है।
दूसरी ओर नीतीश कुमार के सामने उनकी उम्र भी एक अहम चुनौती बनने जा रही है। दरअसल, नीतीश कुमार 69 साल के हैं। अगर इस बार सत्ता में आते हैं और पूरे पांच साल मुख्यमंत्री की कुर्सी पर रहते हैं तो वे अगले चुनाव तक 74 साल के हो जाएंगे।
नीतीश बिहार की सत्ता में करीब साढ़े 13 साल मुख्यमंत्री रह चुके हैं। इस लिहाज से देखें तो एक नेता के तौर पर बिहार में सफल पारी खेल चुके नीतीश कुमार के सामने अपना उत्तराधिकारी को खोजना भी बड़ी चुनौती होगी।
इस बात को बिहार में जेडीयू की सहयोगी और गठबंधन में छोटे भाई भूमिका निभा रही बीजेपी बखूबी समझ रही है। साथ ही बीजेपी महत्वाकांक्षाओं ने नई संभावनाओं को जन्म दिया है।
राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि बीजेपी भले ही नीतीश कुमार के नेतृत्व में विधानसभा चुनाव लड़ रही हो लेकिन उसका लक्ष्य जीत के साथ-साथ बिहार में बड़े भाई की भूमिका में आने की है।
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इतना ही नहीं बीजेपी चिराग पासवान का इस्तेमाल भी नीतीश को काबू में करने के लिए कर रही है। चिराग पासवान का हमलावर होना और बीजेपी का चुप्पी साधे रहना क्या इशारा करता है?
ऐसे में सवाल उठता है कि चुनाव बाद अगर बीजेपी को जेडीयू से ज्यादा सीटें मिल गईं तो क्या बीजेपी छोटे भाई की भूमिका में रहना पसंद करेगी? चुनाव से पहले भले ही गठबंधन में कोई समस्या न आए लेकिन अगर बीजेपी को ज्यादा सीटें मिलीं तो चुनाव के बाद नीतीश जबरदस्त दबाव में आ सकते हैं। अपनी भूमिका बदलने के लिए बीजेपी पूरी मेहनत भी कर रही है।
इस बार नीतीश कुमार के सामने अपने सहयोगी तो चुनौती बने हुए हैं ही साथ ही विपक्ष भी पहले से ज्यादा आक्रामक भूमिका निभा रहा है। बिहार इकलौता ऐसा राज्य है जहां गठबंधन की सियासत में जीना हर राजनीतिक दल ने सीख लिया है।
यही वजह है कि बिहार में इस बार एनडीए और महागठबंधन के अलावा कई और भी गठबंधन बने हैं। ये गठबंधन इन्हीं दो प्रमुख गठबंधनों से अलग होकर निकलें हैं। इसलिए जाहिर सी बात है कि चुनाव में नए गठबंधन इनका ही नुकसान करेंगी।
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जैसे कुशवाहा वोटरों में अच्छी पैठ रखने वाले उपेंद्र कुशवाहा ने यूपी में दलितों की राजनीति करने वाल मायावती के साथ गठबंधन कर बिहार में पिछड़ों को लुभाने की कोशिश की है। बताया जा रहा है कि इस गठबंधन से ज्यादा नुकसान नीतीश कुमार का होगा।
नीतिश कुमार की जाति कुर्मी और कुशवाहा की जाति कोईरी को, बिहार में लव कुश कहा जाता है। बिहार में कुर्मी 5 फीसदी है तो कोईरी 7 फीसदी। बिहार में बीएसपी के पास करीब 3 फीसदी वोट है जो कुशवाहा के साथ मिलकर कई सीटों पर जेडीयू को नुकसान पहुंचा सकते हैं।
हालांकि ऐसा नहीं है कि नीतीश कुमार इन चुनौतियों का सामना नहीं कर रहे हैं। हर बार विरोधियों अपने दांव से पटखनी देने वाले राजनीतिक के माहिर खिलाड़ी नीतीश कुमार ने भी अपनी तैयारियां पूरी कर ली हैं।
नीतीश कुमार ने बिहार विधानसभा चुनाव 2020 की जिम्मेदारी संभालने के लिए पार्टी के पांच नेताओं को जिम्मेदारी दी है। ये नाम हैं- संजय झा, अशोक चौधरी, विजय चौधरी, ललन सिंह और आरसीपी सिंह।
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इन पांच नेताओं के कंधे पर बिहार विधानसभा चुनाव की जिम्मेदारी सौंपी गई है। जातिय संतुलन को साधने के लिए कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अशोक चौधरी को जेडीयू में प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया है। सबसे बड़ी बात यह है कि अशोक चौधरी पासी जाति से आते हैं, इस तरह वह दलित चेहरा भी हैं।
नीतीश कुमार की ओर से बनाई गई टीम में जातीय संतुलन का खास ख्याल रखा गया है। संजय झा ब्राह्मण, विजय चौधरी भूमिहार, ललन सिंह भूमिहार और आरसीपी सिंह कुर्मी बिरादरी से हैं।
बिहार में जातिय समीकरण
बिहार में ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत और कायस्थ के कुल वोट 17.2 प्रतिशत हैं और, अगर 7.1 फीसदी वैश्य वोटर जोड़ दिए जाएं, तो यह 24.3 फीसदी हो जाता है। 14.4 प्रतिशत यादव और 14.7 प्रतिशत मुस्लिम मिलकर 29.1 फीसदी वोट का आधार बनाते हैं।
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नीतीश कुमार का जो वोट बैंक है वह आम तौर पर पिछड़ा-अति पिछड़ा माना जाता है। मगर, यह आबादी महज 21.1 प्रतिशत है और जाहिर है कि यह वोट बैंक भी छोटे-बड़े हिस्सों में बंटता है। इसके अलावा नीतीश कुमार के जेडीयू को उस गठबंधन में साथ होने का फायदा मिलता है, जिसके साथ वे होते हैं।
सवर्ण वोट और मुस्लिम वोट भी नीतीश कुमार को मिलता रहा है। यही कारण है कि वे मोटे तौर पर 15 साल से लगातार सत्ता में हैं। हालांकि इस बार सीएए और एनआरसी जैसे मामलों के वजह से मुसलमानों ने नीतीश से दूरी बना ली है। ऐसे में देखना होगा कि नीतीश कुमार इन चुनौतियों से कैसे पार पाते हैं।