कलमकार को जब भी उसकी संवेदनाएं झकझोरती हैं वह कलम उठा लेता है. उन्हीं संवेदनाओं को अल्फ़ाज़ की शक्ल में परोस देता है. यह शक्ल कभी कविता की होती है कभी ग़ज़ल की और कभी नज़्म की. जुबिली पोस्ट ऐसे रचनाकारों की रचनाएं आपको नियमित रूप से प्रस्तुत करता रहता है.
सुपरिचित रचनाकार और पत्रकार सुभाष राय नियमित रूप से समाज की आवाज़ अपनी कविताओं के ज़रिये उठाते रहते हैं. मौजूदा माहौल में हालात जिस तरह से बदले हैं. जिस तरह से विवशताएं ज़िन्दगी का हिस्सा बन गई हैं उसे सुभाष राय की इस रचना में सहज ही समझा जा सकता है.
मैं एक चेहरा बनाना चाहता हूं
पर अधूरा रह जाता है बार-बार
न जाने क्यों बनता ही नहीं
मेरे पास हर तरह के रंग हैं
लाल, पीले, नीले, सफेद और काले भी
मेरी तूलिका में भी कोई खराबी नहीं है
इसी से मैंने अपनी तस्वीर बनायी है
बिल्कुल साफ-सुथरी, मैं पूरा दिखता हूं उसमें
जो भी मुझे पहचानता है, तस्वीर भी पहचान सकता है
उसकी आँखों में झांककर पढ़ सकता है मेरा मन
इसी तूलिका से मैंने कई और भी तस्वीरें बनायी हैं
सब सही उतरी हैं कैनवस पर
मैंने एक मजदूर की तस्वीर बनायी
उसके चेहरे पर अभाव और भूख साफ-साफ झलकती है
उसे कोई भी देखे तो लगता है वह तस्वीर से बाहर निकल कर
कुछ बोल पड़ेगा, बता देगा कि उसकी बीवी
किस तरह बीमार हुई और चल बसी
उसका बच्चा क्यों पढ़ नहीं सका
वह स्वयं तस्वीर की तरह जड़ होकर क्यों रह गया है
मैंने एक सैनिक की तस्वीर बनायी
वह अपनी पूरी लाचारी के साथ
मेरे रंगों से निकल कर कैनवस पर आ गया
वह घने जंगल में सीमा के पास खड़ा था
वहां आपस में गुत्थमगुत्था होते लोग हैं
एक-दूसरे को मार डालने पर आमादा
सैनिक के पास बंदूक है, उसे लड़ने का हुक्म भी है
पर वह तब तक गोलियां नहीं चला सकता
जब तक उसकी जान खतरे में न हो
तस्वीर देखने पर लगता है
वह कभी भी पागल हो सकता है
मैंने एक बच्चे की तस्वीर बनायी
वह मेरी तूलिका और रंग से खेलना चाहता था
वह कैनवस पर आ ही नहीं रहा था
वह मुझे चकमा देकर निकल जाना चाहता था
कभी रंगीन गुब्बारा उठाता और
उसे फोड़कर खिलखिला पड़ता
कभी बैट उठा लेता और भागता मैदान की ओर
कभी रोनी-सी सूरत बनाकर मां को आवाज देता
भविष्य को ठेंगे पर रखे कभी चिल्लाता
कभी सरपट दौड़ लगा देता
कभी मेरा चश्मा उतार लेता
तो कभी मेरी पीठ सवार हो जाता
वह तस्वीर में है पर नहीं है
मैंने एक संत की तस्वीर बनायी
मैं नहीं जानता कैसे वह पूरा होते होते
शैतान जैसी दिखने लगी
उसके चेहरे पर लालच है, क्रूरता है
मैं उसे देख बुरी तरह डर गया हूं
लोगों को सावधान करना चाहता हूं
पर कोई मेरी बात सुनता ही नहीं
लोग आते है, झुककर माथा नवाते है
कीर्तन करने लगते हैं, गाते-गाते होश खो बैठते हैं
और चीखते, चिल्लाते सब हार कर इस तरह लौटते हैं
कि लौटते ही नहीं कभी
मेरी तूलिका ने हमेशा मेरा साथ दिया
मेरे रंग कभी झूठे नहीं निकले
पर मैं हैरान हूं, इस बार
सिर्फ एक चेहरे की बात है
मैं बनाना चाहता हूं एक ऐसा चेहरा
जिसे मैं मुल्क कह सकूं
जिसमें सभी खुद को निहार सकें
पर बनता ही नहीं
कभी कैनवस छोटा पड़ जाता है
कभी पूरा काला हो जाता है
मुझे शक है कि मुल्क का चेहरा है भी या नहीं
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