रूबी सरकार
छतरपुर जिले से 90 किलोमीटर दूर एक पंचायत है भेलदा। भेलदा पंचायत का एक गांव अगरोठा ।यहां की आबादी महज ढाई हजार, लेकिन यहां की महिलाओं ने ऐसा कमाल किया, जिसकी गूंज पूरे देश में सुनाई देने लगी है। जो महिलाओं को सर्वहारा बने रहने को मजबूर करते है, उनके सामने यह एक उदाहरण है।
यहां की महिलाओं ने लॉकडाउन के समय का सदुपयोग करते हुए श्रमदान कर बरसात से पहले 107 मीटर तक पहाड़ की चट्टानों को खोदकर बारिश में बह जाने वाली पानी की धार को अपने गांव की तरफ मोड़ दिया। इससे इस बार बारिश से गांव में 35 एकड़ में बना तालाब लबालब भर गया । बुंदेलखण्ड में इन महिलाओं को जल सहेली के नाम से जाना जाता है।
हालांकि इस तालाब का निर्माण बुंदेलखण्ड पैकेज से वर्ष 2009 में किया गया था। लेकिन कुछ साल बाद ही यह ध्वस्त हो गया। पहले जल सहेलियों ने जीर्ण-षीर्ण अवस्था वाले 10 फूट गहरे तालाब को ठीक किया। फिर पहाड़ की चट्टानों को सामूहिक रूप् से 30 दिनों में खोदकर पानी के लिए नाला बनाया, जिससे पहाड़ों से बहने वाले बरसात के पानी को रोककर तालाब में संग्रहित किया जा सके।
पहली बरसात में जब तालाब पानी से लबालब हुआ , तो 500 से अधिक जल सहेलियेां ने दीप प्रज्जवलन कर इसका स्वागत किया। यह मनोरम छटां देखने के लिए दूर-दूर से लोग तालाब किनारे इकट्ठा हुए। आज इस पानी से 100 से अधिक किसान अपनी जमीन की सिंचाई कर रहे हैं। इतना ही नहीं, इससे गांव के हैण्डपम्प और कुंयें भी री चार्ज हो गये।
दरअसल विकास से कोसों दूर भेलदा पंचायत का यह गांव सौ फीसदी पलायन के लिए जाना जाता है। कोरोना महामारी के समय लॉकडाउन के चलते सभी को गांव वापस आना पड़ा, जिससे गांव में पानी का अभाव हो गया।
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जल सहेलियों ने इस कमी को पूरा करने को ठान लिया और लगभग दो साल से इस गांव में पानी व आजीविका को लेकर काम करने वाली एक संस्था परमार्थ समाज सेवी संस्थान से संपर्क साधा। जल संवर्धन के लिए संकल्पित संस्थान ने जल सहेलियों की इस मांग को स्वीकार कर लिया।
संस्था से सहयोग का आश्वासन मिलते ही पहले एक दर्जन और बाद में लगभग 200 से अधिक जल सहेलियों ने मिलकर पहाड़ की चट्टानों को चीरकर तालाब में पानी पहुंचाने के लिए रास्ता बनाया।
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गांव की सबसे पढ़ी-लिखी लड़की बबीता राजपूत बताती हैं, कि सरकारी सुरक्षा नियमों का पालन करते हुए पलायन से लौटे लोगों को घर पर कोरोन्टाइन होना पड़ा । इस बीच न हमें राशन मिला और न हमारे पास पीने के लिए भरपूर पानी था।
भूखों मरने की स्थिति आ गई थी। तब यहां की महिलाओं ने बैठक कर कुछ करने का मन बनाया। उनलोगों ने अपनी बात परमार्थ समाज सेवी संस्थान के कार्यकर्ताओं के साथ साझा किया। संस्थान के सचिव संजय सिंह ने सुझाव दिया, कि जल संकट से निपटने के लिए वे जो भी काम करेंगी, उसके लिए उन्हें राषन का किट उपलब्ध कराया जाएगा। संभवतः संस्थान की मंशा सम्मानजनक तरीके से उन्हें राशन किट उपलब्ध कराना था।
बबीता ने कहा, यह हमारे लिए सुनहरा अवसर था। इस तरह गांव जल संकट से मुक्त होगा और हमें राशन भी मिलेगा। पहले कुछ महिलाएं आगे आईं, फिर देखते-देखते 7 गांव की लगभग 200 से अधिक महिलाओं ने इस श्रमदान में भाग लिया। इस तरह ग्रामीण तकनीक से मात्र 30 दिनों में पानी के लिए यह नाला बन गया। बबीता बीए द्वितीय वर्ष की छात्रा है। वह रोज लगभग 24 किलोमीटर साईकिल चलाकर कॉलेज पढ़ने जाती है।
जल सहेली लक्ष्मीबाई सहौद्रा को भेलदा पंचायत के सचिव मनमोहन से काफी शिकायत है, वे कहती हैं, कि जब गांव के लोग डेढ़़ किलोमीटर पैदल चलकर अपनी समस्या लेकर उनके पास पहुंचते हैं, तो वे अनसुना कर देते हैं। हमारा जॉब कार्ड अभी तक नहीं बना है। जॉब कार्ड नहीं होगा, तो हमें गांव में काम भी नहीं मिलेगा।
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ऐसे में गांव के लोगों को मजदूरी के लिए पलायन करना पड़ता हैं। यहां अभी तक किसी को प्रधानमंत्री आवास भी नहीं मिला, जबकि यहां अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़ा वर्ग के लगभग 300 घर हैं। किरण कहती है, कि पानी के लिए गर्मी में रात-रात भर हैण्डपम्प पर लाईन लगाते थे। इस तालाब के भरने के बाद अब हैण्डपम्प में अच्छा पानी आने लगा है।
कक्षा 11 वीं की छात्रा रचना लोधी की चिंता यह है, कि इस बार मात्र 10 फीसदी बारिश हुई है, जिसके चलते पूरा गांव पलायन की तैयारी कर रहा है। वह बताती है, कि विकास के नाम यहां कुछ भी नहीं हुआ है, न तो यहां सबके पास राशन कार्ड हैं और न हमें कोई सरकारी सुविधाएं मिलती है।
यहां तक कि एक साल पहले सुझारा बांध से पेयजल उपलब्ध कराने के लिए पाईप लाईन बिछाया गया, घरों में नल भी लगा दिये गये, लेकिन पानी अभी तक नहीं आया। पूरे गांव में एक हैण्डपम्प है, जिसमें लड़कियां सुबह 4 बजे लाईन लगाती है, तो उनका नम्बर 8 बजे आता है।इस तरह हमारा कॉलेज अक्सर छूट जाता है। यहां के कुपोषित बच्चों का इलाज भी ढंग से नहीं हो पाता । इलाज के लिए हमें ग्वालियर जाना पड़ता है। गांव में अभी भी लगभग 20 बच्चे कुपोषित है, लेकिन एक भी बच्चा पोषण पुनर्वास केंद्र में नहीं गया है। उसने कहा, कि 9 साल की प्रतीज्ञा का वजन मात्र 20 किलोग्राम है। कुछ दिन पहले ग्वालियर ले जाकर उसका इलाज करवाया था।
गरीबी के कारण बार-बार यह संभव नहीं हो पाता। 9वीं की छात्रा रानी बताती है, कि केवल 10 फीसदी लोग ही गांव में रहते है, बाकी सभी काम के लिए दिल्ली, राजस्थान पलायन करते है, वहां उन्हें निर्माण काम में 250 रूपये प्रतिदिन मजदूरी मिल जाती है। यहां सबके पास अपना खेत भी नहीं है, इसलिए दूसरों के खेत पर मजदूरी करते हैं ।
जल संरक्षण के क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभाने वाले परमार्थ समाज सेवी संस्थान के सचिव संजय सिंह बताते हैं, कि अत्यंत पिछड़े अगरोठा गांव में संस्था ने वर्ष 2019 में जलापूर्ति के लिए ग्रामीणों की सहभागिता से 3 चेकडेम व 3 आउटलेट बनवाया था। इससे गांव में पानी का स्तर बढ़ा और हैण्डपम्प व कंुए रीचार्ज हो गये। हालांकि यह इनके लिए तब भी पर्याप्त नहीं था।
इसलिए इस बार जब जल सहेलियों की तरफ से मांग आई, तो संस्था ने पूरा सहयोग दिया। हालांकि इस गांव में बंुदेलखण्ड पैकेज से तालाब बने थे, परंतु जलस्रोतों का कोई माध्यम न होने से तालाब बरसात के बाद सूख जाता था। दरअसल देश की विडम्बना यही है, कि यहां सरकार के पास प्रभावितों से विमर्श करने की कोई गुंजाइश ही नहीं है। सारी परेशानी इसी बात की है।
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