जुबिली न्यूज डेस्क
एक पढ़े-लिखे आम आदमी से पूछा जाए कि देश के सामने क्या समस्याएं है तो वह एक मिनट में दस ऐसी खबरों को गिना देगा जो समाज से जुड़ी हुई हैं। कोरोना संकट के बीच में तो समस्याओं में और इजाफा हो गया है, पर मुख्य धारा की मीडिया को इन खबरों से कोई सरोकार नहीं है।
मुख्य धारा की मीडिया को न तो इंसानों की समस्याओं से सरोकार है न ही जीव-जंतुओं के। उसे न तो पर्यावरण की चिंता है और न ही क्लामेट चेंज की। न जाने कितनी ऐसी समस्याएं हैं जो दुनिया को संकट में डाल रही हैं, ऐसी भी खबरों को जगह नहीं मिल रही हैं।
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अखबारों में आम आदमी की समस्याओं से जुड़ी कुछ खबरें मिल भी जायेंगी, पर न्यूज चैनलों को तो इससे कोई लेना-देना ही नहीं है। पिछले दो माह में पर्यावरण और क्लाइमेट चेंज को लेकर ऐसी कई रिपोर्ट प्रकाशित हुई जो चिंता बढ़ाने वाली है। एक रिपोर्ट में कहा गया कि पिछले पचास साल में दुनिया की दो तिहाई जंतु आबादी खत्म हो जायेगी। इसके लिए इंसानों को ही जिम्मेदार ठहराया गया है। इसके अलावा एक रिपोर्ट में यह कहा गया कि क्लाइमेट चेंज के बढ़ते असर के कारण साल 2050 तक दुनिया में करीब 120 करोड़ लोगों को अपना घर छोड़कर किसी दूसरी जगह विस्थापित होना पड़ेगा। पानी और अनाज को लेकर भी चिंता बढ़ाने वाली रिपोर्ट प्रकाशित हुई, पर शायद ही कोई न्यूज चैनल हो जिसने इसे प्रमुखता से दिखाया हो।
ये सारी खबरें इंसानों से जुड़ी हुई है। ये डराने वाली खबरें हैं, पर आज के खबरिया चैनलों को डराने वाली खबरों से सरोकार नहीं है। दरअसल न्यूज चैनल अब अपने दर्शकों का खासा ख्याल रख रहे हैं। वे दर्शकों को जागरूक नहीं कर रहे हैं बल्कि उनका मनोरंजन कर रहे हैं। सरकार से सवाल पूछना तो दूर सरकार के सम्मान में कसीदें पढ़ रहे हैें।
पर्यावरण, क्लाइमेट चेंज, सूचना अधिकार, मनरेगा और गवर्नेंस से जुड़ी वो तमाम खबरें जिनका वास्ता समाज से है, पर ये खबरें आपकों न्यूज चैनलों पर नहीं दिखाई देंगी। पर्यावरण के क्षेत्र में कई उम्मीद जगाने वाले खबरें आती रहती हैं जो क्षेत्रीय से लेकर राष्ट्रीय समाचारों में छपती हैं लेकिन समाचार चैनलों में उन्हें अपवाद स्वरूप ही जगह मिलती है। मिसाल के तौर पर उत्तराखंड के चमोली जिले में 124 साल बाद दुर्लभ ऑर्किड की एक प्रजाति मिली। इस खबर को तकरीबन सभी प्रमुख अखबारों या वेबसाइट ने छापा लेकिन शायद ही कि किसी न्यूज चैनल में इसे जगह मिली हो।
दरअसल न्यूज चैनलों का एजेंडा बदल गया है। वह सोशल मीडिया पर यूजर्स का मूड देखकर ही टीवी प्रोग्राम तैयार कर रहे हैं। यदि हम ये कहें कि सोशल मीडिया पर चल रही अफवाहों ने मुख्यधारा में घुसपैठ सी कर ली है, तो गलत नहीं होगा। सोशल मीडिया की ट्रेडिंग पर अब न्यूज चैनल के प्राइम टाइम का मुद्दा बन रही हैं।
बात पर्यावरण या क्लाइमेट चेंज की खबरों तक ही सीमित नहीं है। एक उदाहरण और लेते हैं। कोरोना लॉकडाउन के बाद जब लोगों की नौकरियां गईं तो मनरेगा वैकल्पिक रोजगार का साधन बना। तालाबंदी के बीच महानगर छोड़ अपने गांव पहुंचे मजदूरों को मनरेगा से काम मिला जिससे उनकी रोजी-रोटी चली। अखबारों में इससे जुड़ी खबरें दिखी पर कुछ एक अपवादों को छोड़ कर “मुख्यधारा न्यूज टीवी” बहरा ही बना रहा।
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खबरिया चैनलों के बदलते स्वरूप पर वरिष्ठï पत्रकार कुमार भावेश चंद कहते हैं दुनिया भर में राजनीतिक रूप से गहरे बंट चुके समाज में लोग वही सुनना चाहते हैं जिस पर वह भरोसा करते हैं चाहे फिर वह बात तथ्यों से परे ही क्यों न हो। सोशल मीडिया के साथ संप्रेषण के ताकतवर माध्यम बने टीवी चैनल इस खेल को समझ गए हैं।
वह कहते हैं सोशल मीडिया की ताकत ने टीवी चैनलों के कंटेंट पर व्यापक असर डाला है। पहले जो खबर पारम्परिक मीडिया में हिट हो जाती वह सोशल मीडिया पर चलने लगती थी लेकिन अब हालात बदल गए हैं। अब सोशल मीडिया में खबर ब्रेक होती है और न्यूज टीवी में चलने लगती है, फिर चाहे वह अफवाह ही क्यों न हो? क्योंकि वही बिकता है। उसमें बस यही कमर्शियल इंटरेस्ट होता है कि ऐसी चीज वायरल बहुत तेजी से हो जाती है। “