जुबिली न्यूज डेस्क
बिहार में विधानसभा चुनाव होने जा रहा है। चुनाव में जीत सुनिश्चित करने के लिए सभी राजनीतिक दल साम-दाम दंडभेद की नीति पर चल रही है। जीत के लिए वह कोई भी समझौता करने को तैयार है। उन्हें न तो आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों से परहेज है और न ही विपरीत विचारधारा पार्टी के लोगों को साथ लेने में। लेकिन 2020 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी किए गए एक निर्देश ने राजनीतिक दलों तथा आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों की राह कठिन बना दी है।
चुनावी सुधारों पर होने वाली तमाम चर्चाओं में राजनीति का अपराधीकरण एक अहम मुद्दा रहता है। राजनीति का अपराधीकरण – ‘अपराधियों का चुनाव प्रक्रिया में भाग लेना’ – हमारी निर्वाचन व्यवस्था का एक नाजुक अंग बन गया है। राजनीति का अपराधीकरण भारतीय लोकतंत्र का एक स्याह पक्ष है, जिसके मद्देनजर सर्वोच्च न्यायालय और निर्वाचन आयोग ने कई कदम उठाए हैं, किंतु इस संदर्भ में किये गए सभी नीतिगत प्रयास समस्या को पूर्णत: संबोधित करने में असफल रहे हैं।
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बिहार की राजनीति में अपराध का पुराना गठजोड़ रहा है। 15 साल पहले जब बिहार में लालू युग था तब भी अपराधिक पृष्ठभूमि के लोग चुनाव में ताल ठोक रहे थे और अब जब बिहार की सत्ता में सुशासन बाबू हैं तब भी ऐसे लोगों का राजनीति में डंका बज रहा है। समय बदलने के साथ-साथ राजनीति की दिशा और दशा दोनों बदली लेकिन तमाम चिंता और बहसों के बाद भी राजनीति में अपराधिक पृष्ठïभूमि के लोगों की दखल कम नहीं हुई। हां अलबत्ता दखल ज्यादा बढ़ गई है।
2020 में सुप्रीम कोर्ट ने जो राजनीतिक दलों के लिए जो निर्देश दिया है उसके मुताबिक सभी दलों को यह बताना होगा कि आखिर किस वजह से पार्टी ने दागी नेता को अपना प्रत्याशी बनाया है। वहीं उम्मीदवारों को अपने संपूर्ण आपराधिक इतिहास की जानकारी पार्टी प्रत्याशी घोषित होने के 48 घंटे के भीतर स्थानीय व राष्ट्रीय समाचार पत्रों में प्रकाशित करवानी होगी तथा 72 घंटे के अंदर सभी जानकारी चुनाव आयोग में जमा करनी होगी।
सुप्रीम कोर्ट ने अखबारों में प्रकाशन के लिए प्वाइंट साइज तक भी निर्धारित कर दी है जो कम से कम 12 प्वाइंट में होगा। इसके अलावा उन्हें यह सारी जानकारी सोशल मीडिया हैंडल पर भी सार्वजनिक करनी होगी। साथ ही अदालत ने यह भी कहा कि अगर ऐसा नहीं किया गया तो यह अदालत की अवमानना मानी जाएगी।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद पहली बार बिहार में ही विधानसभा चुनाव होने जा रहा है। चुनाव आयोग ने भी अदालत के आदेश के संबंध में राज्य की रजिस्टर्ड 150 पार्टियों को पत्र भेज दिया है जिसमें सुप्रीम कोर्ट के आदेश का अनुपालन सुनिश्चित करने की ताकीद की गई है।
बिहार में राजनीतिक पार्टियां आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को धड़ल्ले से उम्मीदवार बनाती रहीं हैं, पर इस बार सर्वोच्च अदालत के निर्देश ने दलों की मुश्किलों को बढ़ा दिया है।
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बाहुबलियों से किसी दल को नहीं रहा परहेज
नेताओं और बाहुबलियों का कनेक्शन बहुत पुराना रहा है। कानून से बचने के लिए बाहुबली नेताओं के शरण में गए और नेता इनका उपयोग चुनाव में करते थे। गिव एंड टेक का यह रिश्ता वर्षों तक चला, पर जब इन दागियों को यह समझ में आ गया कि नेता उनकी बदौलत माननीय बन सकते हैं तो वह क्यों नहीं? फिर क्या वह चुनाव अखाड़े में कूद गए।
जाति, धर्म जैसे प्रमुख कारकों पर राजनीति के निर्भर होने के कारण इनकी राह आसान हो गई और फिर लोकसभा व विधानसभा में बड़ी संख्या में आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों की उपस्थिति दर्ज होने लगी। धन और बाहुबल के दम पर सरकार बनाने और बिगाडऩे में इन बाहुबलियों का खासा योगदान रहा। शायद यही वजह है कि राज्य की किसी भी दल को इनसे परहेज नहीं रहा।
चुनाव के पहले राजनीतिक दल भले ही आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को टिकट न देने का राग अलापती रहीं हों किंतु ऐन मौके पर अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए उन्हें प्रत्याशी बनाने से किसी भी दल ने कोई गुरेज नहीं किया।
नीतीश सरकार के आने के बाद बाहुबलियों की हनक हुई कम
बिहार में बाहुबलियों का डंका काफी लंबे समय तब बजा। बिहार की राजनीति में इनकी खूब हनक थी। 80 के दशक में बिहार की सियासत में वीरेंद्र सिंह महोबिया व काली पांडेय जैसे बाहुबलियों का प्रवेश हुआ जो 90 के दशक के अंत तक चरम पर पहुंच गया।
बाहुबली प्रभुनाथ सिंह, सूरजभान सिंह, पप्पू यादव, मोहम्मद शहाबुद्दीन, रामा सिंह व आनंद मोहन तो लोकसभा पहुंचने में कामयाब रहे जबकि अनंत सिंह, सुरेंद्र यादव, राजन तिवारी, अमरेंद्र पांडेय, सुनील पांडेय, धूमल सिंह, रणवीर यादव, मुन्ना शुक्ला आदि विधायक व विधान पार्षद बन गए।
यह वह दौर था जब बिहार में चुनाव रक्तरंजित हुआ करता था। इस दौर में यह कहना मुश्किल था कि पता नहीं कौन अपराधी कब माननीय बन जाए, लेकिन जब साल 2005 में नीतीश कुमार सत्ता में आए तो स्थिति तेजी से बदली।
नीतीश सरकार ने 2006 में पुराने आपराधिक मामलों की त्वरित सुनवाई के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट का गठन किया। इसके बेहतर परिणाम सामने आए। कई दबंग अदालत द्वारा दोषी ठहराए गए और चुनाव लडऩे के योग्य नहीं रहे। जैसे-जैसे कानून का राज मजबूत होता गया, इन बाहुबलियों की हनक कमजोर पड़ती गई। फिलहाल कुछ जेल में सजा काट रहे हैं तो कुछ से पार्टियों ने ही दूरी बना ली।
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पिछले विधानसभा चुनाव में भी दागियों का रहा बोलबाला
नीतीश सरकार के आने के बाद ऐसा नहीं रहा कि राजनीति से आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों का खात्मा हो गया। इसके बाद भी हुए विधानसभा चुनावों में अपनी राजनीतिक जमीन बचाने के लिए सभी दलों ने इनका सहारा लिया।
आंकड़ों की माने तो शायद ही राज्य का कोई विधानसभा क्षेत्र ऐसा होगा जहां एक न एक दबंग चुनाव को प्रभावित करने की स्थिति में नहीं होगा। यही वजह है कि पार्टियां अपनी जीत सुनिश्चित करने के इन स्थानीय दबंगों या उनके रिश्तेदारों को अपना उम्मीदवार बनाने से परहेज नहीं करतीं हैं।
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्मस (एडीआर) की रिपोर्ट के मुताबिक 2010 में हुए विधानसभा चुनाव में 3058 प्रत्याशी चुनाव मैदान में थे, जिनमें 986 दागी थे। वहीं 2015 के चुनाव में 3450 प्रत्याशियों में से आपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों की संख्या 1038 यानि तीस प्रतिशत थी। इनमें से 796 यानी तेईस फीसद के खिलाफ हत्या, हत्या के प्रयास, सांप्रदायिक माहौल बिगाडऩे,अपहरण व महिला उत्पीडऩ जैसे गंभीर मामले दर्ज थे।
2015 के चुनाव में जदयू ने 41, राजद ने 29, बीजेपी ने 39 और कांगे्रस ने 41 प्रतिशत दागियों को टिकट दिया। यही वजह है कि 243 सदस्यीय विधानसभा के 138 अर्थात 57 प्रतिशत विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज थे। इनमें 95 के खिलाफ तो गंभीर किस्म के मामले थे।
अगर दलगत स्थिति पर गौर करें तो राजद के 81 विधायकों में 46, जदयू के 71 में 37, भाजपा के 53 में 34, कांग्रेस के 27 में 16 व सीपीआई(एम) के तीनों तथा रालोसपा और लोजपा के एक-एक विधायक के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज थे। एक नजर में 2010 में चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे 57 प्रतिशत तो 2015 में विजयी 58 फीसद माननीय नेताओं पर केस चल रहा था। 2010 में 33 प्रतिशत तो 2015 में 40 फीसद विधायक गंभीर आपराधिक मामले में आरोपित थे।
कोर्ट के फैसले के बाद पार्टियों की बढ़ी जिम्मेदारी
अब देश की बड़ी और मुख्य धारा की पार्टियों को उम्मीदवारों के चुनाव में पारदर्शिता दिखानी होगी। इस मामले में वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र दुबे कहते हैं कि कोर्ट के आदेश का कोई खास फर्क नहीं पडऩे वाला। दलों को अगर लगता है कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति की जीत सुनिश्चित है तो उन्हें यह प्रकाशित कराने में कोई दिक्कत नहीं होगी। जो भी फैसला करना है वह जनता को करना है।
वहीं वरिष्ठ पत्रकार कुमार भावेश चंद कहते हैं कि राजनीतिक दलों की सेहत पर इसका कोई फर्क नहीं पडऩे वाला। कोई पहली बार ऐसा नहीं हुआ है। इसके पहले भी चुनाव में सुधार के लिए कोर्ट और समिति फरमान जारी कर चुकी है। पर क्या हुआ? इसके तोड़ में ऐसे लोगों के रिश्तेदारों को टिकट देकर पार्टियां बीच का रास्ता निकालेंगी। पहले भी ऐसा होता रहा है। उन्हें तो किसी भी हालत में बस जीत चाहिए। बदलाव सिर्फ मतदाता ला सकते हैं राजनीतिक दल नहीं।