Friday - 25 October 2024 - 6:47 PM

उजाला और बढ़ता है, चिरागों को बुझाने से ..

  • आशूर में ताज़िए ना दफ्न होने की ट्रेजेडी ने कर्बला के ग़म को बढ़ा दिया

नवेद शिकोह

सांइस, क़ुदरत, फितरत.. सब का ये सिद्धांत है कि जो चीज़ जितनी दबायी जाती है वो उतनी ही उभरती है। उस वक्त दुनिया के सबसे ताकतवर बादशाह यज़ीद ने इमाम हुसैन को जुल्म-ओ-सितम से दबाने की कोशिश की थी। लेकिन हुसैन हार कर भी जीत गये और यज़ीद जंग जीत कर भी हार गया।

दूसरी मिसाल- 1857 में अंग्रेज़ों के जुल्म के दौरान ग़दर में हुसैन की याद में होने वाली अज़ादारी में बाधा आयी थी। ताजिया नहीं उठ सका था। नतीजतन लखनऊ ने अजादारी का दायरा बढ़ाकर सवा दो महीने कर लिया था। गदर के बाद लखनऊ की अज़ादारी की भव्यता दिन दूनी रात चौगनी बढ़ती गई।

अंग्रेज, कोरोना या जिस किसी के भी कारण ताजिए दफ्न नहीं हुए, उनका यज़ीद की तरह नाश होना निश्चित है। इस यक़ीन के साथ आशूर के आमाल में शिया मुसलमानों ने नकारात्मक शक्तियों के लिए बद्दुआ भी की। इमाम हुसैन के कातिलों पर लानत भेजने वाले आमाल/तज़बीह में अजादारी रोकने वाली शक्तियों को फना होने की दुआ भी की गई।

इस्लाम का चोला पहने फरेबी मुस्लिम लीडर, दरबारी मुस्लिम धर्मगुरुओं, तानशाह सत्ता, आतंकवाद और अन्यायपूर्ण न्याय व्यवस्था के खिलाफ आज के दिन एक ऐतिहासिक जंग हुई थी। इस्लामी कलेन्डर की दस तारीख को कर्बला की जंग के वाकिए वाले दिन को आशूर या मोहर्रम कहा जाता है।

इस बार का आशूर चौदह सौ साल पहले वाले आशूर के रुलाने वाले ग़म को कुछ ज्यादा ही ताज़ा कर रहा है। शहादत के बाद आशूर में कर्बला के शहीदों का दफ्न-ओ-कफन नहीं हुआ था। इसलिए दुनियाभर के हुसैनी अपनी अक़ीदत पेश करते हुए बहुत अदब और एहतराम से आशूर के दिन ताजिए दफ्न करते हैं। ताजिया हजरत इमाम हुसैन की कब्र (रौज़ा) का प्रतीक है।

आशूर के दिन ताजिए रुख्सत करके दफ्न करना अज़ादारी का सबसे महत्तवपूर्ण अनुष्ठान है। लखनऊ जिसने सारी दुनिया को अज़ादारी की भव्यता के रंग दिए उसी लखनऊ और संपूर्ण उत्तर प्रदेश में ताजिए दफ्न नहीं हुए।

अज़ादार हुसैनियों का कहना है कि सोशल डिस्टेंसिंग के ख्याल की शर्त के साथ हर चीज की इजाजत है, बस ताजिए दफ्न के इंतेजाम के लिए कोई एडवाइजरी जारी नहीं हुई। यूपी के मायूस ताजिएदारों का कहना है कि भारत के तमाम प्रदेशों में बिना भीड़ लगाये पूरी एहतियात/सोशल डिस्टेंसिंग के साथ ताजिए दफ्न करने की इजाजत मिली है।

ये भी पढ़े : दोस्ती के सौदागर अमर सिंह ने फ्रेंडशिप डे में मौत से की दोस्ती

ये भी पढ़े : फैज़ और दुष्यंत के वारिस थे राहत

यहां तक कि कोविड की मार झेलने वाले अमेरिका जैसे देश में भी सोशल डिस्टेंसिंग के साथ मातम की परमीशन दी गई। ताजिएदारी/अजादारी के मुखालिफ रही खाड़ी देशों में भी इतनी पाबंदियां नहीं लगायी गयीं।

भारत में मोहर्रम में हर धर्म समुदाय की सहभागिता होती है, इसलिए यहां ताजिएदारी करने में जितनी आजादी रही है दुनिया के इस्लामी देशों में भी इतनी स्वतंत्रता नहीं मिलती। लेकिन दुर्भाग्यवश इस बार कोविड के कारण उस लखनऊ में भी ताजिए दफ्न करने की भी इजाजत नहीं मिली जिस लखनऊ में ताजिएदारी/अज़ादारी को दुनियाभर में एक पहचान दिलायी।

कर्बला के शहीदों पर जुल्म में बड़ा जुल्म ये भी था कि शहीदों को दफ्न नहीं किया गया था। उसी बात के ग़म में ताजिए दफ्न करके खिराजे अकीदत पेश की जाती है। आशूर का दिन बहुत कुछ सिखाता है और याद दिलाता है। इस दिन ने ज़माने को बहुत कुछ बताया है-

  • करोड़ों की जनशक्ति और धनशक्ति वाली विशाल सत्ता सच की हिम्मत और हौसलों के आगे किस तरह धराशायी हो जाती है।
  • कर्बला की जंग ने पहली बार हार कर जीतने और जीत कर हारने की फिलासफी से भी वाक़िफ किया।
  • धर्म के नाम पर अधर्म की सत्ता चलाने वाले अत्याचारी, अय्याश, क्रूर, तानाशाह और ढोंगी शासक यज़ीद ने जुल्म की सारी हदें पार कर दीं थी।

ज़ालिम नहीं जानता कि जिस मिशन को मिटाने के लिए वो जितना ज़ुल्म करता है वो मिशन उतना ही गहरा होता जाता है। कर्बला में हज़रत इमाम हुसैन और उनके साथियों पर यज़ीद इतने ज़ुल्म नहीं करता तो हुसैन को चाहने की शिद्दत शायद इस कद्र नहीं होती।

और ये चाहत ग़म से निखरती है। शिया, सुन्नी और हिंदू भाई आज ताजिया नहीं दफ्न कर सके इसलिए मोहर्रम का ग़म दुगना हो गया। हर आशिक़-ए-हुसैन की आशिक़ी बढ़ गयी।

वाकिया-ए-कर्बला पर ही किसी शायर ने कहा था-

ज़माना कब समझता था शब-ए-आशूर से पहले,
उजाला और बढ़ता है चिराग़ों के बुझाने से।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Radio_Prabhat
English

Powered by themekiller.com anime4online.com animextoon.com apk4phone.com tengag.com moviekillers.com