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डंके की चोट पर : अज़ादारी पर बंदिश भक्त की नहीं हनुमान की बेइज्ज़ती है

शबाहत हुसैन विजेता

नवाबी हुकूमत का दौर था. गंगा-जमुनी तहज़ीब की तारीख तैयार हो रही थी. वाजिद अली शाह में म्युज़िक को लेकर गज़ब की दीवानगी थी. कथक जैसा खूबसूरत डांस उभरकर दुनिया को लुभाने लगा था. वाजिद अली शाह की महफ़िलों में एक तरफ नये-नये राग तैयार किये जा रहे थे तो दूसरी तरफ मर्सियाख्वानी को भी मेयार मिल रहा था. एक तरफ अवध के इमामबाड़ों को संवारा जा रहा था तो दूसरी तरफ होली का जुलूस भी अपनी जगह बनाता जा रहा था.

नवाबी हुकूमत में आलिया बेगम ने अलीगंज में हनुमान मन्दिर तामीर करवाया था. इस हनुमान मन्दिर की दास्तान भी दिल को छू लेने वाली है. आलिया बेगम के कोई औलाद नहीं थी. अवध की यह मलिका हर मज़ार और दरगाह की चौखट पर अपना माथा रगड़ चुकी थीं. एक बार उनका कारवां सीतापुर की तरफ से लखनऊ की तरफ बढ़ रहा था. रास्ते में रात हो गई तो जंगल में शामियाना लगाया गया. बिस्तर बिछा दिए गए. पहरेदार पहरे पर मुस्तैद हो गए. बाकी लोग सो गये.

आलिया बेगम ने ख़्वाब में देखा कि उनसे हनुमान जी कह रहे हैं कि जहाँ तुम सो रही हो उसी के नीचे मैं दबा हुआ हूँ. मुझे निकालकर स्थापित कर दो, मैं तुम्हें बेटा दूंगा. सुबह उठते ही आलिया बेगम ने उस जगह को खुदवाया तो वहां हनुमान जी की प्रतिमा मिली. प्रतिमा को हाथी पर लदवाकर आलिया बेगम लखनऊ की तरफ बढ़ गईं. लखनऊ के अलीगंज इलाके में पहुंचकर हाथी रुक गया. एक-एक कर सात हाथियों पर प्रतिमा लदवाई गई मगर हाथी एक इंच भी आगे नहीं बढ़ा.

उसी जगह पर शामियाने लगाये गए. अगले दिन कुछ करने का फैसला किया गया. रात को आलिया बेगम से ख़्वाब में हनुमान जी ने कहा कि मुझे यहीं स्थापित कर दो. गोमती के पार लक्ष्मण जी का स्थान है. उस समय गोमती का पाट कपूरथला तक था. आलिया बेगम ने उसी जगह पर हनुमान मन्दिर बनवाया. बदले में हनुमान जी ने आलिया बेगम को वारिस दिया.

हनुमान मन्दिर नवाबी हुकूमत की दें था इसलिए अवध के नवाबों ने इस मन्दिर के लिए जो भी ज़रूरत हुई उसे पूरा किया. वाजिद अली शाह के दौर में हनुमान मन्दिर में आने वालों के लिए पानी और गुड़ का इंतजाम किया गया. यही आगे चलकर भंडारे की शक्ल में सामने आया.

इसके बाद के दौर को देखें तो मुसलमान बादशाहों ने मन्दिरों के लिए खजाने खोल दिये और हिन्दू बादशाहों ने इमामबाड़ों को तामीर करवाया. मुल्क को ऐसे बादशाह मिले तो गंगा-जमुनी संस्कृति पैदा हुई. मुल्क को ऐसे बादशाह मिले तो इसका नतीजा यह हुआ कि अल्लामा इकबाल ने सारे जहाँ से अच्छा लिखा.

गंगा-जमुनी तहजीब की लहर पूरी दुनिया ने देखी. मज़हब को लेकर हिन्दुस्तान में टकराव बंद हो चुका था. अपने मज़हब को मानने के साथ-साथ दूसरे मजहबों को इज्जत देने का तौर तरीका ज़िन्दगी में ढाला जा रहा था. जगन्नाथ अग्रवाल और राजा झाउलाल इमामबाड़े तामीर करवा रहे थे.

हिन्दुस्तान में मोहब्बत की मज़बूत ज़मीन पर काबिज़ होने के लिए ब्रिटिश हुकूमत ने हिन्दू-मुसलमान के बीच जो लकीर पाकिस्तान की शक्ल में खींची उसका नतीजा हिन्दुस्तान 73 साल से लगातार भुगत रहा है. उत्तर प्रदेश की बागडोर जब हनुमान भक्त के हाथ में आयी थी तब यह उम्मीद बढ़ गई थी कि अब एक बार फिर गंगा-जमुनी तहजीब की लहरें देखने को मिलेंगी. उम्मीद बनी थी कि एक बार फिर हिन्दू-मुसलमान मिलकर मुल्क को वही पुरानी वाली मजबूती देने का काम करेंगे.

हनुमान भक्त की हुकूमत में उस अज़ादारी को कमज़ोर करने की सियासत शुरू हो गई जो अज़ादारी आतंकवाद के खिलाफ जंग का एलान कही जाती है. 14 सौ साल पहले दुनिया के पहले आतंकी यज़ीद ने पैगम्बर-ए-इस्लाम के नवासे को उनके दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ शहीद कर दिया था. उसी शहादत की यादगार है अज़ादारी.

अज़ादारी दुनिया को यह बताने के लिए है कि हम आतंकवाद के खिलाफ आवाज़ उठा रहे हैं. अज़ादारी यह बताने के लिए है कि हम हक़ और इन्साफ के साथ खड़े हैं. अज़ादारी यह बताने के लिए है कि हमारे लिए हुकूमत नहीं हमारे उसूल बड़े हैं. अज़ादारी यह बताने के लिए है कि हम रहें या न रहें लेकिन किसी आतंकी को सर नहीं उठाने देंगे.

यह सही है कि यह कोरोना का दौर है. सड़कों पर भीड़ नहीं जमा करनी है. मगर यह भी सही है कि कोरोना की गाइडलाइंस को मानते हुए अज़ादारी हो सकती है. दो-दो गज़ की दूरी बनाकर ताजिये निकाले जा सकते हैं. जितने लोगों को कब्रिस्तान और श्मशान जाने की तैयारी है उतने लोग मजलिसों में भी शामिल हो सकते हैं.

यह बात सभी मानते हैं कि कर्बला का गम मनाने वालों को अनुशासन नहीं सिखाना पड़ता है. वह खुद अनुशासित होते हैं. उन्हें जो नियम बताये जाते हैं वह उन नियमों को तोड़ते नहीं हैं.

हिन्दुस्तान में अज़ादारी की अहमियत दुनिया के किसी भी मुल्क से कहीं ज्यादा है क्योंकि हजरत इमाम हुसैन ने यज़ीद से कहा था कि तू अगर अपनी हुकूमत में इन्साफ को पसंद नहीं करता है तो मुझे हिन्दुस्तान चला जाने दे. ज़ाहिर है कि इमाम हुसैन को पता था कि हिन्दुस्तान की हुकूमत इन्साफ पसंद है. हुकूमत जब हनुमान भक्त के हाथ में हो तब इस बात की अहमियत और भी बढ़ जाती है.

हुकूमत खुले दिमाग से सोचे. हुकूमत यह समझे कि अज़ादारी तो आतंकवाद की मुखालिफत है तो फिर वह अज़ादारी के खिलाफ क्यों है? हुकूमत को यह भी समझना होगा कि जिस चीज़ को ज्यादा दबाया जाता है वह पहले से ज्यादा ताकतवर होकर उभरती है.

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अभी हाल में अखिलेश यादव की हुकूमत में लखनऊ के डिस्ट्रिक्ट एडमिनिस्ट्रेशन को किसी ने समझाया कि लब्बैक या हुसैन हुकूमत को चैलेन्ज करने वाला नारा है. एडमिनिस्ट्रेशन ने सच्चाई जाने बगैर इस नारे को दबाने में अपनी पूरी ताकत लगा दी. नतीजा यह हुआ कि अजादारों के लिए लब्बैक या हुसैन सबसे बड़ा नारा बन गया.

भड़काने वालों से हुकूमत अगर भड़क जाए तो फिर वह हुकूमत कहाँ? हनुमान भक्त की हुकूमत में अज़ादारी के लिए धरना देना पड़े तो यह भक्त की नहीं हनुमान की बेइज्ज़ती है. हुकूमत तय करे कि वह जिसकी भक्त है उसकी बनाई राह पर भी चलती है या नहीं.

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