आराधना भार्गव
उत्तर प्रदेश भारत के सबसे बड़े राज्य में गिना जाता है। स्वभाविक सी बात है कि बड़ा प्रदेश होने के नाते प्रदेश की देखभाल बहुत अच्छे तरीके से करने में सरकार असमर्थ है। अपराधियों का एनकाउंटर की प्रथा सबसे पहले भारत के पूर्व प्रधानमंत्री वी.पी.सिंह जो पहले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के पद पर थे, के समय पर शुरू हुई। एनकाउंटर में अधिकतर अनुसूचित जाति, जनजाति तथा पिछड़े वर्ग के लोगों को ही मारा जाता था। एनकाउंटर मे मारे जाने वाले लोगों के मानव अधिकारों की लड़ाई पूर्व रक्षामंत्री तथा यू.पी. के पूर्व मुख्य मंत्री मुलायम सिंह यादव द्वारा की जाने लगी। अपराधियों एवं पुलिस के साथ सांठ-गांठ करके राजनीति में सफल होने का पुराना इतिहास है। पुलिस अपराधी पैदा करती है। राजनीतिज्ञ अपराधी को पालते पोसते हैं, और अपराधी के बल पर राजनीति का खेल चलता है। अगर कोई व्यक्ति अपराधी एवं पुलिस के साथ सांठ-गांठ करके राजनीति नही, करता वह राजनीति के अखाड़े से बाहर हो जाता है।
विकास दुबे जैसे अपराधी एक दिन में नही बनता, धीरे-धीरे ही उसका विकास होता है। गैंगस्टर द्वारा आठ पुलिस वालों की निर्मम हत्या कर दी गई। इसकी सूचना कि पुलिस की टीम उसे गिरफ्तार करने आ रही है देने वाला भी पुलिस महकमे का व्यक्ति था। विकास दुबे पुलिस की मुखबरी करने के लिए ऐसे पुलिस वालों को पालकर रखता था। इससे स्पष्ट है कि अपराधी को पुलिस ने पैदा किया तथा अपराध करने के लिए पूरा संरक्षण भी दिया। विकास दुबे जैसा एक अपराधी छिन्दवाड़ा में गुड्डू कोस्टी के नाम पर चर्चित था बहुत बार अदालत में उससे मुलाकात होती थी, चूंकि मैं जिस मोहल्ले में रहती थी उस मोहल्ले में गुड्डु कोस्टी भी रहता था इस नाते मैंने गुड्डू से कहा कि ये काम छोड़ क्यों नही देते हो? तब उसने कहा कि मैं छोड़ तो देना चहाता हूँ परन्तु मैं अगर चोरी या डकैती न करूँ तो पुलिस वाले मुझे परेशान करते है, तथा चोरी वा डकैती वा अन्य अपराध करने पर मजबूर करते हैं। बाद में गुड्डू कोस्टी का भी एनकाउंटर करवा दिया गया।
गैंगस्टर विकास दुबे का एनकाउंटर में मारा जाना देश की जनता को अच्छा लगा। सवाल यह उठता है कि देश के नागरिकों का न्याय पालिका पर से विश्वास क्यों उठ गया? न्याय देने तथा उसके अधिकारों का संरक्षण करने का काम न्याय पालिका करेगी, न्याय पालिका के रहते यह काम पुलिस वाले क्यों कर रहे हैं ? मात्र एनकाउंटर में अपराधियों को मारने का काम पुलिस वाले नही कर रहे हैं बल्कि अब तो मकान या खेत का कब्जा भी लेना है तो पुलिस वाले कब्जा दिलवाले का काम भी कर रहे हैं। जब दाण्डिक एवं व्यवहारिक मामलों में त्वरित कार्यवाही कर, त्वरित फैसला, पुलिस महकमा करने लगा है तो फिर देश में न्याय पालिका की अवश्यकता ही नहीं है। न्यायाधीशों का वेतन, भत्ता, बंगला, गाड़ी, चपरासी, सुरक्षा गार्ड न्याय पालिका भवन अलग-अलग न्यायाधीशों के वातानुकूलित कमरे, फर्नीचर, कम्प्यूटर व उन्हें चलाने के लिए आपरेटर, चपरासी, आदि अनेक खर्चो की फिर क्या अवश्यकता है? अब तो न्यायालय में ताले डाल देना चाहिए। शायद यही संदेश उत्तर प्रदेश की सरकार ने गैंगस्टर विकास दुबे को मरवाकर देश की जनता को दिया है।
भारतीय राजनीति में अपराधीकरण की जाँच करने के लिए एन.एन. वोरा तत्कालीन गृह सचिव के नेतृत्व में 1993 में एक कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार भारत के राजनीतिक जमात में 50 प्रतिशत अपराधी तत्व है का उल्लेख किया है। एन.एन. वोरा कमेटी की रिपोर्ट को सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त नहीं किया जा सकता। देश में आयोग का गठन तो कर दिया जाता है, और उनकी रिपोर्ट आने के बाद कचरे की टोकरी में डाल दिया जाता है। ऐसा ही एन.एन. वोरा कमेटी की रिपोर्ट का हाल भी हुआ।
तेलंगाना पुलिस द्वारा बलात्कार और हत्या के चार नवजवानों को एक मुठभेड में मार डाला गया उसके पश्चात् सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश शरद अरविन्द बोबडे ने 07 दिसम्बर 2019 को जोधपुर में राजस्थान उच्च न्यायालय के नए भवन के उदघाटन के दौरान कहा था, कि न्याय कभी आनन-फानन में नहीं हो सकता, यदि इसमें बदला होता है तो वह न्याय होने का अपना चरित्र खो देता है। उत्तर प्रदेश की पुलिस तो एनकाउंटर के मामले में बदनाम है। सर्वोच्च न्यायायल में यूपी की फर्जी मुठभेड़ को लेकर वर्ष 2018 से एक याचिका विचाराधीन है। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने तब कहा था कि यह मामला गम्भीर और विस्तार से सुने जाने लायक है, लेकिन वह सुनवाई अभी तक नहीं की गई। उसी तरह भीमा गोरेगांव प्रकरण में आज तक सुनवाई प्रारम्भ नहीं की गई और न ही आरोपितों को जमानत पर रिहा किया गया।
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अगर न्यायाधीशों को अपनी, तथा न्यायपालिका की गरिमा बनाऐ रखना है तो प्रकरणों की शीघ्र सुनवाई करने, गवाहों को व्हाट्सएप तथा मेल के जरियो सम्मन भेजने तथा समय सीमा के अन्दर फैसले करने होंगे। अगर हमारे न्यायाधीश चाहें तो गैंगस्टर विकास दुबे की पत्नी सहित अन्य परिजन और सहयोगियों के साथ अत्याधुनिक तकनीकि वाले उनके मोबाईल, लेपटॉप और कैमरे तत्काल ज़ब्त कर अन्वेषण की कार्यवाही को आगे बढ़ा सकते है, जिससे आसानी से बता सके कि विकास दुबे किसके किसके सम्पर्क में था। एन.एन. वोरा कमेटी कि रिपोर्ट को सरकार ने दबा दिया किन्तु अगर न्यायालय की गरिमा बनाये रखनी है तो सर्वोच्च न्यायालय विकास दुबे एनकाउंटर मामले की जाँच विशेष न्यायाधीश को सौंप कर करा सकती है। अगर हमारे देश की सर्वोच्च न्यायपालिका फर्जी मुठभेड़ तथा विकास दुबे के सम्पर्क किन-किन अधिकारियों तथा नेताओं से थे, और जिन अधिकारियों और नेताओं की शह पर वह अपराध कर रहा था, दोषियों के खिलाफ कार्यवाही करने का बीड़ा उठाती है तो देश की जनता का विश्वास एक बार फिर देश की न्यायपालिका पर बढ़ेगा।
(लेखिका अधिवक्ता हैं)