- सीएमआईई का दावा-भारत में बेरोजगारी की दर गिर रही है और वो महामारी से पहले के स्तर पर आ चुकी है
जुबिली न्यूज डेस्क
कोरोना महामारी के बीच हुए तालाबंदी के दौरान गैर-सरकारी संगठन सीएमआईई ने एक रिपोर्ट जारी किया था जिसमें कहा गया था कि बेरोजगारी दर अप्रैल में बढ़कर 23.5 और मई में 27.1 प्रतिशत तक चली गई थी, लेकिन अब सीएमआईए ने जो रिपोर्ट जारी किया है उसके मुताबिक भारत में बेरोजगारी की दर गिर रही है और वो महामारी से पहले के स्तर पर आ चुकी है।
गैर-सरकारी संगठन सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) ने दावा किया है कि भारत में बेरोजगारी की दर गिर रही है और वो महामारी से पहले के स्तर पर आ चुकी है। अगर यह रिपोर्ट सही है तो इसका मतलब है तालाबंदी में ढील दिए जाने के बाद आर्थिक गतिविधि फिर से शुरू हुई है और रोजगार का सृजन हुआ है, लेकिन क्या वाकई ऐसा हुआ है?
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गौरतलब है कि सीएमआईई ने पिछले कुछ महीनों में कहा था कि जो बेरोजगारी दर मार्च में 8.75 प्रतिशत थी, वह अप्रैल में बढ़कर 23.5 और मई में 27.1 प्रतिशत तक चली गई थी, लेकिन जून में इसमें गिरावट देखने को मिली। रिपोर्ट के अनुसार जून में बेरोजगारी दर गिरकर पहले 17.5 पर पहुंची, फिर 11.6 पर और फिर 8.5 पर पहुंच गई।
संस्था के अनुसार यह गिरावट मुख्य रूप से ग्रामीण बेरोजगारी के गिरने की वजह से आई है। वहीं रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि
शहरी बेरोजगारी में भी गिरावट आई है लेकिन यह अब भी 11.2 प्रतिशत पर है, जब कि तालाबंदी से पहले यह औसत 9 प्रतिशत पर थी। इसके विपरीत, ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार में बड़ा बदलाव आया है।
तालाबंदी से पहले ग्रामीण बेरोजगारी पहले मार्च में 8.3 प्रतिशत थी। तालाबंदी के दौरान यह औसत 20 प्रतिशत पर रही लेकिन जून में यह तालाबंदी से पहले के भी स्तर से नीचे गिर कर 7.26 पर आ गई। इन आंकड़ों पर सवाल उठ रहा है।
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क्या है ग्रामीण बेरोजगारी के गिरने का सच
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी का कहना है कि वैसे तो तालाबंदी में ढील दिए जाने से बेरोजगारी का दबाव सामान्य रूप से कम ही हुआ है, ऐसा लगता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में फायदा मनरेगा के तहत गतिविधियों के बढऩे से और खरीफ की फसल की बोआई में हुई वृद्धि की वजह से हुआ है।
मई में मनरेगा के तहत 56.5 करोड़ श्रम दिन दर्ज किए गए और 3.3 करोड़ परिवारों को इस योजना का लाभ मिला, जो कि सिर्फ तालाबंदी से पहले के मुकाबले ही नहीं, बल्कि एक साल पहले की भी अवधि के मुकाबले भी बड़ी उछाल है।
संस्था का यह भी कहना है कि दक्षिण-पश्चिमी मानसून समय से शुरू हुआ और मध्य और पश्चिम भारत में समय से पहले पहुंचा। पहले पखवारे में लंबी अवधि के औसत से 32 प्रतिशत ज्यादा बारिश हुई और इसकी वजह से खरीफ की बोआई पिछले साल के मुकाबले 39.4 प्रतिशत ज्यादा हुई।
वहीं सीएमआईई के डाटा पर अर्थशास्त्री अभिषेक रंजन कहते हैं कि सीएमआईई का डाटा काफी विश्वसनीय रहा है, लेकिन वर्तमान डाटा पर विश्वास करना कठिन है। इसका कारण यह है कि समस्या यह है कि रोजगार के आंकड़ों में उछाल के बावजूद खपत नहीं बढ़ी होगी और आर्थिक विकास से सीधा जुड़ाव खपत का है।
वहीं कुछ और विशेषज्ञा तो मनरेगा और मौसमी कृषि गतिविधि के दम पर दर्ज की गई रोजगार में इस वृद्धि को असली वृद्धि मानते ही नहीं हैं। अर्थशास्त्री योगेश बंधु कहते हैं कि सीएमआईई जिस आधार पर आंकड़ों का आकलन कर रहा है वो पुराने हैं और अब प्रासंगिक नहीं हैं।
वह तर्क देते हुए कहते हैं कि इन आंकड़ों से सरकार अपनी पीठ थपथपा सकती है, असल में यह धरातल पर नहीं है। वह कहते हैं कि जो व्यक्ति शहर में किसी नियमित रोजगार या स्वरोजगार में था और वो सब बंद हो जाने से उसने गांव जाकर मनरेगा के तहत कुछ काम किया तो इसे रोजगार के आंकड़ों में नहीं जोडऩा चाहिए, क्योंकि वह व्यक्ति जिस तरह का काम कर रहा था और उस से उसकी जिस तरह की आय हो रही थी उसे ना तो वैसा काम मिला और ना वैसी आय।
बंधु कहते हैं कि अगर ग्रामीण अर्थव्यवस्था की ही बात की जाए तो कृषि का हाल भी बहुत बुरा है क्योंकि कृषि उत्पादों के दाम पहले से भी बहुत ही नीचे स्तर पर हैं।
मनरेगा पर भी उठ रहा सवाल
डॉ. अभिषेक रंजन कहते हैं कि सीएमआईई जिन दूसरे तथ्यों को देख रहे हैं वो इन आंकड़ों की जरा भी पुष्टि नहीं करते। शहरों से तो अभी भी गांवों की तरफ पलायन ही चल रहा है, जो कि शहरों में नौकरियां ना होने का सबूत है। जहां तक गांवों की बात है कहीं-कहीं तो लोगों के अभी तक मनरेगा के जॉब-कार्ड ही नहीं बने हैं और जहां बने हैं वहां 5-7 दिनों में एक दिन काम मिलने की खबर आ रही है।
रंजन कहते हैं सीएमआईई ने तालाबंदी के दौरान भी जब 27 प्रतिशत बेरोजगारी के आंकड़े दिए थे तब कई दूसरी संस्थाओं के आंकड़े 50 से 60 प्रतिशत बेरोजगारी दिखा रहे थे। इसके अलावा वो यह भी कहते हैं कि संस्था के अपने आंकड़ों में विषमता भी है क्योंकि तालाबंदी के दौरान के आंकड़ों में भी इनके बेरोजगारी के आंकड़ों और आय और खपत के आंकड़ों में बहुत बड़ा अंतर था।
फिलहाल सरकारी आंकड़ों के अभाव में इन आंकड़ों को पूरी तरह से मान लेना या नकार देना मुश्किल है। असलियत क्या है यह जानने के लिए कुछ और अध्ययनों का इंतजार करना पड़ेगा।