Monday - 28 October 2024 - 6:48 PM

लचर स्वास्थ्य व्यवस्था : ऐसे तो नहीं जीत पायेंगे कोरोना के खिलाफ लड़ाई

प्रीति सिंह

जिसको लेकर आशंका व्यक्त की जा रही थी, अब वह सच साबित होती दिख रही है। भारत में जब कोरोना के शुरुआती मामले आए थे तभी विशेषज्ञों ने आशंका व्यक्त की थी कि यदि भारत में कोरोना ने विकराल रूप लिया तो देश की लचर स्वास्थ्य व्यवस्था इस महामारी को संभाल नहीं पायेगी। आज वही हो रहा है। हालात देखकर तो ऐसा ही लग रहा है कि सरकारी स्वास्थ्य ढांचा चरमराकर टूटने ही वाला है।

देश के कई राज्यों की अस्पतालों से ऐसी तस्वीरें आ रही है जो स्वास्थ्य व्यवस्था की पोल खोल रही हैं। अस्पतालों में अराजकता चरम पर पहुंच गई है। अब यह समझने की सख्त जरूरत है कि सरकारी स्वास्थ्य ढांचे को सुधारे और उसे जवाबदेह बनाए बगैर बात बनने वाली नहीं है।

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शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने कोरोना संक्रमण की चपेट में आए लोगों के उपचार में हो रही घोर लापरवाही का स्वत: संज्ञान लेते हुए कठोर शब्दों में अपना क्षोभ व्यक्त किया। अदालत ने राज्य सरकारों को जवाब तलब भी किया है। अदालत के इस रवैये पर किसी को शायद ही किसी को हैरानी हो, क्योंकि हालात वास्तव में बहुत खराब दिख रहे हैं। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि सरकारी अस्पतालों का सबसे बुरा हाल दिल्ली और मुंबई में देखने को मिल रहा है।

अब यदि देश की प्रशासनिक और वित्तीय राजधानी में स्वास्थ्य ढांचे का इतना बुरा हाल है तो फिर यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि अन्य शहरों में हालात कितने दयनीय होंगे। हालांकि अनुमान लगाने की जरूरत भी नहीं है, क्योंकि देश के अन्य शहरों के सरकारी अस्पतालों के खराब और डरावने हालात को बयान करने वाली खबरों का सिलसिला थम नहीं रहा है।

आज जो हालात है इसके लिए सरकारें पूर्ण रूप से जिम्मेदार हैं। कोरोना महामारी एक हफ्ते या दस दिन में नहीं फैली है। मार्च महीने में ही विशेषज्ञों ने सरकारों को आगाह कर दिया था कि आने वाले समय में कोरोना से देश के लाखों लोग संक्रमित हो सकते हैं, इसलिए उनके उपचार के लिए अस्पतालों में बड़ी संख्या में बेड के साथ अन्य संसाधन भी चाहिए होंगे। बावजूद इसके राज्य सरकारें युद्ध स्तर पर जुटकर पर्याप्त व्यवस्था नहीं कर सकीं। सवाल उठता है कि इसे आखिर राज्य सरकारों ने गंभीरता से क्यों नहीं लिया।

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राज्य सरकारों ने समुचित व्यवस्था बनाने से अधिक ध्यान बड़े-बड़े दावे करने में अपना समय लगाया, इसीलिए आज यह देखने-सुनने को मिल रहा कि कहीं कोरोना मरीजों को भर्ती करने से इन्कार किया जा रहा है, कहीं भर्ती के बाद उन्हेंं उनके हाल पर छोड़ दिया जा रहा है और कहीं-कहीं तो उनके शवों को कचरे वाले वाहनों में ले जाया जा रहा है। यह अकल्पनीय भी है और अक्षम्य भी।

एक ओर जनता बेड के लिए भटक रही है तो दूसरी ओर कोरोना टेस्ट बढ़ाने के बजाए घटाने की भी खबरें आ रही है। दिल्ली में जिस तरह यह सामने आया कि कोरोना मरीजों का पता लगाने के लिए होने वाले टेस्ट बढ़ाने के बजाय कम कर दिए गए उससे तो यही लगता है कि जानबूझकर मरीजों की संख्या कम दिखाने की चाल चली गई। यह केवल छल ही नहीं, लोगों के स्वास्थ्य से किया जाने वाला खुला खिलवाड़ भी है। आखिर ऐसे लापरवाही भरे रवैये से कोरोना के खिलाफ लड़ी जा रही लड़ाई को कैसे जीता जा सकता है?

दरअसल सरकारों की प्राथमिकता में स्वास्थ्य  कभी रहा ही नहीं है। यदि रहा होता तो देश में अच्छे और सुविधा-सम्पन्न अस्पताल होते। दुनिया के विकसित देश अपनी प्राथमिकता में सबसे पहले स्वास्थ्य रखते हैं और इसके लिए बजट भी अच्छा रखते हैं और भारत में सरकार की  प्राथमिकता में वह होती जो जो उनका वोट बैंक मजबूत कर सके।  शायद इसी का खामियाजा आज देश की जनता अपनी जान देकर चुका रही है।

अस्पतालों की दुर्दशा को ऐसे समझा जा सकता है कि देश का सबसे बड़ा अस्पताल आल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस ( एम्स)  की हालत किसी छिपी नहीं है। एम्स भारत ही नहीं साउथ ईस्ट एशिया में बड़ा नाम है। आज आलम यह है कि यहां के डॉक्टरों और नर्सो को तनख्वाह दे पाने की स्थिति में सरकार नहीं है। उसके लिए भी सियासी झगड़ा हो रहा है। ऐसी स्थिति में भी

मरीज दाये-बाये से सिफारश लगाकर अस्पताल में पहुंच रहा है तो उसके सामने जो सूची रखी जा रही है, उसमें मरीज के साथ-साथ डॉक्टर के पीपीई किट के पैसे भी जुड़े हैं। इसका मतलब है कि मरीज के इलाज के दौरान डॉक्टर के पास जो पीपीई किट होनी चाहिए वह भी सरकार नहीं दे पा रही है। उसका पैसा भी अस्पताल प्रशासन को जोडऩा पड़ता है क्योंकि हमारे यहां इसके लिए कोई इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं है। अब जब देश के सबसे बड़े अस्पताल का ये हाल है तो बाकी सरकारी अस्पतालों का क्या हाल होगा सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। कुल मिलाकर सरकार ने इलाज से भी पल्ला झाड़ लिया है। अब सबकुछ भगवान भरोसे है।

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