उत्कर्ष सिन्हा
हर राजनीति का एक दौर होता है ।
हर संकट बदलाव लाता है ।
ये दो कथन एक दम सत्य है। इतिहास की कसौटी पर कसिएगा तो आप साफ देख पाएंगे कि राजनीति ने भी एक खास वक्त के बाद अपना केंद्र बदला है। उसके मुद्दे भी बदल गए हैं और उसकी शैली भी बदल जाती है।
कोरोना काल में बहुत कुछ बदल रहा है ये तो बिल्कुल साफ है , हमारी अपनी जिंदगी से ले कर हमारा रहन सहन तक सब कुछ । अगर इतना कुछ बदल रहा है तो फिर क्या राजनीति नही बदलेगी ?
जरा पीछे की ओर निगाह घुमाते हैं । भारत की राजनीति में सबसे बड़ा बदलाव हुए भी तकरीबन 30 साल हो चुके हैं। अस्सी के दशक के आखिरी सालों में भारतीय राजनीति में मण्डल और कमंडल का प्रवेश हुआ था। इसके पहले भी जाति एक मुद्दा जरूर होती थी लेकिन उसका रैपर वर्गीय था। किसान और मजदूर राजनीति का बड़ा केंद्र था और वह अपने अंदर जातीय गणित को छुपाये रहता था।
कांग्रेस हो या विपक्ष,सबके पास अपने किसान नेता थे,अपने मजदूर नेता थे। यहाँ तक कि जगजीवन राम जैसे बड़े नेता भी खुद को दलित राजनीति का आईकन बनाने से परहेज करते हुए वंचितों के रहनुमा की तरह देखे गए। चौधरी चरण सिंह जाटों के नेता की बजाय किसान नेता माने जाते थे, ऐसा ही कुछ बलराम जाखड़ और शरद पवार के साथ भी रहा।
डा. लोहिया का समाजवाद भी वर्ग के बारे में बात करता था और जाति जोड़ों आंदोलन में यकीन रखता था। भारतीय राजनीति के पन्ने पलटेंगे तो ऐसे बहुत से नाम आपको याद या जाएंगे।
यह राजनीति में मजदूर और किसान का ही असर था कि यूपी,बिहार और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में भी कम्युनिस्ट पार्टियां दहाई में सीटें लाती रही थी।
लेकिन मण्डल और कमंडल ने इस राजनीति को ध्वस्त कर दिया। वर्ग टूट कर जातियों की हिस्सेदारी में उलझ गया। कांशीराम,मुलायम सिंह यादव,लालू यादव,रामविलास पासवान,शरद यादव जैसे नेता इसी वक्त में बड़े हुए। ये नई राजनीति इतनी तेजी से असरकारी हुई कि चौधरी चरण सिंह की किसान राजनीति को सम्हालने आए अजीत सिंह भी किसान नेता से जाट नेता बन कर एक इलाके में सिमट गए।
दूसरी तरफ आडवाणी और अटल के नेतृत्व में भाजपा ने उग्र हिन्दुत्व के आधार पर राजनीति का एक नया केंद्र बनाना शुरू कर दिया था।
राजनीति के इस नए समीकरण को और मजबूत किया नव उदारवादी नीतियों को लागू करने वाली नरसिम्हा राव की सरकार ने । ग्लोबलाईज़ेशन के आने के साथ ही मजदूर और किसान बहुत तेजी से राजनीति के परिधि से बाहर हुआ और वही वोटर जो किसान और मजदूर के मुद्दे पर जुड़ता था, वह अब अपनी अपनी जाति के खेमे में सिमट गया। और नव धनाढ्य हुआ शहरी वोटर आसानी से हिन्दू और मुसलमान में तब्दील हो गया।
इस बदलाव ने लंबे समय से सत्ता में बनी कांग्रेस और विपक्ष में प्रमुख भूमिका निभाने वाले कम्युनिस्टों को राजनीति से कमोबेश बाहर ही कर दिया।
जाति की राजनीति ने उत्तर भारत में छोटे छोटे क्षत्रपो को उभारा, उनके सवाल अपने जातीय समीकरणों के इर्द गिर्द सिमटने लगे। जातियों की गुणा गणित के जरिए सरकार बनने और गिरने लगी।
इस बीच उग्र हिन्दुत्व की लहर पर सवार भाजपा भी अपनी जगह तेजी बना रही थी। यूपी जैसे राज्य में उसने अपना प्रभाव बहुत तेजी से बढ़ाया। बीते 30 सालों में कुल मिला कर राजनीति कभी धर्म तो कभी जाति के पाले में ही आती जाती रही। मुलम्मा भले ही विकास का चढ़ा रहा मगर हकीकत यही थी कि जिसका ध्रुवीकरण कामयाब हुआ वह सत्ता में या गया।
अब जरा संकट काल की बात की जाए ।
कोरोना ने देश के भीतर जो अफर तफरी मचाई है वो अभी थमने का नाम नहीं ले रही। इस संकट काल ने बहुत कुछ तोड़ा है। खास कर काम की तलाश में गावों को छोड़ कर निकले लोगों को अचानक जिस तरह रोटी के लाले पड़े उसने इन लोगों को वापस गाँव की ओर धकेल दिया। मध्यवर्ग भी नौकरियों के लगातार खत्म होने के कारण संकट में पड़ता दिखाई दे रहा है। विशेषज्ञ इस बात का अनुमान लगा रहे हैं कि अमीर और गरीब के बीच का अंतर और भी बड़ा होने वाला है।
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गावों में मजदूरों को रोजगार देने के लिए लगातार घोषणाएं हो रही है मगर इन घोषणाओं के अमल में आने में अभी एक बड़ा वक्त लगेगा। चिंता यह भी है कि जो मजदूर लंबे जद्दोजहद के बाद वापस अपने घर आए हैं , क्या वे इतनी जल्दी लौटेंगे ? यदि नहीं लौटेंगे तो सिर्फ मानरेगा के भरोसे वे किस तरह जिंदा रहेंगे? लगातार घोषित होने वाले नए उद्योगों को लगने में कितना समय लगेगा ? और इस समयकाल के बीच क्या ये मजबूर लोग अपनी उसी मनस्थिति में रह पाएंगे जिसके आदि ये बीते 30 सालों से थे ?
अगर इन सवालों को गौर से देखा जाए तो एक इशारा ये भी मिल रहा है कि करीब 25 लाख की तादात में घर वापसी करने वाले ये लोग कम से कम 1 करोड़ वोटों को प्रभावित करने की स्थिति में जरूर होंगे। इन्हे किसानी भी करनी होगी जिससे काम से कम खाने का अनाज इनके पास हो । इस बीच उद्योगों को जमीन भी चाहिए, संघर्ष तो बढ़ेगा ही। मजदूरों के लिए कानून जिस तरह से ढीले किये जाएंगे वे भी आक्रोश का कारण बनेंगे।
तो क्या हम एक बार फिर तीस साल पुराने उस राजनीति के केंद्र में आने वाले हैं जहां वर्ग के सवाल ज़्यादा बड़े होंगे ? क्या कोरोना से उपजा संकट तीस साल के चक्र को तोड़ देगा ?
(लेखक जुबिली पोस्ट के प्रधान संपादक हैं)