केपी सिंह
कोरोना को लेकर देश के नाम अपने संबोधनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोगों से कहा है कि दुनियां अब पहले जैसी नही रह गई है। जिसके मददेनजर हमें अपनी जीवन शैली बदलनी पड़ेगी। सादगी और आत्मनिर्भरता का अवलंबन करना होगा जिससे उनका आशय था कि उपभोक्तावाद का मोह छोड़ना पड़ेगा। प्रधानमंत्री की नसीहत को लेकर देश में कहीं दोराय नही है। उन्होंने जो कहा वही आज हर आम और खास कह रहा है। लेकिन धरातल पर उसके लिए काम कैसे हो इसकी कशिश कहीं नजर नही आती। जिससे यह बातें हवा-हवाई नजर आना लाजिमी है।
सनद रहे संघ प्रमुख का यह बयान
राम जन्म भूमि पर आये सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने यह पूछे जाने पर कि क्या संघ इसके बाद कृष्ण जन्म भूमि को मुक्त कराने का आंदोलन छेड़ेगा कहा था कि संघ आंदोलन नही छेड़ता। उसका काम व्यक्ति निर्माण है और वह इसी में लगा रहेगा। जहां तक व्यक्ति निर्माण का प्रश्न है यह अकेले संघ की थ्योरी नही है। देश के अन्य मनीषियों ने भी भौतिक व्यवस्था को बेहतर बनाने के साथ-साथ इसकी भी आवश्यकता प्रतिपादित की है।
साम्यवाद से संघ को बैर क्यों ?
संघ को तो साम्यवादी विचारधारा से बैर है। वैसे होना नही चाहिए क्योंकि मेहनतकश वर्ग को सर्वोच्च दर्जा देकर सत्ता उसी के हाथ में सौंपने के सिद्धांत से कैसा उज्र। लेकिन शायद साम्यवादियों के प्रति संघ के सशंकित रहने की वजह उनका समाजवादी नागरिकता में विश्वास करने का इतिहास है जिसकी व्याख्या लोहिया जी ने की थी। इसे लेकर लोहिया जी ने इशारा किया था कि चूंकि समाजवादी नागरिकता की मनोवृत्ति के कारण सोवियत संघ के रुख को 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में ध्यान रखना साम्यवादियों की मजबूरी थी इसकी वजह से उन्होंने राष्ट्रीय भावनाओं की उपेक्षा करके अपने को इस आंदोलन से अलग रखा था।
इस संदर्भ में संघ का संशय चीन से भारत के युद्ध के समय और गहरा गया। जब कम्युनिष्टों के एक वर्ग ने चीन के प्रति निष्ठा दिखानी शुरू कर दी थी। कम्युनिष्ट दलील चाहे जो दें लेकिन उनका यह भावुक रुख ऐसी गलती साबित हुआ जिसकी वजह से एक अच्छी विचार धारा भारत में बदनाम हो गई। जो कम्युनिष्ट चीन को आदर्श मानते हैं उन्हें इस संदर्भ में चीन की अपनी नीति पर मनन करना चाहिए था। चीन के लिए राष्ट्रीय हित कम्युनिष्ट भाईचारे से बढ़कर रहे हैं।
यह भी पढ़ें : प्रियंका ने पूछा 92 हज़ार लोगों को क्यों फंसाकर रखे है सरकार
यह भी पढ़ें : कोरोना काल में “बस” पर सवार हुई राजनीति
यह भी पढ़ें : ये कोरोना काल है या कन्फ्यूजन काल ?
कम्युनिष्ट होते हुए भी चीन कटटर राष्ट्रवादी है जो एक विपर्यास है। लेकिन आज दुनियां भर में चीन के दबदबे के पीछे उसकी यही नीति कारगर हुई है। कम्युनिष्टों से संघ की चिढ़ की दूसरी वजह उनका मुस्लिम तुष्टीकरण, जिसके कारण संघ के प्रति उनकी कटुता शत्रुता की हद तक चली गई। जिन राज्यों में कम्युनिष्टों की सरकारें बनी वहां संघ के कार्यकर्ताओं का जबर्दस्त दमन हुआ।
माक्र्सवाद से प्रभावित होकर भी बाबा साहब और लोहिया जी की सोच का सिरा कैसे जुड़ता है संघ से
कम्युनिष्टों को लेकर राष्ट्रीय विमर्श में दूसरा पहलू है जो बाबा साहब डा. अंबेडकर और लोहिया जी के जरिये सामने आता है जिससे समझ में आयेगा कि इस चर्चा में उसे शामिल करने की तुक क्या थी। ये दोनों महापुरुष माक्र्सवाद से प्रभावित थे लेकिन इनका कहना था कि कम्युनिष्ट दर्शन में एक कमी है। यह केवल समाज के और बाहर के बदलाव तक सीमित है जो कि अधूरी प्रक्रिया है।
व्यक्ति के अंदर के बदलाव के लिए बाबा साहब ने माक्र्सवाद को धम्म यानि बुद्ध की शिक्षाओं को साथ लेकर चलने की सलाह दी थी तो लोहिया जी के पास भी भौतिक व्यवस्था को समाजवादी बनाने के साथ-साथ व्यक्ति निर्माण का व्यापक कार्यक्रम था और इस मामले में वे महात्मा गांधी को अपना आदर्श मानते थे। उनका कहना था कि गांधी जी के विचार परिवर्तन शील थे और कई बार तो वे विचारों के मामले में शीर्षासन तक कर जाते थे। पहले वे निजी सम्पत्ति के पक्षधर थे लेकिन बाद में उन्होंने इसे सबसे बड़ा पाप करार दे डाला था।
लोहिया जी का कहना था कि इसके बावजूद गांधी जी ने अपने को उदाहरण बनाकर जो नैतिक कार्रवाइयां की उन पर बारीकी से गौर किया जाये तो उनमें एक उपयुक्त विचार पद्धति खोजी जा सकती है।
संघ के काॅकटेल बने चरित्र से प्रमाणिकता में हो सकती है गिरावट
संघ परिवार काॅकटेल हो गया है। संघ का शीर्ष नेतृत्व बाबा साहब अंबेडकर की तरह ही महात्मा गांधी के प्रति भी असीम श्रद्धा व्यक्त करता है। लेकिन ऐसे तत्व भी संघ में प्रश्रय प्राप्त करते हैं जिन्हें महात्मा गांधी से हद दर्जें की नफरत है। इस चक्कर में उन्होंने नाथूराम गोडसे को अपना नायक बना रखा है। जिसके साथियों को लेकर उस समय मूढ़ लोगों के गिरोह जैसी तस्वीर थी।
हिंदी के सबसे महान संपादक राजेंद्र माथुर ने लिखा था कि गांधी की हत्या करने वाले सात अनपढ़ और अधकचरे आदमी थे और उन्होंने बहुत लापरवाह तरीके से इसकी योजना बनाई थी। लेकिन सरकार और पुलिस के निकम्मेपन की वजह से वे कामयाब हो गये थे। बिडंबना है कि आज उसी नाथूराम गोडसे को क्रांतिकारी के बतौर महिमा मंडित किया जा रहा है और ऐसे तत्वों को जाने-अनजाने में संघ की छत्रछाया प्राप्त हो रही है।
प्रधानमंत्री के सरोकारों को सफल बनाने में संघ पर क्यों टिकी सारी उम्मीदें
बहरहाल प्रधानमंत्री ने महामारी के सबक के तौर पर लोगों से जीवन शैली में बदलाव का मुददा उठाया है जिसके तार बाबा साहब अंबेडकर, लोहिया जी से लेकर संघ परिवार तक से जुड़ रहे हैं। जिनके पीछे थ्योरी यह है कि बड़े बदलाव सरकार की नीतियों मात्र से नही हो सकते। उनके लिए व्यक्ति निर्माण में लगी संस्थाओं और महापुरुषों का योगदान अपेक्षित है। चूंकि ऐसे कार्यों के लिए किसी अन्य पार्टियों में कोई काडर और लोग नही बचे हैं तो ले-देकर संघ ही है जिस पर दांव लगाया जा सकता है। इसलिए संघ की परख इस समय कसौटी पर है।
बतर्ज विदेशी कपड़ों की होली जलाओ आंदोलन
कहने को तो संघ इसके लिए लंबे समय से काम कर रहा है लेकिन ऐसे काम कैसे होते हैं इसके लिए फिर एक बार महात्मा गांधी की मिसाल देनी पड़ेगी। आजादी की लड़ाई के समय जब विदेशी कपड़ों से भारतीय भद्र लोग की आन-बान-शान जुड़ी थी गांधी जी ने आजादी की लौ को और प्रखर करने के लिए गुलामी की नब्ज के बतौर इस पर चोट करने का निश्चय किया और इसके लिए ऐसा माहौल तैयार किया कि लोग दिखावटी शान के सम्मोहन से मुक्त होकर विदेशी कपड़ों की होली जलाने में गर्व महसूस करने लगे।
संघ में स्वदेशी की अलग विंग है लेकिन विदेशी कपड़ों की होली जलाने के जैसा कोई हस्तक्षेप इसके द्वारा नजर नही आता। हालत यह है कि संघ के वन बिहार कार्यक्रमों में टिक्कड़-दाल खाकर राजनैतिक पींगें बढ़ाने वाले लोग जब मंत्री बनते हैं तो फाइव स्टार होटलों की डिस उनकी फरमाइश बन जाती है। उनके लड़के-लड़कियों के विवाह में आयातित संस्कृति की भोजन व्यवस्था के अलावा आर्केस्ट्रा के नाम पर आधुनिकता के प्रतीक उत्तेजक कार्यक्रम भी होते हैं जिनमें हमारी परंपरागत शालीन और मर्यादित संस्कृति की दुहाई परनाले में बहती हुई नजर आती है।
क्या प्रधानमंत्री की जीवन शैली बदलने के आवाहन को सफल बनाने के लिए संघ और उसके आनुसांगिक संगठन इस संबंध में कठोर वर्जनाएं लागू करने का साहस दिखा सकते हैं। क्या संघ कह सकता है कि पाश्चात्य संस्कृति को प्रचारित करने वाले कांवेंट स्कूलों में अपने बच्चों को भेजने वालों के लिए संघ के दरवाजे बंद कर दिये जायेगें।
हालत तो यह हो गई है कि संघ से जुड़े लोग फायदे के लिए खुद ही ऐसे स्कूल चला रहे हैं। संघ अगर अपनी भूमिका को सार्थक करना चाहता है तो उसे बौद्धिक झाड़कर निजात पा लेने की प्रवृत्ति छोड़नी होगी। आत्म निर्भरता का सीधा संबंध आवश्यकताएं कम करने से है। तड़क-भड़क के इस युग में सादगी और स्वदेशी के माडल खड़े करना चुनौती पूर्ण कार्य हैं लेकिन अगर संघ के पास पर्याप्त नैतिक शक्ति है तो उसे हर गांव और गली में ऐसे माडल खड़े करने की तत्परता दिखानी होगी। देखना है कि अपनी भूमिका को सार्थक सिद्ध करने के लिए संघ इस दिशा में कितना कटिबद्ध प्रयास करता है।
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Jubilee Post उत्तरदायी नहीं है।)