रतन मणि लाल
कोरोना काल ने मौसम से लेकर आदतें तक बदल दी हैं. इस महामारी से इलाज के लिए अभी दवा या प्रतिरोधी टीके की खोज तो अभी तक नहीं हुई, लेकिन इसके संक्रमण से बचने के लिए मेडिकल और फिजिकल अलगाववाद को पूरी दुनिया में एकमात्र रास्ते के तौर पर अपना लिया गया है. कोरोना वायरस के संक्रमण से बचने के लिए सलाह दी गयी है कि लोग अपने अपने घरों में बंद रहें, बाहर की दुनिया से कम से कम संपर्क रखें, और इस स्थिति को लॉक डाउन नाम दिया गया है.
देश में 24 मार्च से लॉक डाउन जारी है. इस दौरान देखा गया कि औद्योगिक और परिवहन की गतिविधियों पर रोक होने की वजह से वातावरण साफ़ हो गया, हवा पानी साफ़ हो गया, चारों ओर शांति छा गयी, प्रकृति का रंग निखर आया, जानवर खुश हो गए, जंगलों के आसपास के इलाकों में जंगल के जानवर स्वछन्द तरीके से घूमने लगे.
घरों के अन्दर लोगों ने कम संसाधनों में जिंदगी जीना सीख लिया, परिवार के साथ समय ज्यादा बीतने लगा, घरों में बंद लोगों ने नई चीजें सीखना शुरू कर दिया, कोई किताब लिखने लगा तो कोई संगीत सीखने लगा, बच्चे सुरक्षित माहौल में घर पर ही पढने लगे, बाहर न जाने की वजह से परिवारों के खर्च में कमी आ गयी. लोगों में दूसरों की मदद करने की प्रवृत्ति बढ़ी है, जैसे खाने की सामग्री या अन्य मदद देना. कुल मिला कर, बहुत सारे लोगों को तो लॉक डाउन एक ऐसे लम्बे इंटरवल की तरह लग रहा है जिसमे उन्हें कोई ख़ास कष्ट नहीं है.
दूसरी ओर, उनकी तकलीफ का कोई अंत नहीं है जो पहले से ही किसी निश्चित नौकरी में नहीं थे, या रोज काम कर के रोज कमाते थे, या जिनका अपना रहने का ठिकाना नहीं था, या व्यापारिक गतिविधियाँ बंद होने से जिनके लिए सामान्य जीविका चलाना मुश्किल हो गया है. अब धीरे धीरे कुछ गतिविधियाँ खोली जा रही हैं, और अन्य राज्यों में रह रहे प्रवासियों को वापस भी लाया जा रहा है.
मानव स्वभाव नहीं बदलता
इसके बावजूद, सवाल जिन्दा है कि क्या कोरोना वायरस कभी पूरी तरह से ख़तम किया जा सकता है? भविष्य में, किसी दिन जब कोरोना वायरस का संकट कम या समाप्त हो जाएगा, तो क्या लोगों का जीवन फिर पहले जैसा हो जाएगा? याद रखना चाहिए कि लोगों की बचत कम हो चुकी होगी, नौकरियां या तनखाहें जा चुकी होंगी, व्यापार में नुक्सान हो चुका होगा. तो, ऐसे में क्या लोगों को यह याद रहेगा कि लॉक डाउन की वजह से पृथ्वी, पर्यावरण और प्रकृति में कितना सुधार आ गया था?
इतिहास गवाह है कि मानव जाति का विकास लालच, स्वार्थ और डर की वजह से ही होता आया है. प्राकृतिक या मानव-निर्मित विपदा के बाद भी जब देश और समाज फिर से बनते हैं, तो उस प्रक्रिया के पीछे लोगों का लालच, स्वार्थ और डर ही होता है. लालच इस बात का, कि इस विपत्ति के बाद के समय में अपने लिए कुछ बना लें, कुछ बचा लें; स्वार्थ इस बात का. कि अपने और अपने परिवार के लिए पहले व्यवस्था कर लें जिससे आगे के लिए तैयार रहें, भले ही दूसरों का नुकसान हो; और डर इस बात का, कि यदि फिर कभी ऐसी विपत्ति आई, तो क्या होगा?
इन प्रवृत्तियों की वजह से, संभव है कि इस विपदा के बाद आने वाले समय में, व्यापार जगत में इस बात की जल्दी हो कि वे अपने नुक्सान की भरपाई कितनी जल्दी करते हैं. घाटे और नुक्सान को पूरा करने के लिए उद्योग और तेजी से काम करें, भले ही उससे पर्यावरण को ज्यादा नुकसान हो.
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यह भी संभव है कि जिनके पास दौलत है, वे इसकी वजह से, बाकी दुनिया से अलग रहना पसंद करें, और तथाकथित ‘मामूली’ लोगों से दूरियां बनायें. कुछ और नहीं, तो धन का अनावश्यक प्रदर्शन भी बढ़ सकता है, क्योंकि हवाई यात्रा, पर्यटन और शौक के लिए धन खर्च करना अब सामान्य, माध्यम वर्ग के लिए कठिन होता जाएगा. और जिनके पास दौलत है, वे निश्चित तौर पर उसका प्रदर्शन करेंगे. सामाजिक-आर्थिक असमानता के बढ़ने की भी सम्भावना है.
संभव है कि बेरोजगारी, आर्थिक नुकसान, व्यापार में घाटा, व्यवस्था द्वारा नजरंदाज किये जाने, और ऐसे अन्य कारणों की वजह से समाज में असंतोष-अपराध बढ़ें. इसके परिणामस्वरूप संभव है कि शासन व्यवस्था, शांति बनाये रखने के लिए और अधिक प्रतिबन्ध लगाये जाने पर मजबूर हो जाए. अभी से ही, औद्योगिक और वाणिज्यिक गतिविधियाँ शुरू करने में तमाम कानूनों में ढील दिए जाने की बात की जा रही है. जैसे जैसे प्रतिबन्ध हट रहे हैं, सड़क हादसों, छोटे-बड़े अपराधों और असामाजिक गतिविधियों की ख़बरें बढ़ रही हैं.
बदलने का अवसर
हर विपत्ति हमें अपने को बदलने का एक अवसर देती है. परिवार में किसी का न रहना, व्यापार/जीविका पर संकट आ जाना, प्राकृतिक विपदा में घर या संपत्ति का नाश हो जाना, राजनीतिक या अपराधिक कारणों से कोई बड़ा नुकसान हो जाना, आदि, ऐसे कारण हैं जिनसे हम अपने को, या ज़िन्दगी के प्रति अपने नजरिये को बदलने पर मजबूर हो जाते हैं. लेकिन ऐसी सभी परिस्थितियों में ये संकट हमारा अपना होता है, पूरी दुनिया का नहीं.
लेकिन यह कोरोना विपदा तो पूरी दुनिया के सभी लोगों के ऊपर एक साथ आ गयी है. इसलिए जैसे हम अपने को बदलेंगे, वैसे ही और लोग भी अपने को बदलेंगे. यदि हम लालच, स्वार्थ और डर की वजह से अपने को बदलते हैं, तो मान के चलिए कि पडोसी देश, चीन, अमेरिका, यूरोप और अन्य देशों के लोग भी ठीक इन्ही वजहों से अपने को बदलेंगे.
यदि प्रकृति को बेहतर बनाने, अपनी जरूरतों को कम करने, लालच को कम करने और दूसरों की मदद करने के जज्बे को बनाये रखते हुए हम अपने को बदलने के लिए तैयार करें, तब तो कोरोना के बाद की दुनिया बेहतर हो सकती है. नहीं तो, हमें एक अशांति, असंतोष, अपराध, अभावों और अनिश्चितता के लम्बे युग के लिए तैयार होना होगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )