डॉ. प्रशांत राय
भारत की करीब एक अरब की आबादी पिछले 42 दिनों से घरों में बंद है। कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए तालाबंदी इसका कारण है। तालाबंदी के बीच राशन, फल, सब्जी और दवाएं ये जरूरी सामानों की खरीददारी जारी है, लेकिन इस सबके बीच जो एक बात सामने आई है वह है कि फल-सब्जी व राशन की दुकानों पर प्रतिबंधित पॉलीथिन का धड़ल्ले से प्रयोग में लाया जा रहा है।
दुनिया के कई देशों में प्लास्टिक पर पाबंदी लगी है। भारत में भी कई सालों से जोर-शोर से प्लास्टिक पर पाबंदी की मांग उठती रही है। हालांकि भारत के कई राज्यों में प्लास्टिक प्रतिबंधित है, लेकिन कुछ शर्तों के साथ। पॉलीथिन भी इसी श्रेणी में आता है। वर्तमान में प्लास्टिक मानवजाति के लिए ही नहीं बल्कि हर तरह के जीव के लिए दुश्मन के तौर पर देखा जा रहा है। प्लास्टिक प्रदूषण की वजह से पूरी दुनिया बेहाल है। समुंद्र में जीव-जंतुओं वजूद पर संकट खड़ा हो गया है।
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देश के कई राज्यों में पॉलीथिन प्रतिबंधित है। केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारें पॉलीथिन से दूरी बनाने को लेकर कई कार्यक्रमों के माध्यम से जागरूक करती आ रही हैं, बावजूद इस दिशा में कोई सकारात्मक माहौल नहीं दिखाई दे रहा। जब तक सरकारें सख्ती दिखाती हैं तब तक दुकानदार से लेकर ग्राहक इसके प्रयोग करने से बचते हैं और जैसे ही सरकार नरम पड़ती है फिर लोग वही रवैया अपना लेते हैं।
पर्यावरण के लिए प्लास्टिक का कचरा इसलिए दुश्मन बन गया है, क्योंकि उसका क्षरण सैकड़ों वर्षों में होता है। यह संकट अब गंभीर रूप ले चुका है। अब तो एक बार प्रयोग होने वाले प्लास्टिक का इस्तेमाल पूरी तरह से बंद करने की भी बात कही जा रही है। ऐसी स्थिति आने से पहले हम खुद सचेत हो जाए तो इस गंभीर संकट से बचा जा सकता है। यह सच है कि प्लास्टिक के सामान से तभी पीछा छूटेगा जब इसका विकल्प उपलब्ध होगा।
भारत ही नहीं पूरी दुनिया प्लास्टिक के कचरे से परेशान है। नदी, समंदर, पहाड़, द्वीप या मैदान, हर जगह प्लास्टिक के कचरे से प्रदूषण फैल रहा है और इससे पर्यावरण को भारी नुकसान हो रहा है। प्लास्टिक के कचरे से सबसे ज्यादा नुकसान समुद्री जीवों को हो रहा है। अधिकांश बीच पर प्लास्टिक बोतल, डिस्पोजल, पॉलीथिन और सिगरेट जगह-जगह पड़े दिखते हैं और समुद्र की लहरें इसे अपने साथ लेकर चली जाती हैं।
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प्लास्टिक पर निर्भरता ही सारी समस्या की जड़ है। दरअसल खाने-पीने की सारी वस्तुएं प्लास्टिक के पैकेट में आ रही हैं। प्लास्टिक के चलन के पीछे का कारण है कि ये लंबे समय तक बना रहता है और टूटता नहीं है। मतलब प्लास्टिक पूरी तरह से नष्ट नहीं हो सकता। विज्ञान के मुताबिक सूरज की गर्मी या ज्यादा तापमान के संपर्क में आने से प्लास्टिक कणों में टूटता है। समुद्र के मामले में ये होता है कि समुद्र के भीतर प्लास्टिक डायरेक्ट धूप के संपर्क में नहीं आता जिसकी वजह से इसके नष्ट होने में ज्यादा वक्त लगता है। जब तक पुराना प्लास्टिक नष्ट होने के कगार पर पहुंचता है तब तक नया कचरा आ चुका होता है।
दरअसल पिछले 70 सालों में प्लास्टिक की जरूरतों मे बेतहाशा वृद्धि हुई है। प्लास्टिक ओशियन संस्था की रिपोर्ट के मुताबिक हर साल दुनिया में 300 मिलियन यानी 30 करोड़ टन से ज़्यादा प्लास्टिक का उत्पादन हो रहा है। इसमें से आधा प्लास्टिक डिस्पोजेबल सामान के लिए इस्तेमाल किया जाता है। मतलब एक बार इस्तेमाल के बाद फेंक दिया जाता है। इसका नतीजा ये होता है कि हर साल 80 लाख से 1 करोड़ टन तक प्लास्टिक वेस्ट समुद्रों में जाता है।
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वर्ल्ड वॉच इंस्टीट्यूट ने एक अनुमान के हिसाब से आंकड़ा दिया है कि एक साल में एक अमेरिकी या यूरोपीय व्यक्ति करीब 100 किलोग्राम प्लास्टिक का इस्तेमाल करता है और इसमें से ज्यादातर इस्तेमाल पैकेजिंग के लिए किया जाता है। वहीं दूसरी ओर एशिया में प्रति व्यक्ति का आंकड़ा 20 किलोग्राम प्रति वर्ष का है। एशिया में इस आंकड़े के कम होने के पीछे आर्थिक विकास कम होना है।
वर्ल्ड इकोनोमिक फोरम के मुताबिक अकेले भारत में प्रति वर्ष 56 लाख टन प्लास्टिक कूड़ा पैदा होता है। पूरी दुनिया द्वारा जितना कूड़ा सालाना समुद्र में डम्प किया जाता है उसका 60 प्रतिशत कूड़ा अकेले भारत डम्प करता है। भारतीय प्रति दिन 15000 टन प्लास्टिक कचरें में फेंकते हैं।
इन आंकड़ों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि हम भारतीय प्लास्टिक का इस्तेमाल कर पर्यावरण को कितना नुकसान पहुंचा रहे हैं। ऐसे हालात में जब कोरोना संकट के बीच प्रकृति से जुड़ी कुछ सकारात्मक खबरें आए दिन सुनने को मिल रही हैं, तो हम सबकी जिम्मेदारी होती हैं कि पॉलीथिन का इस्तेमाल न कर हम पर्यावरण में सहयोग करें।
(डॉ. प्रशांत राय, सीनियर रिचर्सर हैं। वह देश-विदेश के कई जर्नल में नियमित लिखते हैं।)
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