शबाहत हुसैन विजेता
वुहान से निकला कोरोना वायरस पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले चुका है। इस वायरस ने मौत के जो नज़ारे दिखाए हैं उसने सुपर पॉवर अमरीका को घुटनों पर झुका दिया है और एटॉमिक पॉवर ईरान में भी लाशों के अम्बार लगा दिए हैं। इटली की हर गली से रोने की सदायें बलन्द हो रही हैं।
लोगों से उनकी जिंदगियां छीन लेने वाला यह वायरस हिन्दुस्तान में भी अपना तांडव मचा रहा है। कई हज़ार लोग इसकी गिरफ्त में हैं और तमाम लोगों की सांसें थम चुकी हैं। इस वायरस से जंग में दुनिया और हिन्दुस्तान का तरीका जुदा है। हिन्दुस्तान के लोग अपने-अपने घरों में रहकर इस जंग को लड़ रहे हैं।
हुकूमत ने मुल्क में लॉक डाउन का एलान किया है। लोगों को घरों में रहने की सलाह दी गई है। सड़कों पर सन्नाटा पसरा है। लोग इस बीमारी के खात्मे का इंतज़ार कर रहे हैं। डॉक्टर रात-दिन कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की जान बचाने में लगे हैं। सरकार इस कोशिश में एक पांव पर खड़ी है कि एक भी व्यक्ति पैसों के अभाव में इलाज से वंचित न होने पाए।
उद्योगपतियों, जनप्रतिनिधियों, खिलाड़ियों और फिल्मी सितारों ने बड़ा दिल दिखाते हुए करोड़ों रुपए दान कर दिए हैं। सांसदों और विधायकों ने अपनी निधियां देने के साथ ही अपना 30 फीसदी वेतन देने की मंजूरी भी दे दी है ताकि इस वायरस से चल रही जंग कहीं कमज़ोर न पड़ जाए।
लेकिन इस वायरस से भी बड़ा एक वायरस है नफ़रत का वायरस जो साथ में क़दम ताल कर रहा है। एक तरफ ज़िन्दगी और मौत के बीच जंग चल रही है तो दूसरी तरफ नफ़रत का ज्वालामुखी नफ़रत की आग उगलने में लगा है।
नफ़रत फैलाने वाले सिर्फ सियासी चाल चलने में लगे हैं। वह यह नहीं समझ पा रहे हैं कि इससे देश कितना पीछे चला जायेगा। पत्रकार तौकीर सिद्दीकी की बात में बड़ा दम लगता है कि कोरोना तो एक न एक दिन चला जायेगा लेकिन पीछे छोड़ जायेगा एक ज़हरीला वायरस जिसका कोई एंटी डोज़ नहीं होगा।
कोरोना से जंग में चर्चा होनी चाहिए थी ग्वालियर की डॉ. वंदना तिवारी की। कोरोना के मरीजों का इलाज करते-करते डॉ. वंदना खुद संक्रमित हो गईं और उनका खुद का इलाज नहीं हो पाया। तीन साल की मासूम बच्ची को छोड़कर वंदना इस दुनिया से विदा हो गईं।
चर्चा होनी चाहिए थी इंदौर के डॉ. शत्रुघ्न की, जो कोरोना का इलाज करते हुए शहीद हो गए। चर्चा होनी चाहिए थी उन डाक्टरों की जो पिछले कई हफ्तों से अपने घर नहीं गए और रात-दिन मरीजों को बचाने में लगे हैं।
चर्चा होनी चाहिये थी उन पुलिसकर्मियों की जो पिछले कई दिनों से सड़कों पर खड़े हैं ताकि घर से निकलकर कोई संक्रमित न हो जाये। चर्चा होनी चाहिए थी सड़कों पर जूता बनाने वाले उस मोची की जो अपनी साल भर की बचत से आटा, दाल, चावल और आलू खरीदकर उन घरों में बांटने पहुंच गया जहां कई दिन से चूल्हा नहीं जला था।
कनिका कपूर की चर्चा हर जगह हुई लेकिन मध्य प्रदेश की प्रमुख सचिव स्वास्थ्य पल्लवी जैन का ज़िक्र भी ज़रूरी नहीं समझा गया। पल्लवी जैन का बेटा विदेश से लौटा था लेकिन इस बात की जानकारी जिला प्रशासन को नहीं दी गई। बेटा कोरोना पॉज़िटिव था। बेटे से पल्लवी जैन खुद भी संक्रमित हो गईं।
संक्रमित होने के बाद भी वरिष्ठ अधिकारियों के साथ उन्होंने बैठकें जारी रखीं। वह करीब 100 अधिकारियों के सम्पर्क में आईं। पल्लवी जैन क्योंकि वरिष्ठ आईएएस अधिकारी है इसलिए डाक्टरों की एक टीम रात-दिन एक किये हैं लेकिन यह चर्चा होती नजर नहीं आती कि वह जिन 100 अधिकारियों के सम्पर्क में आईं उनका क्या हाल है? वह अधिकारी किस-किस के सम्पर्क में आये यह तो उसके आगे का मुद्दा है।
चर्चा है तो बस मरकज़ के जमातियों की। जमातियों से अगर संक्रमण फैला है तो उनके खिलाफ कानूनी कार्यवाही होनी चाहिए लेकिन इस मुद्दे को लेकर एक मज़हब खास को टार्गेट करने का मतलब क्या है? सोशल मीडिया पर जिस तरह से नफरत फैलाई जा रही है उसे खत्म होने में बरसों लगेंगे।
इसी नफरत का नतीजा है कि दिल्ली के बवाना हरे वाली गांव में 22 साल के महबूब को कोरोना फैलाने के शक में पीट-पीटकर मार डाला गया। महबूब पर शक था कि वह जमात से लौटकर आया था।
मरकज़ को लेकर न्यूज़ चैनलों की भूमिका भी बड़ी गैर जिम्मेदाराना रही। सोशल मीडिया की तरह न्यूज़ चैनलों ने भी अधपकी खबरें खूब चटखारे लेकर चलाईं।
जमातियों में शामिल विदेशियों को लेकर इस तरह से खबरें पेश की गईं जैसे कि वह किसी साज़िश के तहत घुसपैठ करके आये हों। सबके पास पासपोर्ट हैं, वीज़ा है, मतलब सरकार और प्रशासन दोनों को पता है कि मरकज़ में इतने विदेशी हैं।
मरकज़ ने 25 मार्च को थाना निज़ामुद्दीन और एसडीएम दोनों को लिखा था कि यहां 1000 से ज़्यादा लोग हैं जो लॉक डाउन की वजह से नहीं जा पा रहे हैं। हमें बसें मुहैया करा दी जाएं लेकिन तब पुलिस और प्रशासन ने सुध नहीं ली क्योंकि मज़दूरों का पलायन शुरू हो चुका था। पलायन से पुलिस और प्रशासन की खूब छीछालेदर हो रही थी। सवाल दिल्ली की केजरीवाल सरकार पर भी उठ रहे थे।
इसी बीच उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बसें लगाकर मजदूरों को भेजने का काम शुरू कर दिया। सड़कों से कम होते मज़दूर देखकर पुलिस और प्रशासन ने समझ लिया कि इस लापरवाही का हंटर उन पर चलना तय है क्योंकि कोरोना मामले को सीधे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कोआर्डिनेट कर रहे हैं। पलायन को लेकर वह नाराज़गी भी जता चुके हैं। ऐसे में मरकज़ की तरफ से मिला पत्र संजीवनी की तरह से उभरा।
निज़ामुद्दीन स्थित मरकज़ में फंसे जमातियों को बोतल में बंद जिन्न की तरह से निकाला गया। जमातियों को इस अंदाज में पेश किया गया जैसे कि सारे के सारे कोरोना पॉज़िटिव हों और मरकज़ में बम की तरह से रह रहे हों। इसी के बाद नफरत की जो लहर उठी वह पूरे देश मे छा गई। यह मामला इस अंदाज में और इस तेज़ी में आया कि पलायन की लापरवाही न जाने कहाँ खो गई। पुलिस और प्रशासन ने पलायन की मार रोकने के लिए फुलप्रूफ प्लान तैयार किया।
देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल को मरकज़ के बारे में विस्तार से जानकारी दी गई। डोभाल ने रात में ही मरकज़ का दौरा किया और मौलाना साद से बातचीत की। न्यूज़ चैनलों ने साद का इंटरव्यू लिया। रात तीन बजे से ड्रोन मरकज़ के आसपास उड़ान भरने लगा। सुबह चार बजे बसें मरकज़ पहुंच गईं। कई न्यूज़ चैनल भी वहां पहुंच गए। इधर जमातियों से मरकज़ खाली हो रहा था उधर माहौल तरह-तरह की अफवाहों से भरने लगा था।
दिन चढ़ने के साथ ही पलायन का मुद्दा गायब हो चुका था और जमाती और मरकज़ उस खाली जगह को भर चुके थे। फिर मौलाना साद का इन्टरव्यू प्रसारित किया जाने लगा। शाम तक मौलाना साद से पूछताछ का मुद्दा उठा तब तक साद फरार हो चुका था। सवाल यह है कि अजित डोभाल जैसे अनुभवी अधिकारी ने जिस मौलाना साद से बात की वह भी साद की सच्चाई नहीं भांप पाए या फिर डोभाल को अधिकारियों ने भ्रमित किया।
सवाल यह है कि अगर साद के मामले में कोई शंका थी तो डोभाल की मौजूदगी में ही उसे गिरफ्तार क्यों नहीं कर लिया गया। शिवसेना ने भी भारत सरकार से यही सवाल पूछा है कि आखिर डोभाल और मौलाना साद के बीच क्या बातचीत हुई थी उसे सार्वजनिक किया जाए।
जमातियों पर ढेर सारे आरोप हैं। पुलिस और डॉक्टरों पर थूकने, नर्सों के सामने पैंट उतारकर अश्लील इशारे करने, बिरयानी की मांग करते हुए खाना फेंक देने और कमरे में ही शौच कर देने की बातें कही गई हैं। समय-समय पर पुलिस के जांच अधिकारियों ने इन सारे आरोपों को गलत बता दिया है लेकिन सोशल मीडिया पर यही आरोप लगातार दोहराए जा रहे हैं।
पुलिस की जांच में जो आरोप बेबुनियाद निकले वही न्यूज़ चैनलों पर चटखारे लेकर सुनाए गए। ऐसे में आम आदमी किस माध्यम पर भरोसा करे। सामाजिक कार्यकर्ता आशीष अवस्थी ने लिखा भी है कि लोग डाक्टरों के भरोसे हैं, डॉक्टर सरकार के भरोसे हैं, सरकार मीडिया के भरोसे है और मीडिया जमातियों के भरोसे है।
कोरोना की शक्ल में आई आपदा वास्तव में युद्ध काल जैसी है। आपसी खींचतान तो बाद में भी चल सकती है लेकिन इस वक्त तो सबको एकजुट रहना चाहिए था। आपदा के दौर में भी हिन्दू-मुसलमान का पचड़ा चल रहा है। सच तो यह है कि अगर हम आपस मे बिल्लियों की तरह से न लड़ रहे होते तो ट्रम्प की ऐसे विपरीत माहौल में यह हैसियत नहीं थी कि वह दवा भी धमकाकर मांगते।
अमरीका सुपर पॉवर हो तो हो लेकिन मौजूदा दौर में जब वह लाशों के ढेर पर खड़ा है तब दवा के लिए भारत को बंदर घुड़की नहीं दे सकता लेकिन क्या किया जाए यह तो हमेशा से होता आया है कि जहां बिल्लियां लड़ती हैं वहां बन्दर फायदा उठाता है।
सोचने-समझने और फैसला करने का यही वक्त है। कोरोना चीन में नहीं रुका तो भारत में भी रुक नहीं पायेगा। सरकार ने कहा है कि घरों में रहो तो लोग घरों में हैं।
नवरात्र घरों में हुए, शबेबारात घरों में हुई। रमज़ान भी घरों में होगा और ईद मिलने भी कोई कहीं जा नहीं पायेगा लेकिन नफरत की जो आंधी सोशल मीडिया पर चल रही है वह कोरोना से भी घातक वायरस है। यह आंधी न रुकी तो कहीं ऐसा न हो कि लोग कहते दिखें कि ऐसी निगेटिव सोच से तो कोरोना बेहतर था। वह जानलेवा हमला भी तब करता था जब पॉज़िटिव होता था।