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चंद जाहिलों की खबरों में उलझ कर भूल गये भारत की आत्मा करोडों गरीबों..मजदूरों..किसानों..का दर्द
नवेद शिकोह
पुराना क़िस्सा है। एक जादूगर राजा था। वो अपनी जनता को किसी ऐसे नशे में मदहोश कर देता था कि जनता को बड़ी-बड़ी तकलीफों का एहसास तक नहीं होता था। इन कारणों से पूरा साम्राज्य डूबने वाला था। सैलाब के तमाम खतरों के बीच राजा बेवजह की झूठी-सच्ची बातों में लोगों को उलझाता रहा। फिर भी एतराज के स्वर तेज़ हो रहे थे।
राजा ने लोकरंजन के लिए उस नदीं में वैश्याओं के जल क्रीड़ा का कार्यक्रम आयोजित कर दिया जिस नदी से सैलाब का ख़तरा बना हुआ था। उफनायी नदियों में उफनाता नवयौवन देखकर रिआया (जनता) मदहोश हो चुकी थी। इस बीच कुछ समझदार लोग मदहोश जनता को एहसास करा रहे थे कि जल क्रीड़ा जैसे रिझाने और बहकाने वाली बातों से किनारा करके ज़मीनी हक़ीक़त को जानें।
राजा की उलझाने वाली बातों, लापरवाहियों, अज्ञानता, कुव्यवस्था, अव्यवस्था के कारण सैलाब संपूर्ण जनता को ले डूबने वाला है। इन तर्कपूर्ण बातों से प्रभावित होकर जल क्रीड़ा से ध्यान हटाकर जनता जागरुक होने लगी थी। इस बीच पानी में नृत्य/क्रीड़ा कर रही अर्धनग्न वैश्याओं ने अपने पूरे कपड़े उतार दिये।
तबलीग़ी जमात की तरह। अस्पताल में भर्ती बेहूदा जमात के मुल्लों ने अपने पैंट (पैंट नहीं पैजामें उतारे होंगे) उतार दिए। लोगों पर थूक-थूक के कोरोना बम साबित होने वाले जमाती हर बड़ी से बड़ी खबर को पीछे ढकेलने म़े कामयाब हुए। ये महिला नर्सों के सामने तमाम अश्लील हरकतें करते रहे। अस्पताल में बीड़ी-सिगरेट मांग रहे थे।( हो सकता है अब ये शराब मांगने की बेहयाई करें)
इधर भारत की एक सौ तीस करोड़ की आबादी की जिन्दगी खतरे मे है। चिंता और समाधान की बातों में मिलजुलकर पूरा भारत फिक्रमंद था। जमात की ख़बरों के बाद कोरोना से लड़ने की लड़ाई के जज़्बे पर ब्रेक सा लगा दिख रहा। पंद्रह बीस सौ लोगों वाले मरकज की जमात के लोगों की बेहूदा बातों में सब उलझ चुके हैं।
इस बुरे वक्त में कोरोना की आहट और बचाव की कोशिश (लॉकडाउन) में ही करोड़ों लोग भूख से बिलख कर सैकड़ों किलोमीटर की पद यात्राएं कर रहे थे। अस्ल भारत यानी भारत की आधे से ज्यादा की वो आबादी जिसमें गरीब, मजदूर, या मजदूर क्लॉस का काम करने वाले, किसान, असहाय, बूढ़े-बच्चे, विकलांग.. शामिल है।
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लॉकडाउन के बाद कई राज्यों में इनके पलायन और भूखे प्यासे होने की खबरों के बाद मदद के बाद लाखों हाथ बढ़ गये थे। लॉकडाउन करने से पहले इन गरीबों-मज़दूरों की बेबसी का अहसास ना होने की गलती मानकर सरकारें भी इनकी मदद के लिए इनके खाने-पीने का खूब इंतजाम करने लगीं।
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हिसाब से आधा फीसद भी जांच किट ना होंने, अपर्याप्त वेंटीलेटर की समस्याओं पर खबरें समाधान के रास्ते पैदा कर रहीं थी। इस बीच दिल्ली के निजामुद्दीन स्थिति मरकज की जमात की खबरों ने बेहद ज़रूरी खबरों और उस पर फिक्र व समाधान के रास्तों पर ब्रेक लगा दिया। कोरोना की जांचें, चिंतायें, चर्चाये़ और खबरे़ पीछे छूट गयीं और जमात की गैर जिम्मेदाराना और अश्लील हरकते छा सा गयीं।
अब शायद सुर्खियों का रुख नया रूप ले। रविवार 5 अप्रैल अंधेरे में चरागा करके देश शायद लॉकडाउन के दौरान गरीब आबादी की फिक्र के लिए अपने दिमागों को रौशन करे। जमात की खबरों की झड़ी में लॉकडाउन के दौरान गरीबों की रोटी की जरुरत पर मीडिया की गौर-ओ- फिक्र कम हो गयी है। कोरोना की भीषण समस्याओं के इस कठिन दौर में मजहबी नफरतों के रंगों ने अंधेरे पैदा कर दिये हैं।
एक तरफ खाई है तो एक तरफ कुंआ। कोरोना वायरस हमें खत्म करने को खड़ा है, ऐसे में भी हम नफरत का दामन नहीं छोड़ पा रहे हैं। इसलिए यदि हमें कोरोना वायरस को हराने में सफलता मिल भी गई तब नफरत हमें ले डूबेगी। इतनी मुश्किल घड़ी में भी निजामुद्दीन जमात मामले के बाद सोशल मीडिया पर दो खेमों के बीच नफरती तकरार देख कर लगा कि हम कोरोना से भी खतरनाक नफरत के वायरस के जद मे हैं।
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एक छोटे स्कूल से रिटायर 65 वर्षीय राजेश्वरी कहती हैं कि लॉकडाउन के बाद मेरी मदद करने, हालचाल लेने और खाने की फिक्र में कोई ना कोई सज्जन मेरे घर तक आ जाता था। तबलीग जमात के शोर के बाद पूरे समाज का रुख ही बदला सा नजर आ रहा है। हर तरफ निगेटिव बातें। राजेश्वर आगे कहती हैं- हे भगवान लोगों को सद्बुद्धि दे। नहीं तो निगेटिव बातें करने वाले पाज़िटिव हो जायें।