कुमार भवेश चंद्र
कोरोनावायरस से संघर्ष करते हुए भी भारत में राजनीति के सुर कहीं से फीके नहीं पड़े हैं। गौर से देखिए तो कुछ अधिक चटक और नया है। सियासत का ये जायका उतना ही रसीला है, जितना लॉकडाउन के दौरान संपन्न घरों में बन रहे प्रयोगशील पकवान। कुछ नया – नया सा। जी..आपदकाल का ये सियासत भी ऐसा ही है। कुछ नया नया सा। सत्तापक्ष हो विपक्ष हो..राजनीति उनके रग रग में है।
विपदाकाल में एकजुट देश का आवाहन और परिकल्पना किताबी और जुबानी ज्यादा है। जमीनी हकीकत यही है कि सियासत यहां भी अपने रंग दिखा रही है…कहिए कि पूरे रंग में है। हम सबने देखा है कि युद्ध के समय में सियासत विराम नहीं लेती..आराम नहीं करती। तो भला इस वैश्विक चुनौती में क्यों इसे आराम करने दें। इसे जिंदा रखना आज की जरूरत भले न हो भविष्य की जरूरत तो है। सियासत का सत्ता से रिश्तें को अलग कैसे करें।
खैर..अब बात मुद्दे की भूमिका कुछ लंबी हो गई शायद..और हां बात शुरू करते हैं कांग्रेस से। बीजेपी वाले थोड़े ज्यादा टची हैं। कहते हैं.. हमारा सत्ता में रहना किसी को रास नहीं आ रहा। कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी के कुछ ट्विट की ओर आपका ध्यान खींचना चाहता हूं। ट्विट क्या है.. रिट्विट है।
प्रशांत भूषण ने कोरोना से निपटने के लिए सरकार के एक्शन में देरी पर सवाल उठाते हुए ट्विट किया। भूषण ने पीपीई मैन्युफैक्चरर्स के हवाले सरकार की सुस्ती पर सवाल उठाए जिसके मुताबिक सरकार के देरी से हमने पांच हफ्ते खो दिए।
प्रशांत भूषण ने बताया कि ‘नमस्ते ट्रंप’ और मध्य प्रदेश सरकार गिराने के फेर मे मेडिकल सुरक्षा उपकरणों और सामानों की खरीद के लिए टेंडर करने में देर हुई। उनका आरोप ये भी था कि सार्वजनिक टेंडर के बजाय अपने खास लोगों को टेंडर देने के लिए भी देर की गई।
सोनिया गांधी इसे रिट्विट करते हुए प्रशांत भूषण के मुद्दे के प्रति सहमति दिखाई। इसी कड़ी में प्रियंका का एक ट्विट अहम है, जिन्होंने यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को बाकायदा चिट्ठी लिखकर संकट के समय में सहयोगी की पेशकश की थी।
प्रियंका ने अपने ट्विट में लिखा, “इस समय हमारे मेडिकल स्टाफ को सबसे ज्यादा सहयोग करने की जरूरत है। वे जीवनदाता हैं और योद्धा की तरह मैदान में हैं। बांदा में नर्सों और मेडिकल स्टाफ को उनकी निजी सुरक्षा के उपकरण न देकर और उनके वेतन काट करके बहुत बड़ा अन्याय किया जा रहा है।”
बात इतनी नहीं है। बुंदेलखंड कांग्रेस ने तो एक वीडियो के जरिए बताने की कोशिश की कि कांग्रेस काल में बने अस्पताल ही इस गाढ़े वक्त में काम आएंगे। वैसे ये बात गलत नहीं है लेकिन ये कहने का वक्त गलत जरूर है। और सियासत करने वाले शायद हर वक्त को सियासी फायदे के लिए ही सोचते हैं।
राहुल गांधी भी कोरोना की पहचान के लिए टेस्ट की संख्या में कमी को लेकर सवाल उठा रहे हैं। ये भी बता रहे हैं कि कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में वह इस महामारी के प्रकोप से गरीबों को बचाने के लिए बड़े प्लान की बात कही है। कार्यकर्ताओं को भी मदद के लिए आगे आने को कहा है। पर क्या ये सब हो रहा है? और क्या इस अपील से जमीन पर मिल रही मदद पर्याप्त और संतोषजनक है?
क्या कांग्रेस के नेता यह पूरे आत्मविश्वास से कह पाएंगे कि इस ऐतिहासिक विपदा के वक्त उन्होंने धन और कार्यकर्ताओं के अपने संसाधनों का उन्होंने अधिकतम इस्तेमाल किया, जनसेवा के लिए। राहुल गांधी और कांग्रेस के दूसरे नेताओं को प्रधानमंत्री और दूसरे नेताओं को लिखी अपनी चिट्ठियों में कोई रचनात्मक सुझाव रख पा रहे हैं? शायद नहीं!
बात बीजेपी की। पार्टी के तौर पर इस ऐतिहासिक वक्त में उनके लिए परीक्षा की सबसे घड़ी है। उनकी सरकार है..केंद्र में भी और कई राज्यों में भी। इनकी काम और परफार्मेंस का कुल आकलन तो इस समस्या के लिए लड़ाई के आखिर में होगा? लेकिन मुश्किल घड़ी में होने वाली परीक्षा में इस खेमे के मुखिया फेल नज़र आते हैं।
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खुद को फिर से महानायक बनाने-साबित करने का दबाव हो या कोई और बात, प्रधानमंत्री ने एक बार फिर न केवल अपने कैबिनेट बल्कि विपक्ष के अस्तित्व को ही नकार दिया।
पहली बार जनता कर्फ्यू के ऐलान के लिए सामने आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शायद इसीलिए इस महामारी से लड़ने के लिए देश की तैयारियों के बारे में बताने से चूक गए। राष्ट्र के नाम पहले संबोधन में अगर वह देश की तैयारियों के बारे में कुछ बता पाते तो शायद देशभर में न ही अफरातफरी मचती ना ही उनके सामने माफी मांगने की नौबत आती।
अगर राष्ट्र संबोधन से पहले प्रधानमंत्री कैबिनेट के साथियों, सभी मुख्यमंत्रियों, विशेषज्ञों के साथ मशविरा कर लिया होता तो ऐतिहासिक आपदा से लड़ने के लिए उनके सामने न केवल आगे का रोडमैप साफ होता बल्कि आने वाली चुनौतियों का भी आभाष हो गया होता। लेकिन फैसलों में सामूहिकता की जगह व्यक्तिगत सोच दिखाने की सोच ने ही प्रधानमंत्री को इस तरह के फैसलों के लिए प्रेरित किया होगा।
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महामारी से लड़ रहे भारत में ‘तब्लीगी जमात’ फैक्टर ने भी सियासत को खूब खिलखिलाने का मौका दिया। सबको इसकी फसल में अपने-अपने हिसाब से सियासत के दाने नज़र आए। विभागीय कमजोरियों को छिपाने के लिए मजहबी दांव ऐसे फेंके गए कि सबकुछ बदल गया। जेहाद..जहालत के शोर में जमीनी हकीकत को अब भी दबाया छुपाया जा रहा है।
अपने हिसाब से सब खेल रहे हैं और आगे भी इस खेल के लिए पर्याप्त जमीन तैयार कर ली गई है। सोच-समझ कर दांव फेंके जा रहे हैं। तभी तो बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्ढ़ा को यह कहने में काफी समय लगता है कि कोई भी ऐसा बयान न दे जिससे समाज में विभाजन की आशंका बढ़े। उन्हें कहना पड़ा कि कोरोना महामारी को सांप्रदायिक रंग न दें।
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सियासत सोच से उभरती है। कोरोना वायरस से लड़ रहे देश में आने वाला समय बेहद चुनौतीपूर्ण रहने वाला है। ये महामारी हमें आर्थिक स्तर पर कई चुनौतियों के सामने लाकर तो खड़ा करेगा ही हमें अपने आचार-व्यवहार और रहन सहन में कई नए सबक देकर जाएगा। काश कि ये महामारी ये सबक और सहूर हमारे सियासतदानों को दे जाए कि हर वक्त सियासत और केवल सियासत समाज को नहीं बनाता। और समाज ही नहीं बचेगा तो सियासत का क्या करोगे ?