डॉ. मनीष पांडेय
लॉकडाउन में प्रत्येक व्यक्ति अपनी अलग-अलग तरह की समस्याओं से जूझ और आतंकित हो रहा था! अचानक सोशल मीडिया एक ख़बर से धधक उठता है..
“सूचना एवं प्रसारण मंत्री ने डीडी नेशनल पर रामायण सीरियल वापसी की घोषणा ट्विट की!” रामनवमी के निकट आ रहे क्षणों में रामकथा की वह महिमा जिसने वैश्विक होने की ओर उन्मुख हो उठी दुनियां के बीच भारत में भी तैयार हो रहे बाजारवाद की पृष्ठभूमि और देश की बिगड़ती आर्थिक स्थितियों से इतर ”होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा।।” के तहत मग्न कर दिया था।
सहसा लगभग तीन दशक पहले की धुँधली तस्वीर उभर आती है। ‘रामायण’ शुरू होने से आधा घंटे पहले ही खोल दी गई शटर वाली टी.वी. के कमरे में घर की महिलाओं, लड़कियों, बच्चों और फिर क्रमशः बरामदा (जिसे प्रायः गाँव में वसारा ही कहा जाता था!) में बिछे कंबल से निरा फ़र्श पर बैठे लोगों की संख्या गुलामगर्दे (तीन स्टेप की सीढ़ी) पर खड़ों तक पहुँचती है। तभी अचानक स्क्रीन झिलझिलाने पर हरेराम दौड़ छत पर पहुँचते हैं, एंटीना हिलाने!
“तनिक उत्तर ओर लै जा” बोलते हुए बोलते हुए बाहर ग्राउंड में खड़े लहुरे ने हाथों से इशारा किया।
“हाँ, बस बस बस…..रुकल रहा……(बात छत तक पहुँचने में देरी होती है)…. ओह! गड़बड़ाय गईल” वरांडे में खड़े होकर टीवी की स्क्रीन पर नजर गड़ाए लालमन बोल पड़े।
बहरहाल टीवी के सामने से वाया बरामदे, सामने के दुआरा (ग्राउंड) से होते हुए छत पर खड़े हरेराम तक कइयों बार दाहिने, बाएं एंटीना घुमाने की निर्देश प्रक्रिया चलती है और अन्ततः मुस्कान के बीच सबकी सामूहिक ख़ुशी बिखरती है, इस आवाज के साथ…..”आय गइल”
“बाऊ मांगत बाय कि एन्टीनवा उतार के ढंग से कसि दिहल जाय, तबे ठीक होई” एंटीना सही सेट करने के अभिमान के साथ बरामदे पर चढ़ते हुए हरेराम ने अपनी टिप्पणी की, जिसपर किसी की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई।
इन सबके बीच कभी टीवी तो कभी एंटीना ठीक कराने के लिए बनी मानव चेन में खड़े पात्रों के मध्य अपनी भूमिका ढूँढने में असफ़ल मूकदर्शक की तरह खड़े आशीष की चिंता बनी रही कि जब यह रामायण टीवी पर नहीं आ रहा था, लोग राम जी और हनुमान जी को जानते कैसे थे!
उस दौर में बिजली कम घरों में थी, सो बच्चों की बड़ी मन्नतों के बाद ही किसी शाम को कटती थी, और तभी रात में पढ़ने से उन्हें फ़ुर्सत मिलती थी, लेकिन रामायण शुरू होने के दौरान कटी बिजली से होने वाली पीड़ा और अकुलाहट को आज शायद वही महसूस कर सकता है, जिसके मोबाइल में नेट बंद हो गया हो! टी.वी. सेट का बड़ा होना भी एक आफत थी क्योंकि वो ट्रैक्टर की बैटरी से चल भी तो नहीं सकती थी!
ख़ैर समय चक्र आगे बढ़ता है, इधर आज तीन दशक पहले की स्थिति को लेकर ‘पब्लिक स्फीयर’ सोशल मीडिया पर पूरे शबाब पर था, जहाँ फेसबुक पर पहले से ही रामायण सीरियल को शुरू करने की मांग करने वाले शुक्ल जी ने लिखा, “रामायण धारावाहिक शुरू हो रहा है कल से डीडी नेशनल पर, लॉक डाउन के दौरान समय का सही इस्तेमाल होगा।”
मोबाइल उपनाम वाले बाबा ने अपनी पीड़ा कुछ यों व्यक्त की कि, “रामायण और महाभारत के प्रसारण का फ़ैसला करके सरकार ने केवल बहुसंख्यकों को खुश करने का काम किया है, इससे अल्पसंख्यक समुदाय बहुत दुखी व निराश है, हम सरकार से माँग करते हैं, कि दूरदर्शन पर तत्काल धारावाहिक “अलिफ लैला” का भी प्रसारण शुरू किया जाए-विपक्ष”
हिंदुत्व की भावना से ओतप्रोत अभितांश लगभग ललकारते हुए फेसबुक पर ही प्रसारित होते है, “अपने बच्चों को जबरदस्ती दिखायें……. इस जैसा सीरियल इससे पहले न कभी बना था और न कभी बन पाएगा। चाहै आप किसी भी धर्म , सम्प्रदाय, मत को मानने वाले हों ,चाहे भीमटे या मुस्लिम ही क्यों न हों , लेकिन देखिएगा अवश्य।
उधर ट्विटर के बुद्धिजीवी जतिन उबल उठे, ” हाउ वॉज़ ‘पब्लिक डिमांड’ फ़ॉर रामायना कम्युनिकैटेड टू गवर्नमेंट? हाउ डिड द गवर्नमेंट फ़िगर दैट द ‘पब्लिक’ वांट्स दिस? आप क्रोनोलॉजी समझिए!
“माइग्रेंट्स आर वॉकिंग बैक 100s ऑफ़ किलोमिटर्स टू देयर होम..
यूनियन मिनिस्टर: वी विल री टेलीकास्ट रामायणा फ़ॉर टॅमॉरो
प्रायोरिटीज” लिखकर लिखकर ख़ालिद अपनी पीड़ा या शायद भड़ास निकालते हुए ट्वीट कर रहे थे!
मेलबोर्न से अभी का किसी उमराव पटेल के ट्वीट “..चीन फंडेड कुछ मीडिया द्वारा लोगों को भड़काए जाने के बावजूद #Lockdown21 को असफल नहीं होने दिया जाएगा।” को रिट्वीट करना यह बताने की कोसिस हैं, कि कोरोना से लड़ने की गंभीरता से ट्विटर, रामायण प्रसारण के भावनात्मक माहौल में भी, पीछे हटने वाला नहीं।
फ़िर भी उन अतिरेकी ‘दूरदर्शनियों’ की फ़ेहरिस्त लंबी बन पड़ी थी, जो पुराने दिनों को लेकर भावुकता में समंदर होने लगे थे और मांग उठने लगी कि महाभारत, देख भाई देख, बुनियाद, तमस, ओल्ड फॉक्स, टीपू सुल्तान, चाणक्य, चन्द्रकांता, जुबान संभाल के, जंगल बुक, नीम का पेड़, सुरभि (हालाँकि बीच में दबी जुबान से कुछ एक ने ‘भारत एक खोज’ दिखाने की भी मांग की, जिसमें कोई दम नहीं बन पड़ा) समेत चित्रहार और रंगोली दिखाई जाए, यद्यपि कोई ‘कृषि दर्शन’ दिखाने की मांग की हिम्मत जाने क्यों नहीं कर रहा, जबकि नई टीवी के जमाने में गंभीर दर्शकों में उसकी भी अपनी धाक थी!
ख़ैर ये खाये पिये अघाये लोगों की मांग हैं, जो जीना तो तो वर्तमान के सुखों में चाहते हैं, लेकिन आनंद उस चयनित अतीत का भी ढूँढते हैं, जिसे बाज़ार कबका रौंद चुका है।
…..”फ़िलहाल ‘महाभारत’ की भी शुरूआत होती है, और उसी दौरान भारतीय समाज में उफ़ान पर चल रहे धार्मिक माहौल के समानांतर ही नई आर्थिक नीति के प्रभाव से बने बाजार की दस्तक होती है।
“जिसको अकेले मरना हो वो हीरो होंडा ले ले और जिसे परिवार सहित वे मारुति कार” महाभारत सीरियल देखने जुटे लोगों के बीच की जा रही टिप्पणी आशीष को सुनाई देती है, जिसे अभी यह बात समझ ही नहीं आती कि आख़िर क्यों बुलेट,येज़दी, बजाज स्कूटर रखने वाले एक्का-दुक्का लोगों की जगह बहुतों ने राजदूत और हीरो होंडा लेना शुरू कर दिया। वास्तव में वही समय था, जब उपभोक्तावाद के साथ ही भारत के लोगों की क्रयशक्ति बढ़ने लगी थी।
वहीं टी.वी. देखने बैठे मद्दन मास्टर साहब चिंता करते हुए बोल पड़ते हैं, “अरे नेता बाऊ, एतना तेज लैके कुल मिले उडैले मोटरसाइकिलिया कि जोतो गिरि जाए, तब बचिहन नाहीं”।
दरअसल इस संवाद में अर्थ और समाज की जीवन शैली में आ रहे बदलाव के प्रति ग्रामीण परम्परा की नाराज़गी थी, जिसे उसी अनुरूप ढालने में बाजार को ही 20 साल लग गए और फ़िर 10 बरस भी नहीं बीते कि वैश्वीकरण के बेलगाम घोड़े हाँफने लगे हैं। खैर, मिश्रित अर्थव्यवस्था की संकल्पना में पूँजीवाद का महत्व निःसंदेह बढ़ रहा था।
आज़ादी से पहले आए उपन्यास चित्रलेखा का सार यही था कि ‘व्यक्ति परिस्थितियों का दास है’, जिसका महत्व सामाजिक सिद्धांतकार के रूप में कार्ल मैनहीम भी विचार निर्माण की भूमिका में मानते हैं और इसी के उदाहरण में कभी गुलाम भारत में क्रांतिकारियों के साथ रहे तत्कालीन प्रधानमंत्री दिखते हैं, जो नई आर्थिक नीति को धार देने के साथ ही उसकी अनेक बुराइयों को अंगीकार कर लेते हैं।”
तमाम तरह की ऐसी स्मृतियों में डूबते हुए मोबाइल हाथ में लिए आशीष को परीक्षित की फेसबुक पर टिप्पणी दिखी,”आपदाएं हमेशा इंसान को उसकी प्राथमिकताओं की याद दिलाने आती हैं।”
जनपक्षधर पत्रकार सिन्हा जी यह लिखते हुए चिंतित हैं, “जिस तरह बदहवास गरीब गुरबा पैदल निकल पड़ा है, लॉक डाउन की धज्जियां उड़ गई है। तुम्हारे भाषण के अलावा तुम्हारे लिए ये कभी महत्वपूर्ण रहा है नही। बिना तैयारी के घोषणाएं करना तुम्हारी आदत हमेशा से ही रही है। इस बार भी तुमने यही किया। खाये पिये उच्च मध्यम वर्ग ने तुम्हारी हमेशा जय की, इस बार भी उसने ऐसा ही किया!
“ये जो सोशल मीडिया पर बहाए गए घड़ियाली आंसुओं और फरमाइशी आहों से द्रवीभूत होकर एक हजार आपातकालीन बसें चलाई गई हैं, इनके लिये 2 हजार चालक और 1 हजार परिचालक भी घरों से निकालकर ड्यूटी पर लगाये गए होंगे। यानी समझ लीजिये कि 3 हजार और नए संभावित संक्रमित तैयार कर लिए गए हैं।
कड़ी टूटने न पाए मितरों!” व्यंग करते हुए अतुल कड़ा प्रतिरोध व्यक्त करते हैं।
” चाइनीज वायरस से फ़ैली महामारी को रोकने के मारक उपाय ‘शारीरिक दूरी’ को ‘सामाजिक दूरी’ शब्द से जाने अनजाने परिभाषित किया जा रहा, लेकन हकीकत में इसने लोगों के बीच बड़ी विभाजक रेखा खींच दी है। जाति और नस्ल के आधार पर होने वाले छुआछूत और श्रेष्ठता ग्रंथि का आधार वर्गीय समूह और देश की सीमाओं पर आधारित होने की ओर अग्रसर है। इस अमानवीयता पर मानव समाज ने सदियों के संघर्ष के बाद विजय पाई थी।
आज अचानक फ़ैली इस विषाणुजनित बीमारी ने सब संघर्ष पानी कर दिया” आशीष ने यह सोचते हुए इन बातों को मोबाइल नोट में सेव किया कि इन विन्दुओ को उस लेख में समायोजित किया जाएगा, जिसमें कोरोना के कारण विश्व की बदल रही राजनीति और अर्थव्यवस्था के संदर्भ में वैश्वीकरण के टूटकर बिखर जाने या इसके बाद भी अपना विकल्पहीन प्रभाव बनाए रखने की विवेचना होगी और घर के गेट पास टहलते लगते हैं!
तभी हरचरन सामने बरसीन के खेत से आते हुए निरर्थक सूचना प्रसारित करते हैं, “रोड़वा पर बड़ी पुलिस दौड़ति बाय” तो बगल में ही खड़े हरेराम बताते हैं, ‘आज काका के दामादे के अस्पताल से डाकटर आके चेक कई के कहलन कि कोई बात नहीं है लेकिन 14 दिन अकेले रहे के बा, दमदा उनकर बंगलौर से आइल ह न परसों”
“बाबा बाटेंन” बगल गाँव से मास्क लगाए आये व्यक्ति ने सायकिल स्टैंड पर खड़ा हुए पूछा।” कहाँ यह करफुआ में जइहें, टी.वी. देखत बाटै” हरचरन बोले।
किसी महिला एंकर की आवाज़ बाहर तक सुनाई देती है, “नमस्कार! शाम को 5 बजने को है..आप देख रहे हैं ‘अभी तक’.. मैं आपके साथ विचित्रा कुमारी….कोरोना का भयानक संकट देश पर छाया हुआ है…मगर इस संकट के साथ परेशानी का सबब वो मजदूर बन गए हैं, जो हजारों की संख्या में शहर छोड़ गांवों की ओर निकल पड़े हैं।
इन मजदूरों को भरोसा ही नहीं हो रहा कि कोई सरकार इनका ध्यान रख पाएगी! कोरोना से पहले भूख न मार डाले बिना परवाह के घर को चल दिए हैं। हमारे (ब्रेकिंग न्यूज़ के लिए जान हथेली पर रखने वाले) संवाददाता राजीव वहाँ मौजूद हैं, आइये उनसे जानते हैं, ग्राउंड रिपोर्ट….(तस्वीरऔर वीडियो क्लिप के पार्श्व में गाइड फ़िल्म का संगीत…”वहाँ कौन है तेरा मुसाफिर जाएगा कहाँ, दम ले ले घड़ी भर ये छइयाँ पाएगा कहाँ, वहाँ कौन है तेरा” सुनाई देता है )
तभी….हाँ तो राजीव आपतक मेरी आवाज पहुँच रही है…हेलो ..हेलो…हाँ… हाँ विचित्रा..हाँ.. ‘ लग रहा हमारा सम्पर्क…..’……..राजीव की स्पष्ट आवाज़ आती है, “देखिए घर लौटने के लिए कैसे हजारों की तादाद में लोग सड़क पर निकले। भूखे-प्यासे, बिलखते बच्चे! आख़िर कौन है? इसके लिए ज़िम्मेदार! दिल्ली के आनंद विहार अंतरराज्यीय बस अड्डे पर पलायन करने वाले लोगों की भारी भीड़ लग जुटी हुई है, जहां बदइंतजामी देखने को मिल रही!
हाँ तो आप कहाँ जा रहे हैं?…….बिहार के मुंगेर!”
……..चाचू चाय बन गई है….पी लीजिये! गैलरी से आवाज आती है….!
(लेखक दींन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)