सुरेंद्र दुबे
पूरी दुनिया में कोरोना की महामारी को लेकर हंगामा मचा हुआ है. अमेरिका, फ्रांस, स्पेन, ब्रिटेन व इरान जैसे देश त्राहि त्राहि कर रहे हैं कोरोना से सबसे पहले चीन में तबाही आई. सब ने देखा पर अपने बचाव के लिए इंतजामो की अनदेखी की. या फिर जरुरी कदम नहीं उठाए. अमेरिका को लगा की वो सुपर पॉवर है इसीलिए कोरोना उसके घर पर दस्तक ही नहीं देगा. पर जब कोरोना ने दस्तक दी तो अमेरिका के होश उड़ गए.
अमेरिका में एक लाख से अधिक लोग कोरोना की चपेट में आ गये और लगभग दो हजार दस लोग कल के गाल में समा गए. इतनी भयावह स्थिति के बाद भी अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प अपने देश में लॉक डाउन करने के लिए राजी नहीं हैं क्योंकि उन्हें अभी भी अपने साधनों पर घमंड है हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस मामले में होशियार निकले. उन्हें मालूम था कि साधनों का आभाव है तो तुरंत 21 दिन का लॉक डाउन कर दिया.
विज्ञान और साधनों के बल पर अपने को अजेय समझने वालों मुल्कों को पहली बार पता चला है कि प्रकृति की अपनी लीला होती है उसके साथ राम लीला कर पाना आसान नहीं हैं. प्रकृति के अपने प्रलयंकारी मंसूबे भी होते हैं. नदियों तक का रुख मोड़ देने का दम रखने वाला चीन तो किसी तरह इस त्रासदी से काफी हद तक बाहर निकल आया है पर अपने साजो सामान के बल पर पूरी दुनिया को धमकाने वाले अमेरिका की सिट्टी पिट्टी बंद है क्योंकि कोरोना से निपटने के लिए साजो सामान कम पड़ गये हैं.
भारत भी विश्व भर में फैली इस महामारी को शुरू में टुकर टुकर कर देखता रहा. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने फरवरी में ही भारत सरकार को बता दिया था की मास्क, सैनीटाईजर, पर्सनल प्रोटेक्शन इक्विपमेंट तथा वेंटीलेटरों की बड़े पैमाने पर जरूरत पड़ सकती है. पर उस समय हमारी सरकार मध्य प्रदेश में कमलनाथ की सरकार गिराने में व्यस्त थी.
इसीलिए उसने 19 मार्च तक कोरोना से लड़ने के इन सामानों का निर्यात कर विदेशी मुद्रा भंडार जमा करना जारी रखा. हद तो तब हो गई जब ये बात सामने आई कि वेंटीलेटरों का निर्यात तो 24 मार्च तक जारी रहा. अब भारत सरकार वेंटीलेटरों की कमी को पूरा करने के लिए चारों तरफ हाथ पैर मार रही है.
हमारे देश को 15 अगस्त 1947 को रात 12 बजे आजादी मिली थी तब से हर महत्वपूर्ण काम सरकारे रात 12 बजे करने लगी हैं. और हम काम के बाद बड़े पैमाने पर देश में अफरा तफरी मचती है. आठ नवंबर 2016 को देश में नोटबंदी लागू की गई. जिसमें संभावित दिक्कतों का कोई ध्यान नहीं रखा गया. जब जनता जिस दिक्कत के लिए चिल्लाने लगी तब उससे संबंधित आदेश जारी कर दिए गये.
एक जुलाई 2017 को यह दावा करते हुए पूरे देश में रात 12 बजे जीएसटी लागू कर दी गई कि इससे पूरे देश का आर्थिक ढांचा बदल जाएगा. ढांचा वाकई बदल गया. छोटे छोटे उद्योग बंद हो गये हमारी अर्थ व्यवस्था लड़खड़ा गई. सरकार लगातार जीएसटी कानून में संशोधन कर जनता को फुसलाने में लगी हुई है.
पर सरकार का रात 12 बजे के समय का मोह नहीं छूटा. और इसीलिए उसने कोरोना की महामारी से निपटने के लिए 24 मार्च रात 12 बजे से पूरे देश में बगैर आगा पीछा सोचे या यूँ कहें की सभी आवश्यक इंतजाम पूरा किये बगैर लॉक डाउन घोषित कर दिया. आपाधापी में लागू किये गये लॉक डाउन के बाद हर तरह से समर्थ लोग तो घरों में दुबग कर कोरोना को ठेंगा दिखने लगे.
पर नंगे भूखे लोग मौत से लड़ने के लिए सड़कों पर निकल पड़े. इनके सामने एक ही पप्रश्न है की वे या तो भूख से बिलख बिलख कर जान दे दें या फिर कोरोना के रूप में आये यमराज से मोर्चा लेने को तैयार हो जाए. जाहिर है दिहाड़ी पर जीवन व्यतीत करने वाले लाखों लोग यमराज से मोर्चा लेने के लिए सड़क पर उतर पड़े हैं
ताजुब होता है और दुःख भी कि सरकार ने यह नहीं सोचा कि लॉकडाउन के दौरान रोज कमाने व खाने वाले करोड़ों लोग अपना पेट कैसे भरेंगे. गरीबो की हिमायती बनने वाली सरकार को ये क्यों नहीं याद रहा कि फैक्ट्री, कारखाने, ढाबे व कंस्ट्रक्शन कार्य जब ठप हो जाएंगे तो इनका व इनके बच्चों का पेट कैसे भरेगा.
सरकार ने नहीं सोचा तो कोई बात नहीं पर नंगे भूखे लोगों को तो भूख लगनी ही थी लिहाजा लॉक डाउन के नियमों को ठेंगा दिखाते अपने गांवों को भागने के लिए सड़कों पर निकल पड़े. रास्ते में उन्हें पुलिस ने कहीं मुर्गा बनाया, कहीं उठाबैठक कराई तो कहीं लाठियों से पीट दिया. पुलिस को लगा की जब लोगों को घरों में बैठने का हुक्म सुना दिया गया है तो इन कीडे मकोडो की सड़क पर निकलने की हिम्मत कैसे हुई.
पर भूख का अपना विधान है वो लाठी डंडों से हार नहीं मानती. इसीलिए ये लोग अपमानित होते हुए भी पैदल ही अपने घरों की ओर बढ़ते रहे. जब मीडिया ने ये द्रश्य दिखाने शुरू किये तो सरकार को पता चला कि अरे ये लोग भी इसी देश के नागरिक है इन्हें भी भूख लगती है तो सरकारी तंत्र चेता और इन लोगों के खाने पीने की कुछ जगहों पर व्यवस्था हुई. कुछ स्वंयसेवी संगठनो का दिल पसीजा. कठोर दिल पुलिस के लोगों ने भी मुर्गा नहीं बनाया हाथ धुलवाए और पूड़ी सब्जी खिलवाई.
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शासन और दिहाड़ी मजदूरों के बीच एक जंग जारी है. शासन कह रहा है कि आप जहां है वहीँ डेरा डाल लीजिये हम आपके खाने पीने की व्यवस्था करेंगे पर मजदूर कह रहे हैं कि हमें अपने गांवों को लौट जाने दीजिये. हमें आपकी खातिर दारी नहीं चाहिए. उनका सोचना ठीक भी है जब सरकार ने लॉक डाउन के पहले उनके बारे में नहीं सोचा तो ये खातिरदारी आखिर कब तक चलेगी.
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भरोषा नहीं हो रहा है कल विभिन्न राज्य सरकारों ने हार मान कर हजारों मजदूरों को बसों के जरिए उनके गांवों तक पहुंचाया. पर ये संख्या हजारों नहीं लाखों में हैं इसलिए आज भी हाईवे पर इनके झुण्ड के झुण्ड पैदल ही अपने गांवों की ओर बढ़ रहे हैं. भूखे प्यासे इनलोगों के चेहरों पर दया की भीख मांगने का कोई भाव नहीं है पर शिकायत जरुर है.
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हुजुर हम भी इसी देश के नागरिक हैं अगर सरकार हमारे बारे में भी पहले ही सोच लेती तो अच्छा लगता. ऐसा नहीं हैं की इन्हें कोरोना से भय नहीं है सभी मास्क या किसी कपडे से अपने मुह को ढके हुए हैं पर क्या करें कोरोना के दर से भूखे पेट मरने को तैयार नहीं हैं मरना ही है तो गांवों में अपनों के बीच जाकर मरेंगे.