Friday - 1 November 2024 - 2:39 PM

साम्प्रदायिक हिंसा और सोशल मीडिया

गिरीश तिवारी 

एक कहावत है झूठ के पाव नहीं होते, लेकिन सोशल मीडिया के जमाने में यह कहावत चरितार्थ होती नहीं दिख रही है। सोशल मीडिया ने फर्जी खबरों को पाव नहीं पंख दे दिया है। कोई भी खबर हो या अफवाह मिनटों में कश्मीर से कन्याकुमारी पहुंच जाती है और देखते ही देखते मामला राष्ट्रीय स्तर का बन जाता है।

पिछले महीने दिल्ली के उत्तर पूर्वी दिल्ली के कुछ इलाकों में दंगाइयों ने जो कुछ किया उसमें सोशल मीडिया ने क्या भूमिका निभाई है इससे हम सभी वाकिफ हैं। सोशल मीडिया ने आग में घी का काम किया है। सोशल मीडिया के माध्यम से ही दिल्ली हिंसा की पूरी पटकथा लिखी गई और इसे बखूबी अंजाम दिया गया।

दिल्ली चुनाव से पहले और उस दौरान सोशल मीडिया पर जो नफरत के बीज बोये गए, दिल्ली हिंसा उसी का परिणाम है। हमारे-आपके सभी के फोन में हर दिन ऐसे कई मैसेज और वीडियो आते हैं जिसमें सिर्फ और सिर्फ नफरत और समाज को बांटने का संदेश होता है।

दिल्ली शांत हो गई है, लेकिन सोशल मीडिया पर दंगे का उफान थमा नहीं है। हर दिन दंगे से संबंधित वीडियो-मैसेज आ रहे हैं। दंगे के दौरान और बाद में भी इस दिशा में कोई कारगर कदम नहीं उठाया जा रहा है। दिल्ली हिंसा के बाद क्या यह जरूरी लगता कि सोशल मीडिया जैसे माध्यम पर सरकार को जल्द से जल्द नकेल कसनी चाहिए।

भारत में सोशल मीडिया पर फर्जी खबरें व वायरल पोस्ट को नियंत्रित करने के लिए लंबे समय से कवायद चल रही है, लेकिन अब तक इस दिशा में कुछ नहीं हुआ है। पिछले साल 24 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने भी एक मामले की सुनवाई के दौरान इस मुद्दे पर सरकार को निर्देश जारी किया था।

अदालत ने सख्त टिप्पणी करते हुए कहा था कि हमें ऐसी गाइड लाइन की जरूरत है, जिससे ऑनलाइन अपराध करने वालों और सोशल मीडिया पर भ्रामक जानकारी पोस्ट करने वालों को ट्रैक किया जा सके। सरकार ये कहकर पल्ला नहीं झाड़ सकती कि उसके पास सोशल मीडिया के दुरुपयोग को रोकने की कोई तकनीक नहीं है।

न्यायाधीश जस्टिस दीपक गुप्ता ने कहा था कि सोशल मीडिया प्लेटफार्म और यूजर्स के लिए सख्त दिशा-निर्देशों की जरूरत है। अभी हालात ये है कि हमारी निजता तक सुरक्षित नहीं है। लोग सोशल मीडिया पर एके 47 तक खरीद सकते हैं। ऐसे में कई बार लगता है कि हमें स्मार्टफोन छोड़, फिर से फीचर फोन का इस्तेमाल शुरू कर देना चाहिए।

कोर्ट का यह निर्देश ऑनलाइन अफवाहों और फेक विडियोज के कारण हुईं हालिया घटनाओं के बाद आया था।

दिल्ली दंगे के कई वीडियोज वायरल होने शुरु हो गए हैं। किसी वीडियो में पुलिस प्रताडि़त करती दिख रही है तो किसी में मुस्लिम युवक बंदूक थामे दिख रहा है। किसी वीडियो में हिंदू परिवार रोते-बिलखते दिख रहा है तो किसी में मुस्लिम परिवार। हर वीडियो का अपना-अपना परसेप्शन है। कहीं पुलिस वाला दोषी प्रतीत हो रहा है तो कही मुस्लिम युवक।

इन वीडियोज का मकसद जानिए, समझिए। दिल्ली दंगे की तस्वीर और वीडियोज के माध्यम से पूरे देश को कुछ संदेश देने की कोशिश की जा रही है। और यह संदेश देने का काम सोशल मीडिया कर रहा है।

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सोशल मीडिया की भूमिका पर वरिष्ठ पत्रकार सुशील वर्मा कहते हैं, सोशल मीडिया ने स्थानीय और राष्टï्रीय के फर्क को मिटा दिया है। आज के दौर में कोई भी घटना स्थानीय नहीं रह गई है। एक छोटे से गांव की लड़ाई हो या दिल्ली का दंगा। पूरे देश में जिन हाथों में मोबाइल है और उसमें सोशल मीडिया है तो हर वह व्यक्ति उस घटना का गवाह है।

वह कहते हैं, हाल ही में हुई कुछ घटनाओं को देखिए। दूर जाने की जरूरत नहीं है, आप नागरिक संसोधन कानून के विरोध में होने वाले प्रदर्शन को देखिए। सोशल मीडिया न होती तो सीएए के खिलाफ हो रहे आंदोलन अब तक न चल रहे होते। सोशल मीडिया की ही देन है कि लोगों को आसानी से पता चल रहा है कि कहां प्रदर्शन हो रहा है और कौन कर रहा है। लोग एक-दूसरे से प्रेरणा लेकर सरकार के खिलाफ मोर्चा लिए हुए हैं।

साम्प्रदायिक दंगों में सोशल मीडिया की भूमिका पर वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र दुबे कहते हैं कि हर चीज के दो पहलू होते हैं। सकारात्मक और नकारात्मक। सोशल मीडिया के साथ भी ऐसा ही है। डिपेंड करता है कि इसका इस्तेमाल करने वाले कौन लोग हैं। हमारे यहां नकारात्मक कामों के लिए इसका इस्तेमाल ज्यादा हो रहा है।

वह कहते हैं, दिल्ली दंगे में सोशल मीडिया ने आग में घी डालने का काम किया। नफरत वाले पोस्ट, तस्वीरे और वीडियोज ने दंगे में अपनी भूमिका निभाई। इतना ही नहीं शांति के बाद दंगे के वीडियोज व तस्वीरे भेजी जा रही है। इस घटना से अभी भी फायदा उठाने की कोशिश की जा रही है।

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