सुरेंद्र दुबे
नेताओं को चुनाव जीतने के लिए अपने काम से ज्यादा भावनात्मक मुद्दों की याद आती है। ताकि इसके सहारे वे मतदाताओं को मूर्ख बना सके और अपनी कुर्सी बरकरार रख सके। बिहार में इस वर्ष के अंत में विधानसभा के चुनाव होने हैं और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को यह चिंता सता रही है कि मतदाताओं को किस मायाजाल में फंसा कर वोट हथियाएं जाए।
बिहार विधानसभा ने प्रदेश में 2021 में जातिगत जनगणना कराने का प्रस्ताव पारित किया है। जाहिर है मुख्यमंत्री ने जातियों के आधार पर बंटे मतदाताओं को अपनी झोली में समटने के लिए यह पासा फेंका है। मुख्यमंत्री के पास चुनाव जीतने के लिए मुसलमान और पिछड़ी जातियां ही मुख्य रूप से चुनावी कार्ड हैं।
एक अर्से से विभिन्न राज्यों के पिछड़े वर्ग के नेता जाति आधारित जनगणना कराने की मांग करते रहे हैं। इसकी मांग बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव भी कर चुके हैं। यह मांग उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भी अपने कार्यकाल में की थी।
आखिरी जाति आधारित जनगणना वर्ष 1931 में हुई थी। जाति आधारित जनगणना का ढ़िंढ़ोरा इस आधार पर पीटा जाता है कि इससे कमजोर जातियों को समाज की मुख्य धारा में लाने और उनके आर्थिक उन्नयन में मदद मिलेगी। पर असली निशाना पिछड़ी जातियों को एक जुट कर सत्ता हथियाना ही है।
विधानसभा के प्रस्ताव पारित करने मात्र से जातिगत जनगणना नहीं हो सकती। इसके लिए केंद्र सरकार को कानून बनाना पड़ेगा। पर जातिगत जनगणना हो या न हो एक मुद्दा तो हवा में उछल ही गया है। यह मुद्दा ऐसा था, जिसका कोई पार्टी विरोध नहीं कर सकती थी, इसलिए यह प्रस्ताव आसानी से पारित हो गया।
सीएए कानून पर चल रहे देशव्यापी विरोध के कारण मुस्लिम मतदाता भाजपा से बुरी तरह नाराज हैं। क्योंकि उन्हें लगता है कि भाजपा इस कानून के जरिए उन्हें देश से अलग-थलग कर देना चाहती है। मुसलमान भाजपा के इस तर्क से कतई मुतमईन नहीं हैं कि सीएए कानून से किसी मुसलमान को डरने की जरूरत नहीं है।
भाजपा इस बात को जितनी जोर से कहती है उतना ही मुसलमानों का डर बढ़ता जा रहा है। इसलिए देश भर में सैंकड़ों शाहीन बाग खड़े हो गए हैं। जिन्हें सरकार लाख प्रयास के बावजूद हटा नहीं पा रही है। दिल्ली में हुए दंगों को भी इसी परिपेक्ष्य में देखा जा रहा है। क्योंकि दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने शाहीन बाग के इर्द-गिर्द ही अपनी सारी चुनावी रणनीति तैयारी की थी। जिसमें उसे मुंह की खानी पड़ी।
नीतीश कुमार मुसलमानों और अति पिछड़ों व अति दलितों के बल पर ही पिछले 15 वर्ष से सत्ता संतुलन बनाए हुए हैं। वे जिधर जाते हैं उसी गठबंधन की जीत होती है। इस समय वे भाजपा के गठबंधन के सहयोगी हैं। इसलिए मुस्लिम वोट उनसे छिटकता नजर आ रहा है।
क्योंकि दूसरे पाले में कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की हम पार्टी और उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी खड़ी है, जो मुसलमानों को अपने ज्यादा करीब लगती है। नीतीश कुमार ने यही सोच कर जातिगत जनगणना कराने का भावनात्मक मुद्दा उछाला है।
जातिगत जनगणना की मांग लालू यादव की पार्टी भी अर्से से करती रही है। इसलिए अकेले नीतीश इस मुद्दे का फायदा उठा लेंगे यह बहुत आसान नहीं लगता है। पर एक आशंका जरूर बलवती होती है कि क्या जातिगत समीकरण के आधार पर चुनाव जीतने की लालसा लालू यादव और नीतीश कुमार को फिर एक मंच पर ला सकती है। परंतु यक्ष प्रश्न यही है कि ऐसे में मुख्यमंत्री का चेहरा कौन होगा।
क्या पिछड़ी जातियों को सत्ता सौंपने के क्रम को आगे बढ़ाए रखने के लिए नीतीश कुमार अपनी कुर्सी पर लालू यादव के छोटे बेटे तेजस्वी यादव को कुर्सी पर बैठाने के लिए तैयार होंगे।
यह प्रश्न भी काफी मौजू है कि क्या लालू यादव सत्ता पाने के लिए एक बार फिर नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनवाने के लिए सहमत हो जाएंगे। ऐसी स्थिति में उन्हें तेजस्वी यादव के उप मुख्यमंत्री बनने पर ही संतोष करना पड़ेगा। राजनीति संभावनाओं का एक रहस्मयी खेल है इसलिए फिलहाल दोनों ही संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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