न्यूज डेस्क
भारतीय राजनीति में नेताओं के बीच जुबानी जंग कोई नई बात नहीं हैं। अक्सर चुनाव आते ही नेता अपने जुबान से जहर उगलने लगते हैं। इसके पीछे वोटों का ध्रुवीकरण और वोटरों को खुश करने की वजह बताई जाती है। लेकिन नेताओं के हेट स्पीच के कई दुष्परिणाम भी होते हैं। एक तो इसका गलत असर जनता पर पड़ता है, दूसरा सामाजिक सौहार्द भी भिगड़ने लगता है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर चुनाव आयोग हेट स्पीच देने वाले नेताओं के खिलाफ कोई खड़ा एक्शन क्यों नहीं लेता या फिर उनके खिलाफ एफआईआर क्यों नहीं दर्ज कराता।
हाल ही में खत्म हो दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान अलग-अलग दलों के नेताओं ने कई विवादित बयान दिए। बीजेपी के सांसद प्रवेश वर्मा ने दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल को आतंकवादी बताया तो केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर ने मंच से ‘देश के गद्दारों को, गोली मारो….’ जैसे नारे लगवाए। वहीं कपिल मिश्रा ने तो यहां तक कह दिया कि ‘ये चुनाव भारत और पाकिस्तान के बीच है’। इस तरह के बयानों पर काफी बवाल बचने के बाद चुनाव आयोग अनुराग ठाकुर और प्रवेश वर्मा पर कुछ घंटों के खिलाफ चुनाव प्रचार न करने का दण्ड दे दिया। लेकिन कोई कानून कार्रवाई नहीं की।
दिल्ली चुनाव संपन्न हो गए और आम आदमी पार्टी ने प्रचंड बहुमत के साथ एक बार दिल्ली की सत्ता को हासिल कर लिया। लेकिन इस बीच हुई नेताओं के बयानबाजी ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है। दरअसल, चुनाव आयोग और इसके एक पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) में ‘वाक युद्ध’ शुरू हो गया है।
दिल्ली चुनाव के दौरान हेट स्पीच देने वाले नेताओं के खिलाफ एफआईआर दर्ज नहीं कराने को लेकर पूर्व सीईसी एसवाई कुरैशी की ओर से उठाए गए सवाल का चुनाव आयोग ने जवाब दिया है और कहा कि वह पसंद के मुताबिक कुछ चीजें याद कर रहे हैं और कुछ चीजें भूल रहे हैं। चुनाव आयोग ने कुरैशी को आईना दिखाते हुए कहा है कि सीईसी के रूप में उनके सामने आचार संहिता उल्लंघन के जितने मामले आए, उनमें से एक में भी एफआईआर नहीं हुई।
2010 से 2012 तक चुनाव आयोग का नेतृत्व करने वाले कुरैशी ने 8 फरवरी को प्रकाशित एक लेख में हैरानी जताई थी कि दिल्ली चुनाव के दौरान विवादित बयान देने वाले बीजेपी नेता अनुराग ठाकुर और बीजेपी सांसद प्रवेश वर्मा के खिलाफ जनप्रतिनिधित्व कानून या आईपीसी के तहत एफआईआर क्यों नहीं दर्ज कराई गई, जबकि वे ऐसी गलती के लिए दोषी पाए गए थे जिसमें सजा की जरूरत थी। हालांकि, उन्होंने बीजेपी के स्टार कैंपेनर लिस्ट से दोनों को बाहर करने और चुनाव प्रचार पर अस्थायी रोक के लिए चुनाव आयोग की तारीफ की थी।
13 फरवरी को कुरैशी को भेजे जवाब में उप चुनाव आयुक्त संदीप सक्सेना ने उन सभी चुनाव आचार संहिता उल्लंघन मामलों का जिक्र किया जो कुरैशी के कार्यकाल में सामने आए थे। इसमें 9 नोटिस का हवाला दिया गया, जिन्हें उस दौरान जारी किया गया था। उन्होंने लिखा कि इस सूची से देखा जा सकता है कि तब आयोग की तरफ से जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 और 125 या आईपीसी के तहत कोई कार्रवाई नहीं की गई थी। लेटर में आगे लिखा गया है, ‘विडंबना है कि इस हद तक चुनिंदा भूल’ से पाठक गुमराह हो सकते हैं।’
चुनाव आयोग ने 30 जुलाई 2010 और 10 जून 2012 के बीच हुए चुनावों के 9 कारण बताओ नोटिस का हवाला दिया है, जो कुरैशी के कार्यकाल के दौरान के हैं, जबकि पांच 2012 में यूपी चुनाव के दौरान जारी किए गए थे, तीन 2011 पश्चिम बंगाल चुनाव, दो 2011 तमिलनाडु चुनाव और एक 2010 के बिहार चुनाव के दौरान जारी किए गए थे। इन मामलों में पांच में अडवाइजरी जारी की गई थी, दो मामलों में चेतावनी दी गई थी और बचे हुए दो मामले बंद कर दिए गए थे। किसी भी केस में एफआईआर दर्ज करने का निर्देश नहीं दिया गया था। इस कालखंड में असम, केरल, पुडुचेरी, गोवा, मणिपुर और उत्तराखंड में हुए चुनावों में आचार संहिता उल्लंघन का कोई नोटिस जारी नहीं हुआ था।
तत्कालीन कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने यूपी चुनाव के दौरान अल्पसंख्यकों के लिए 27 पर्सेंट ओबीसी कोटा में 9 पर्सेंट रिजर्वेशन का वादा किया था। इस मामले में जारी नोटिस का हवाला देते हुए चुनाव आयोग ने याद दिलाया कि इसके बाद उन्हें सेंसर कर दिया गया था, लेकिन खुर्शीद ने घोषणा को दोहराया तो चुनाव आयोग ने राष्ट्रपति को लेटर लिखकर हस्तक्षेप की मांग की थी। आखिरकार खुर्शीद ने अपने बयान पर खेद जताया, जिसके बाद चुनाव आयोग ने आगे कोई कार्रवाई नहीं करने का फैसला किया।