केपी सिंह
कहा कहौं छवि आज की, भले बने हो नाथ। तुलसी मस्तक तब नवै, जब धनुष बान लो हाथ।।
गुसाई चरित में एक प्रसंग वर्णित है हालांकि उसका कोई ऐतिहासिक आधार नही है। लेकिन यह प्रसंग आज प्रासंगिक हो गया है। प्रसंग के अनुसार गोस्वामी तुलसीदास संत नंददास से मिलने वृंदावन गये थे। संत नंददास उन्हें भगवान श्रीकृष्ण के मंदिर ले गये। गोस्वामी तुलसीदास को मालूम था कि श्रीराम और श्रीकृष्ण एक ही ईश्वर के अवतार हैं। पर वे जिस इष्ट रूप के उपासक थे उसी में भगवान को देखना चाहते थे और आखिर में भगवान को उनका आग्रह स्वीकार कर श्रीकृष्ण के रूप को बदलकर श्रीराम के रूप में प्रत्यक्ष होना पड़ा।
जाकी मति रही जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी। भारतीय जनता पार्टी की राम भक्ति का ऐसा ही कुछ आलम है। धनुषधारी राम खुद उसके धनुष के तरकश के ब्रहमास्त्र के दर्जे के तीर प्रतीत होते हैं। इस तीर को तभी भाजपा प्रत्यंचा पर चढ़ाती है जब उसे अचूक राजनैतिक निशाना साधना हो। इस बार भी ऐसा ही हुआ है।
9 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने राम मंदिर निर्माण का फैसला सुनाया था तब उसने अपने आदेश में कहा था कि सरकार तीन महीने के अंदर राम मंदिर ट्रस्ट का गठन करे जिसे मंदिर के निर्माण का अधिकार सौंपा जाये। इसलिए इस ट्रस्ट का गठन बहुप्रतीक्षित हो गया था। 9 फरवरी को इसकी डैड लाइन पूरी हो रही थी लेकिन अंतिम क्षणों तक सरकार दम साधे बैठी रही। दिल्ली विधानसभा के चुनाव का प्रचार समाप्त होने के एक दिन पहले उसने बाजी पलटने के बतौर ट्रस्ट के गठन का एलान कर दिया।
हालांकि सरकार इसमें तकनीकी तौर पर कहीं नही फंस रही इसलिए विपक्ष के हमलावर होने के बावजूद चुनाव आयोग को आचार संहिता के उल्लंघन के मामले में की जा रही उसकी घेराबंदी से उसे बरी घोषित करना पड़ा है। पर नैतिक तौर पर सरकार राम मंदिर ट्रस्ट के गठन को लेकर चुनी गई टाइमिंग में कपटाचार के गुनाह से बच नही सकती।
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15 सदस्यीय ट्रस्ट इस सिलसिले में बनाया गया है जिसमें 9 स्थाई सदस्यों के नाम साथ ही घोषित कर दिये गये हैं। ये हैं के. परासरन, सुप्रीम कोर्ट में हिंदू पक्ष के अधिवक्ता, कामेश्वर चौपाल जिन्होंने 1989 में दलित प्रतिनिधि के रूप में मंदिर का शिलान्यास किया था, स्वामी वासुदेवानंद जी महाराज प्रयागराज, जगत गुरू माधवाचार्य विश्व प्रसन्न तीर्थ महाराज, पीठाधीश्वर पेजाबर मठ उडुपी कर्नाटक, युग पुरुष परमानंद जी महाराज प्रमुख अखंड आश्रम हरिद्वार, स्वामी गोविंद देव गिरी पुणे, विमलेंद्र प्रताप मोहन मिश्र अयोध्या राज परिवार के वंशज, डा. अनिल मिश्र अयोध्या के हौम्योपैथिक चिकित्सक और महंत दिनेंद्र दास निर्मोही अखाड़े के प्रतिनिधि।
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खास बात यह है कि इस ट्रस्ट का सदस्य कोई गैर हिंदू नही हो सकेगा। इसलिए ट्रस्ट के बाबत जो यह व्यवस्था की गई है कि अयोध्या के जिलाधिकारी इसमें पदेन सदस्य रहेगें उसे लेकर यह भी स्पष्ट किया गया है कि अगर अयोध्या में किसी समय गैर हिंदू जिलाधिकारी नियुक्त हो जाता है तो उसकी बजाय अपर जिलाधिकारी को पदेन सदस्य बनाया जायेगा। केंद्र सरकार की ओर से ऐसे सदस्य को ट्रस्ट में नियुक्त किया जायेगा जो अनिवार्य रूप से आईएएस होगा और संयुक्त सचिव के पद से नीचे स्तर का अधिकारी नही होगा। उत्तर प्रदेश सरकार भी एक आईएएस अधिकारी नियुक्त करेगी जो राज्य में कम से कम सचिव स्तर का होगा। यह ट्रस्ट सरकारी हस्तक्षेप से पूरी तरह मुक्त रहेगा। ट्रस्ट को राम मंदिर निर्माण और उसके रख-रखाव के लिए धन जुटाने और उसके प्रबंधन की पूरी छूट होगी।
ट्रस्ट में दलित प्रतिनिधि की नामजदगी को भी अनिवार्य बनाया गया है। राम मंदिर आंदोलन के शुरू में ही राम पूजा को इतनी अधिक प्रतिष्ठा दिये जाने को लेकर सवाल उठे थे। क्योंकि सनातनी मुख्य रूप से शैव मठों को सर्वोच्च आराध्य स्थल मानते रहे हैं जिससे चारों धाम की यात्रा उनके जीवन का सर्वोच्च आध्यात्मिक लक्ष्य की तरह प्रतिपादित होता रहा है। शंबूक कथा हालांकि क्षेपक प्रसंग है लेकिन इसी को आधार बनाकर राम पूजा के लिए एकाएक पैदा हुए उत्साह पर चोट की जाती थी। इस क्षेपक प्रसंग में भगवान श्रीराम का अवतार वर्णाश्रम धर्म की मर्यादा को बनाये रखने के निहितार्थ के रूप में झलकता बताया जाता था। यह संयोग ही था कि राम मंदिर निर्माण आंदोलन ने ऐसे समय जोर पकड़ा था जब मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करके वर्ण व्यवस्था पर सबसे करारी चोट की गई थी।
राम मंदिर आंदोलन को इसके कारण संशय के घेरे से बचाने के लिए मंदिर समर्थकों को समय पर ही सचेत होना पड़ा। उन्होंने मंदिर आंदोलन को सामाजिक समरसता से जोड़ना इसकी प्रभावी खंडना के लिए उचित माना और इसी लिए शिलान्यास कर्ता के रूप में एक दलित को शामिल किया। यह संयोग है कि भले ही राम कथा के साथ शंबूक प्रसंग जुड़ा माना जाता हो लेकिन तेरहवीं शताब्दी से जब वैष्णवों ने स्वतंत्र राम उपासक पंथ का श्रीगणेश किया तब से यह आंदोलन समाज में जाति बंधनों को ढीला करने और तत्कालीन अछूतों सहित सभी शूद्रों को सम्मानित भक्तों का दर्जा देने का उत्प्रेरक रहा है। आंदोलन की यह तासीर आज भी कायम है। इसीलिए भगवान के राम स्वरूप की पूजा की लहर ने हिंदू फलक को इतना विस्तृत कर दिया जिससे अस्मितावादी आंदोलन उसमें विसर्जित हो गये। भाजपा को इसका भरपूर लाभ दलित और पिछड़ा समर्थन भी पूरी एकजुटता से उसके पाले में लामबंद हो जाने से मिला।
दूसरी ओर राम मंदिर आंदोलन का इतिहास प्रतिकूल इत्तिफाकों से भी जुड़ा हुआ है। जिन नेताओं ने इस आंदोलन के लिए कुर्बानियां दीं उन्हें इस पुण्य का लाभ मिलने की बजाय श्रापित कैरियर का सामना करना पड़ गया है। राम मंदिर ट्रस्ट की घोषणा के तत्काल बाद मीडिया कर्मी इसे लेकर उमा भारती के पास उनकी प्रतिक्रिया जानने जा पहुंचे।
उमा भारती बाबरी मस्जिद ध्वंस मुकदमे के संताप का सामना कर रहीं हैं। उन्होंने 2024 के चुनाव में फिर से राजनीति में सक्रिय होने की महत्वाकांक्षा प्रकट की है। लेकिन सब जानते हैं कि वे इन पांच वर्षो में मुख्य धारा से छिटक कर गुमनाम हो चुकी होगीं। इसके अलावा बाबरी मस्जिद विध्वंस को जिस तरह उच्चतम न्यायालय द्वारा आपराधिक कृत्य करार दिया जा चुका है। उसके मद्देनजर इससे संबंधित मुकदमें के आगत फैसले में नामजद लोग अगर सजा पा गये तब लालकृष्ण आडवाणी और डा. मुरली मनोहर जोशी के लिए तो कोई बात नही है क्योंकि उनके राजनैतिक कैरियर का पूर्ण विराम पहले ही हो चुका है। पर उमा भारती के पुनरोदय को इसकी आशंका ग्रस सकती है।
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आडवाणी और जोशी जो इस आंदोलन के सबसे बड़े चेहरे थे राजनीति में अपना मुकम्मल जहां पाने से अभिशापित होकर चूक गये। कल्याण सिंह का भी भविष्य शुरूआत में बहुत सुनहरा नजर आ रहा था। उन्होंनें बाबरी मस्जिद गिरवाने के लिए एक दिन की सजा भी खाई लेकिन अंततोगत्वा उनके राजनैतिक कैरियर का सूर्य भी पूरी तरह चमकने के पहले ही डूब गया। मंदिर आंदोलन के चरम के समय के फायर ब्रांड युवा और बजरंग दल के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष विनय कटियार का भी पुरसाहाल नही बचा है। यह बिडंबना है कि उनके भाग्य के साथ द्रोह क्यों हुआ।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)