केपी सिंह
राजनीति के अपराधीकरण पर उच्चतम न्यायालय का ताजा आदेश सरकार और राजनैतिक दलों को अपने गिरेबान में झांकने के लिए मजबूर करता है। हालांकि इसके बावजूद इस बात की कम ही गुंजाइश है कि इस मामले में लताड़ का पुट लिए उच्चतम न्यायालय की नसीहत से जिम्मेदारों की मोटी खाल में कोई सिहरन पैदा होगी। इस मामले में याचिकाकर्ता के साथ बैठकर राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिए फुलप्रूफ व्यवस्था बनाने का निर्देश उच्चतम न्यायालय ने चुनाव आयोग को दिया है।
अब देखना है कि चुनाव आयोग याचिकाकर्ता के साथ वैचारिक समुद्र मंथन के बाद कौन से कारगर रत्न को थाह से निकालकर लाता है जिससे स्थितियां सुधर सकें।
राजनीति में अपराधीकरण को रोकने के लिए उच्चतम न्यायलय पहले भी कई ठोस दिशा निर्देश जारी कर चुका है। जिनके तहत लोकसभा और विधानसभा चुनाव में प्रत्याशियों के लिए अनिवार्य किया गया है कि वे अपने आपराधिक मुकदमों का ब्यौरा नामांकन पत्र के साथ शपथ पत्र के रूप में दाखिल करें। इतना ही नही अब तो उच्चतम न्यायालय ने यह व्यवस्था कर दी है कि हर उम्मीदवार को अपना आपराधिक ब्यौरा तीन बार अखबारों में प्रकाशित कराना पड़ेगा और टीवी चैनल पर भी प्रसारित कराना पड़ेगा। इसके साथ-साथ नेताओं के खिलाफ चल रहे आपराधिक मुकदमों के लिए विशेष अदालतों का गठन और उनकी समयबद्ध सुनवाई की व्यवस्था भी उच्चतम न्यायालय ने करा दी है। जिससे कई प्रभावशाली सांसद और विधायक चुनाव लड़ने से वंचित हुए हैं। फिर भी इस संदर्भ में स्थिति मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों-ज्यों दवा की, के सदृश्य हैं।
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उच्चतम न्यायालय में याचिकाकर्ता के वकील ने हवाला दिया कि इन प्रयासों के बावजूद किस तरह आपराधिक पृष्ठभूमि के जनप्रतिनिधियों की संख्या बढ़ती जा रही है। 2014 में दागी सांसदों की संख्या 34 फीसदी थी जो बढ़कर अब 46 फीसदी हो गई है।
मजे की बात यह है कि राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिए सरकार व चुनाव आयोग के खिलाफ अवमानना याचिका के रूप में यह रिट भाजपा के ही एक नेता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने दायर की है। इसमें खुलासा किया गया है कि चुनाव आयोग ने उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के पालन में चकमेबाजी की है।
उच्चतम न्यायालय की मंशा को विफल करने के लिए उम्मीदवारों को मौका दिया गया कि वे अपना आपराधिक ब्यौरा कम प्रचलित छोटे स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित कराकर बरी हो लें। टीवी चैनलों पर यह ब्यौरा देर रात प्रसारित करके छुटटी पा ली गई जिसमें चुनाव आयोग की मूक सहमति रही। याचिकाकर्ता का आग्रह था कि इस चकमेबाजी के लिए चुनाव आयोग के खिलाफ अवमानना की कार्रवाई शुरू की जाये।
एक समय था जब शैशवावस्था के बावजूद भारतीय लोकतंत्र की अग्रसरता इतनी गरिमापूर्ण थी कि गुणवत्ता के मामले में दुनियां के सबसे चमकदार लोकतंत्र के रूप में उसकी तस्वीर उभर रही थी। इमरजेंसी के बावजूद यह तस्वीर मलिन नही हुई थी क्योंकि 1977 के चुनाव में सत्ता बदल के लिए संपूर्ण क्रांति के जिस एजेंडे को स्वीकार्यता मिली थी वह राजनीतिक सुधारों पर केंद्रित था। भावना यह थी कि देश का बहुरूप समाज लोकतंत्र की प्रयोगशाला में मथने के बाद जिन अंतर्विरोधों से गुजर रहा है वे स्वाभाविक हैं जिनकी बहुत चर्चा और परवाह न करते हुए लोकतंत्र के स्तर को बुलंदियों तक ले जाकर ऐसी बड़ी लाइन खीची जाये जिससे राजनीतिक तौर पर बेहद सुगठित एक रूप समाज का आकार लेना संभव हो सके।
इस कारण दलबदल, चुनाव में धनबल और बाहुबल के प्रभाव, जनप्रतिनिधियों की जबावदेही आदि मुददों पर बेहतरीन सुधार लागू करने की मंशा उस समय प्रमुख रही। जनता पार्टी सरकार में राजनीतिक सुधार की दिशा में बहुत कुछ किया गया। नेता प्रतिपक्ष को कैबिनेट का दर्जा दिया जाना, इमरजेंसी लागू करने के सरकार के अधिकार को लगभग शून्य कर दिया जाना आदि इसमें प्रमुख हैं। यह विमर्श बाद के वर्षों में भी जारी रहा, हालांकि इस बीच राजनीति में ऐसी ताकतें सिर उठा चुकी थीं जो कुरीतियों में अपने राजनैतिक स्वार्थ को तलाश करने वालीं थीं।
उच्चतम न्यायालय ने जब चुनावों में उम्मीदवारों के नामांकन पत्र के साथ अपने आर्थिक और आपराधिक ब्यौरे पर शपथ पत्र दाखिल करने की व्यवस्था बनाई तो चंद्रशेखर ने तकनीकी मुद्दा संसद में उठाकर उच्चतम न्यायालय को अर्दब में लेना चाहा। उन्होंने कहा कि उच्चतम न्यायालय ने शपथ पत्र की व्यवस्था करके कानून बनाने जैसी जुर्रत की है जबकि उसे ऐसा कोई अधिकार नही है। इस पर उच्चतम न्यायालय ने विनम्रता पूर्वक स्पष्ट किया कि उसने कोई नया कानून नही बनाया है। उच्चतम न्यायालय जानने के मौलिक अधिकार की व्यवहार्यता का ही विस्तार है।
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लेकिन इन प्रवृत्तियों के प्रभावी होते चले जाने के कारण राजनीति का विमर्श बदल गया। राजनैतिक सुधारों की अनुगूंज मंद होती चली गई। कटटरवादी सवालों के प्रमुख हो जाने से उदारता का प्रतिबिंब कहे जाने वाले लोकतंत्र की तासीर को लेकर भ्रम पैदा होने लगे। ऐसे में राजनैतिक सुधारों की झंडाबरदारी के लिए लोकतांत्रिक संस्थाओं से निराशा में उच्चतम न्यायालय की मुखापेक्षिता बढ़ना स्वाभाविक रहा।
अगर राजनैतिक दलों के हिसाब से विवेचन किया जाये तो क्षेत्रीय दलों का अपना अस्तित्व जमाने के लिए चुनाव आदि को कबीलाई मोड़ देना कुछ हद तक संगत था। समाजवादी पार्टी, लोकदल, राष्ट्रीय जनता पार्टी आदि का अस्तित्व ही बाहुबलियों पर आधारित था। लेकिन उनके लिए जो बातें क्षम्य हो सकती हैं वे भारतीय जनता पार्टी जैसी विचारधारा पर आधारित और जो पार्टी विद ए डिफरेंस का नारा लगाती हो उसके लिए यह मुफीद नही हो सकता। भारतीय जनता पार्टी से तो यह उम्मीद की गई थी कि पर्याप्त बहुमत मिलने के बाद अलग चाल, चरित्र और चिंतन का परिचय देने के लिए वह राजनीति की बदरंग तस्वीर को बदलेगी।
आज भारतीय जनता पार्टी के लिए इसका पर्याप्त अवसर है पर न तो वह राजनीति में स्वस्थ्य प्रतिमानों के विकास के लिए इच्छा शक्ति दिखा रही है न कोई प्रयास कर रही है। खुद भाजपा नेता अश्वनी कुमार उपाध्याय का राजनैतिक अपराधीकरण पर याचिका दायर करने के लिए आगे आना बताता है कि सत्तारूढ़ पार्टी के अपनों में भी इसे लेकर किस कदर मोहभंग की स्थिति बन रही है। उच्चतम न्यायालय से चुनाव आयोग द्वारा आग्रह किया गया है कि वह राजनैतिक पार्टियों से आग्रह करे कि वे आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को टिकिट ही न दें। लेकिन जब भाजपा जैसी पार्टी से संतई के लिए आगे आने की उम्मीद नही रही तो अन्य पार्टियों के लिए क्या कहा जाये। इस कारण राजनैतिक पार्टियों के जमीर पर सुधारों का मामला छोड़ा जाना बेकार है।
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पर अनुभव ने यह बात साबित कर दी है कि तकनीकी उपायों और कानूनों के सहारे श्रेष्ठ व्यवस्था के निर्माण के लिए बहुत आशा नही रखी जा सकती। कानून वहीं सफल हैं जहां समाज में 90 प्रतिशत लोगों के आचरण में पहले से उसकी चीजें शामिल हों। अगर समाज ऐसा नही हैं तो कानून का डंडा कुछ नही कर सकता। उदाहरण दलबदल विरोधी कानून है। इस कानून के बनने के बाद दलबदल की रफ्तार और तेज हुई है। इस मामले में भी उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में तीखीं टिप्पणियां की हैं जिनमें सदन के अध्यक्षों को दलबदल के बारे में फैसले के अधिकार के औचित्य पर विचार का आग्रह शामिल है।
दुनियां के अच्छे देश इसलिए अच्छे हैं क्योंकि वहां लोग अपनी व्यक्तिगत साख को लेकर सतर्क रहते हैं। संस्थाएं तभी साख बना पाती हैं जब उनमें इस स्तर के लोग शामिल हों। बिडंबना है कि इस देश में लोगों को अपनी साख की बजाय जाति और पार्टी की शक्ति की परवाह कहीं अधिक है।
सदन के अध्यक्ष इस पीठ के लिए चुने जाने के बाद अगर समझने लगे कि उनकी साख अब दल के दायरे से ऊपर हो चुकी है तो वे अपेक्षा के मुताबिक भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं। पीए संगमा और सोमनाथ चटर्जी को इस मामले में सतर्क होने की वजह से ही अविस्मरणीय सम्मान मिला। वहीं उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष रहे धनीराम वर्मा इस मामले में एक निकृष्ट उदाहरण हैं। जबकि ज्यादातर जगहों पर उन्हीं का अनुशीलन हो रहा है।
भारतीय जनता पार्टी का दावा है कि उसके सदस्यों की संख्या 18 करोड़ पर पहुंच गई है जो विश्व में सर्वाधिक है। भारतीय जनता पार्टी को इसके लिए धन्यवाद दिया जाना चाहिए। लेकिन क्या उसकी यह उपलब्धि सार्थक कही जा सकती है। वीपी सिंह प्रधानमंत्री के बतौर चुनाव में धनबल का प्रयोग रोकने के लिए काफी चितिंत रहे। उन्होंने चुनाव लड़ने के लिए सरकारी फंड की व्यवस्था का सुझाव दिया था। उनके प्रधानमंत्री न रहने के बाद भी इस पर बहस होती रही जो अब बंद हो गई है। इस बहस के बरक्स चुनाव का खर्चा बढ़ता चला गया।
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खर्चीलें चुनाव प्रचार की मुख्य वजह यह मानी जाती है कि पार्टियां सुव्यवस्थित नही हैं इसलिए तात्कालिक तड़क-भड़क से चुनावी संघर्ष को सिद्ध करने का प्रेशर उन्हें ढोना पड़ता है। इसलिए अगर भारतीय जनता पार्टी के पास 18 करोड़ सदस्य संख्या है तो चुनाव लड़ने के लिए उसके पास इतना व्यवस्थित तंत्र उपलब्ध होना चाहिए कि उसे सम्मोहक चुनावी प्रचार के घमासान का सहारा लेने की जरूरत ही न पड़े।
लेकिन क्या वह ऐसा कर पाई। हालत यह है कि सत्तारूढ़ पार्टी का चुनावी खर्च पिछले चुनावी खर्चों से कई 100 गुना ज्यादा है जिसके चलते देश उन कारपोरेट ड्रैगनों का बंधक हो चुका है जो पर्दे के पीछे इस बोझ को उठा रहे हैं। फिर भी कानूनों से बहुत उम्मीद रखने की बजाय लोकतंत्र की उच्च परंपराओं को स्थापित करने का दबाव राजनैतिक दलों पर बनाने की जरूरत है। जाहिर है कि इसके लिए शुरूआत भाजपा से ही करनी होगी क्योंकि उसका इतिहास और उसके बारे में ऐसी धारणायें व्याप्त हैं जिससे इसके लिए उसको झकझोरना ज्यादा कारगर साबित हो सकता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)