कृष्णमोहन झा
जैसा कि पहले से ही तय माना जा रहा था कि जगत प्रकाश नड्डा भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष पद पर निर्विरोध निर्वाचित होंगे और विगत दिवस वे भाजपा के ग्यारहवें अध्यक्ष बन गए हैं। इस पद पर वे अमित शाह के उत्तराधिकारी के रूप में तीन वर्ष के लिए चुने गए हैं।
गत वर्ष मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में जब अमित शाह को केंद्रीय गृह मंत्री के पद की जिम्मेदारी मिली थी, तब ही से नड्डा भाजपा के कार्यवाहक अध्यक्ष के रूप में पार्टी का नेतृत्व कर रहे थे। वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एवं गृहमंत्री अमित शाह की पहली पसंद रहे हैं। इसलिए उनका अध्यक्ष पद पर निर्विरोध निर्वाचन सुनिश्चित माना जा रहा था।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एवं केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने पार्टी के नए अध्यक्ष को बधाई और शुभकामनाएं देते हुए कहा कि नड्डा के नेतृत्व में पार्टी नई ऊंचाइयों को स्पर्श करने में सफल होगी और इसका और विस्तार होगा। प्रधानमंत्री और केंद्रीय गृह मंत्री से नड्डा की निकटता को देखते हुए इसमें दो राय नहीं हो सकती कि उन्हें न केवल संगठन, बल्कि सरकार का भी पूरा सहयोग मिलेगा।
जेपी नड्डा के सामने कड़ी चुनौतियां
जगत प्रकाश नड्डा ने विश्व की सबसे बड़ी पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने का गौरव तो जरूर अर्जित कर लिया है, परंतु उनके सामने कठिन चुनौतियां भी खड़ी है। अमित शाह जब से भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने थे, तब से पार्टी का ग्राफ निरंतर ऊंचा उठ रहा था
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की करिश्माई लोकप्रियता और अमित शाह के रणनीतिक कौशल ने भाजपा के गौरवशाली युग की स्वर्णिम शुरुआत की थी। भाजपा का महाराष्ट्र, हरियाणा और त्रिपुरा में सत्ता निर्वासन समाप्त हुआ था। त्रिपुरा में भाजपा की सरकार बनना सबको हैरान कर गया, जहां वामपंथी दलों को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाना हमेशा से ही असंभव माना जाता था,
परंतु मोदी और शाह की जोड़ी ने यह करिश्मा करने में सफलता अर्जित की तो सारे विपक्षी दलों को दांतो तले उंगली दबाने के लिए विवश होना पड़ा।
बज चुकी है खतरे की घंटी
भाजपा के लिए वर्ष 2018 के अंत में संपन्न हुए राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभाओं के चुनावों में जो खतरें की घण्टी बजी थी, वह अभी तक शांत होने का नाम नहीं ले रही है। 2019 के लोकसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता में वापसी करने के बावजूद महाराष्ट्र और झारखंड में सत्ता उसके हाथ से छीन गई ।
हरियाणा में सत्ता की खातिर उसे विरोधी दल से समझौता करने के लिए मजबूर होना पड़ा और महाराष्ट्र में उसके सहयोगी दल शिवसेना ने मुख्यमंत्री की कुर्सी की खातिर उससे नाता ही तोड़ लिया। महाराष्ट्र में तो पार्टी ने अपनी प्रतिष्ठा गवा दी , वही झारखंड में उसके सहयोगी उसका साथ छोड़कर चले गए।
इस साल के अंत में बिहार विधानसभा के जो चुनाव होने हैं, उनमे अपने सहयोगी दल जनता यूनाइटेड को हर हाल में संतुष्ट रखना है। जेडीयू ने तो अभी से यह संकेत देने शुरू कर दिए हैं कि बिहार विधानसभा के आगामी चुनाव में वह बड़े भाई की भूमिका छोड़ने के लिए कतई तैयार नहीं होगी।
नीतीश की इस शर्त को मानने के अलावा और कोई विकल्प भाजपा को नही दिखता है। पार्टी को इस कड़वी हकीकत का भली-भांति एहसास हो चुका है कि नीतीश कुमार को नाराज करके वह अपनी राह आसान नहीं बना सकती।
चुनौतियों से पार पाना आसान नहीं
कहने का तात्पर्य यह है कि पार्टी के नए अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा को अपने तीन साल के कार्यकाल में ऐसी चुनौतियों से जूझना है, जिनसे पार पाना आसान नहीं है। कुछ विधानसभा के चुनाव में पराजय झेलने के बाद पार्टी के कार्यकर्ताओं का मनोबल भी प्रभावित हुआ है।
सबसे बड़ी बात यह है कि पार्टी को यह एहसास हो चुका है कि केंद्र की मोदी सरकार द्वारा दूसरे कार्यकाल के प्रथम वर्ष में किए गए साहसिक एवं ऐतिहासिक फैसलों के बल वह राज्य विधानसभा के चुनाव में अपेक्षित सफलता अर्जित नहीं कर सकती हैं ।
जनता से जुड़े मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करना जरुरी
जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 के निष्प्रभावीकरण ,नागरिकता संशोधन कानून और तीन तलाक की कुप्रथा को समाप्त करने के लिए बनाए गए कानून को विधानसभाओं में चुनाव जीतने की गारंटी नहीं माना जा सकता। इसलिए पार्टी को राज्य की जनता से जुड़े मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना होगा।
इसके लिए भाजपा के नए अध्यक्ष को यह तय करना होगा कि जिन राज्यों में भाजपा के हाथों से सत्ता फिसल चुकी है, वहां की सरकारों का सख्त विरोध करने के लिए जनता से जुड़े ऐसे मुद्दों की तलाश करें, जिसके बल पर जनता का समर्थन पुनःजुटाया जा सके।
जगत प्रकाश नड्डा के नेतृत्व कौशल की सबसे पहली परीक्षा तो निकट भविष्य में संपन्न होने जा रहे दिल्ली प्रदेश विधानसभा के चुनाव में होगी। यह परीक्षा किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं है। चुनाव पूर्व के सारे सर्वेक्षणों के नतीजे भाजपा को सकते में डालने के लिए काफी है। गत चुनाव में भाजपा मात्र तीन सीटों पर ही जीत का स्वाद चख पाई थी।
दिल्ली की जीत नड्डा के खाते में ‘
अतः भाजपा आम आदमी पार्टी के हाथों से सत्ता की बागडोर सीने में अगर सफलता अर्जित कर लेती है तो उसे चमत्कारिक ही माना जायेगा, जिसका श्रेय नड्डा के खाते में ही दर्ज होगा, परंतु दिल्ली में यह चमत्कारिक सफलता पाने के लिए नड्डा के पास बहुत कम वक्त है।
उन्हें चुनाव में मोदी की लोकप्रियता पर ही निर्भर रहना होगा। इस सत्य से तो नड्डा भी भलीभांति वाकिफ है कि दिल्ली प्रदेश विधानसभा के गत चुनाव के वक्त भी केंद्र में मोदी सरकार ही थी, तब भी भाजपा को मात्र तीन सीटों से संतुष्ट होना पड़ा था।
भाजपा के नए अध्यक्ष को बिहार विधानसभा के आगामी चुनाव के समय जदयू के साथ अपनी पार्टी का संतुलन बिठाने में भी अपने रणनीतिक कौशल का परिचय देना होगा। गत विधानसभा चुनाव के बाद से अनेक मुद्दों पर भाजपा के साथ अपने मतभेदों को उजागर करने में नीतीश कुमार ने कोई संकोच नहीं किया है।
मौजूदा चुनाव में भी नीतीश कुमार अपनी पार्टी के लिए भाजपा से अधिक सीटें मांग सकते हैं, जिसके संकेत अभी से मिलने लगे हैं। उस समय नड्डा नीतीश कुमार को किस तरह साध पाते हैं, इसमें उनके रणनीतिक कौशल की एक और परीक्षा होगी। पश्चिम बंगाल में भाजपा अभी से यह मानकर चल रही है कि राज्य के आगामी विधानसभा चुनाव में वह तृणमूल कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने में सफल हो जाएगी।
ममता को मिल सकती है कड़ी चुनौती
पश्चिम बंगाल में गत लोकसभा चुनाव में उसने जो ऐतिहासिक सफलता प्राप्त की थी, उसके बाद पार्टी का मनोबल बहुत ऊंचा है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी इस हकीकत से अच्छी तरह वाकिफ है कि आगामी चुनाव में उनकी पार्टी को सबसे कठिन चुनौती भाजपा से ही मिलने वाली है। इसलिए वे अभी से आक्रमक रुख अपनाए हुए हैं।
नागरिकता संशोधन कानून और एनसीआर को लेकर वह पश्चिम बंगाल में रोजाना रैलिया निकाल रही है। वाममोर्चा और कांग्रेस भी उससे इस मुद्दे पर सहमत हैं। अतः भाजपा के नए अध्यक्ष को अपनी पार्टी को पश्चिम बंगाल विधानसभा के आगामी चुनाव में सत्ता की दहलीज तक पहुंचाने के लिए अभी से सक्रिय प्रयास करने होंगे।
आर्थिक सुस्ती को लेकर विपक्ष हमलावर
देश में आर्थिक सुस्ती को लेकर मोदी सरकार पर विपक्ष जो हमले कर रहा है, उनको निष्प्रभावी करना भी नड्डा के लिए एक बड़ी चुनौती है। भारतीय जनता पार्टी ने नागरिकता संशोधन कानून के पक्ष में देशभर में रैलियां निकालकर जनता को जागरूक करने का जो अभियान चला रखा है ,उसे सही दिशा देकर परिणीति के बिंदु तक ले जाने की जिम्मेदारी भी उनकी ही होगी।
इस अभियान को सफल बना कर मोदी सरकार बिना किसी दिक्कत के राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर का काम भी प्रारंभ कर सकती है, लेकिन इसके पूर्व भाजपा को नागरिकता संशोधन कानून को लेकर विपक्ष द्वारा फैलाया जा रहे भ्रम को जनता के मन से निकालना होगा।
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देशभर में पार्टी द्वारा निकाली जा रही रैली की सफलता इसी बात से तय होगी कि इस कानून को लेकर विपक्ष के अभियान पर कब विराम लगता है। नड्डा के लिए यह चुनौती भी आसान नहीं है।
भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष का कार्यकाल तीन वर्ष
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष का कार्यकाल तीन वर्षों का होता है। नड्डा का कार्यकाल जब समाप्त होगा ,उसके अगले वर्ष लोकसभा के चुनाव संपन्न होंगे। इन तीन वर्षों के कार्यकाल में नड्डा भारतीय जनता पार्टी को किन ऊंचाइयों पर पहुंचाने में सफल होते हैं ,उसी से यह तय हुआ कि अगले लोकसभा चुनाव में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद की बागडोर किन हाथों में रहती है ।
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वैसे आमतौर पर पार्टी के अधिकांश अध्यक्षों को लगातार दो कार्यकाल मिलते रहे हैं, इसलिए प्रबल संभावना तो यही है कि नड्डा के अध्यक्ष पद पर रहते हुए ही पार्टी आगामी लोकसभा चुनाव के मैदान में उतरेगी।
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एवं केंद्रीय ग्रह मंत्री अमित शाह ने उन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जाने की जो पहल की थी, उसका आधार नड्डा की सांगठनिक क्षमता और नेतृत्व कौशल की बड़ी भूमिका को माना जाता है। अतः अब यह माना जा सकता है कि पार्टी अपने नए अध्यक्ष की खूबियों के बल पर सारी कठिन चुनौतियों से पार पाने में सफल होगी।