कृष्णमोहन झा
इन दिनों नागरिकता संशोधन कानून के पक्ष और विपक्ष में देशभर में रैलिया धरना प्रदर्शन और जनसंपर्क अभियानों का जो सिलसिला चल रहा है, वह कब और किस बिंदु पर जाकर थमेगा, इस बारे में कुछ भी निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता है।
इस नए कानून के विरोध में विपक्षी दलों के विरोध प्रदर्शनों के जल्द ही शांत हो जाने की सरकार की उम्मीदों पर पानी फिर गया तो मोदी सरकार और उसकी मुखिया पार्टी भारतीय जनता पार्टी को यह चिंता सताने लगी है कि विपक्षी दल इस कानून को लेकर देशभर में भ्रम का माहौल निर्मित करने में सफल हो सकते हैं।
इसलिए उसने भी देशभर में रैलियों एवं जनसंपर्क के माध्यम से लोगों को यह समझाने की कोशिश शुरू कर दी है कि नागरिकता संशोधन कानून ना तो संविधान विरोधी है और ना ही इस कानून के लागू होने से देश में किसी वैध नागरिक की नागरिकता जाने का खतरा है।
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सरकार एवं संगठन की मंशा से केंद्र सरकार के मंत्रियों विभिन्न भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों, राज्य सरकार के मंत्रियों, भाजपा के प्रदेश अध्यक्षों सहित संगठन के नेताओं को यह काम सौंपा गया है कि वे जन जागरूकता रैलियों के माध्यम से इस नए कानून के बारे में लोगों के मन में व्याप्त उस भय और चिंता को निर्मूल सिद्ध करें, जो कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों द्वारा निर्मित की गई है।
पूरी भाजपा नीत केंद्र सरकार विभिन्न भाजपा शासित राज्य सरकारों और समूचे भाजपा संगठन को इस अभियान में जुड़ने की अपरिहार्यता इसलिए महसूस हो रही है कि नागरिकता संशोधन कानून के प्रावधानों ने थके हारे विपक्ष को सरकार पर हमले का मौका दे दिया है।
विपक्ष के इस आंदोलनों का कई विश्वविद्यालयों तक भी असर दिखने लगा है। इस सारे विरोध के बीच भाजपा के अध्यक्ष और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यदि देश के सारे विपक्षी दल भी इस कानून के विरोध में एकजुट हो जाए तो भी वर्तमान केंद्र सरकार इस कानून को न तो वापस लेगी और न ही इसमें किंचित भी बदलाव करेगी।
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह स्वयं भी इस कानून के पक्ष में आयोजित की जाने वाली जन जागरूकता सभाओं को संबोधित कर चुके हैं और देश के कई प्रमुख शहरों में उनकी जनसभाओं के आयोजन का कार्यक्रम तय किया जा चुका है।
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भारतीय जनता पार्टी के नेता एवं कार्यकर्ता देशभर में तीन करोड़ परिवारों से मिलकर उन्हें समझाएंगे की नागरिकता संशोधन कानून को लेकर भयभीत अथवा चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है। किसी भी वैध नागरिक की नागरिकता इस कानून के द्वारा छीनने की सरकार की कोई मंशा नहीं है। इसका उद्देश्य केवल पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में उत्पीड़न का शिकार गैर मुस्लिम लोगों को भारत की वैध नागरिकता प्रदान करना है, जो 31 दिसंबर 2014 के पूर्व भारत में शरण ले चुके थे।
दरअसल इस गैर मुस्लिम शब्द ने ही विपक्षी दलों को सरकार के विरुद्ध माहौल बनाने का ऐसा मुद्दा उपलब्ध करा दिया, जिसे वे किसी भी कीमत पर हाथ से जाने नहीं देना चाहते। विपक्षी दलों का एक ही मकसद है कि मोदी सरकार पर मुसलमान विरोधी होने का ऐसा आरोप चश्पा कर दिया जाए, जिसे निर्मूल सिद्ध करने में केंद्र सरकार और भाजपा को पसीना आ जाए और फिर भी वह सफल ना हो पाए।
इसलिए पूरी केंद्र सरकार भाजपा शासित राज्यों की सरकारों और भाजपा संगठन को मोर्चा संभालना पड़ा। इस काम में उसका हाथ बटाने के लिए संघ को भी आगे आना पड़ा। विपक्ष के आंदोलन से सरकार की चिंता को समझना कठिन नहीं है।
भाजपा के लिए चिंता की एक बड़ी वजह तब बनी, जब मध्य प्रदेश के भोपाल में भाजपा के अल्पसंख्यक मोर्चा के कुछ पदाधिकारियों ने नागरिकता संशोधन कानून और एनपीआर के विरोध में अपने विचार खुलकर व्यक्त किए। इसके बाद भाजपा को यह बयान देने के लिए मजबूर होना पड़ा कि ऐसा भ्रम की वजह से ऐसा हुआ है। सही तथ्य जानने के बाद सब ठीक हो जाएगा। जिन नेताओं को सत्यता की जानकारी नहीं, वही ऐसा कर रहे हैं। अभी स्थिति यह बन चुकी है कि केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त किए गए राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को अब इस बात की जरूरत महसूस होने लगी है कि नागरिकता संशोधन कानून और एनपीआर को लेकर मुस्लिम समाज में पैदा हुई गलतफहमी को दूर करने के लिए उसे भी पहल करनी होगी।
आयोग ने इस भ्रम और भय को दूर करने के लिए देश के प्रमुख शहरों में संगोष्ठियां आयोजित करने का निश्चय किया है जिसमें मुख्य रूप से इमामों, बुद्धिजीवियों एवं मुस्लिम समुदाय के अग्रणी नेताओं को शिरकत करने के लिए आमंत्रित किया जाएगा। दरअसल यह संगोष्ठी उत्तर प्रदेश में विशेष रूप से आयोजित की जाएगी ,जहां इस कानून के विरोध में बड़े पैमाने पर हिंसा और तोड़फोड़ की वारदातें हुई है।
प्रस्तावित एनआरसी एवं नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में विपक्षी दलों की गतिविधियों से अब यह संभावनाएं धूमिल पड़ती दिखाई देने लगी है कि इस कानून के विरोध में बना माहौल धीरे-धीरे स्वतः ही शांत पड़ जाएगा।
भाजपा और मोदी सरकार को भी शायद यही आशंका सताने लगी है कि नए साल में विपक्षी दलों की एकजुटता कहीं और मजबूत न बन जाए। वैसे मोदी सरकार के लिए संतोष की बात यह हो सकती है कि नागरिकता संशोधन कानून एवं एनआरसी का सर्वाधिक मुखर विरोध करने वाली ममता बनर्जी ने इस मुद्दे पर दिल्ली में कांग्रेस की और से बुलाई गई बैठक में भाग नहीं लिया। उन्होंने यह फैसला इसलिए किया क्योंकि उनकी सरकार पश्चिम बंगाल में इस कानून के विरोध में हुए आंदोलन में बड़े पैमाने पर हुई तोड़फोड़ और आगजनी की घटनाओं में कांग्रेस और वामदलों का ही हाथ मानती है।
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नागरिकता संशोधन कानून एवं एनआरसी का विरोध करने वालों में अब पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा भी शामिल हो गए है। उन्होंने गत दिनों मुंबई के गेट इंडिया से 3000 किलोमीटर लंबी शांति यात्रा प्रारंभ की है, जिसे एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार ने हरी झंडी दिखाकर रवाना किया है। इस मौके पर कांग्रेस के नेता एवं पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चौहान भी मौजूद थे। यशवंत सिन्हा की यह यात्रा दिल्ली में राजघाट पर समाप्त होगी। सिन्हा कहते हैं कि वह यात्रा के मार्ग में लोगों से मिलकर उन्हें नए कानून से होने वाले नुकसान के बारे में समझाएंगे । गौरतलब है कि यशवंत सिन्हा पर पहले भी मोदी सरकार के अनेक फैसलों से अपनी असहमति जता चुके हैं। मोदी सरकार में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी ना मिलने पर उन्होंने अपनी पीड़ा यह कहते व्यक्त की थी कि 75 साल से अधिक आयु के नेताओं को पार्टी में ब्रेन डेड मान लिया गया है।
नागरिकता संशोधन कानून का विरोध करने वाले को मोदी सरकार भले ही उपकृत करने के लिए तैयार नहीं हो, परंतु देश के 100 से भी अधिक पूर्व नौकरशाहों के द्वारा भी इस कानून के विरोध में आवाज उठाई जाने से विपक्ष में में नया उत्साह अवश्य ज्यादा होगा। दिल्ली प्रदेश के पूर्व लेफ्टिनेंट गवर्नर नजीब जंग, पूर्व कैबिनेट सचिव केएम चंद्रशेखर तथा पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला सहित 100 से अधिक पूर्व नौकरशाहों की राय में सरकार का यह कदम अनावश्यक और खर्चीला है। उनका कहना है कि इसको लागू करने में लगने वाली धनराशि का उपयोग देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए करना अधिक उपयुक्त होगा। इन पूर्व नौकरशाहों ने कहा कि जब अधिकांश राज्य सरकारें इस नए कानून को लागू करने से इंकार कर चुकी है, तब इसे लागू करने से देश के संघीय ढांचे पर भी असर पड़ने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है। पूर्व नौकरशाहों ने यह भी आशंका जताई है कि सरकार के इस कदम से भारत के प्रति अंतरराष्ट्रीय जगत की गुडविल भी प्रभावित हो सकती है।
नागरिकता संशोधन कानून के पक्ष विपक्ष में रोज-रोज निकलने वाली रैलियों धरना प्रदर्शनों के निकट भविष्य में थमने के कोई आसार नहीं है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह बार बार यह कह चुके हैं कि सरकार इस मुद्दे से एक कदम भी पीछे नहीं हटेगी। विपक्षी दल भी इस मुद्दे को छोड़ने के लिए कतई तैयार नहीं है।
विपक्षी दलों को ऐसा महसूस हो रहा है कि देश में इस कानून के विरुद्ध माहौल बनाकर वह अपनी खोई ताकत हासिल करने में सफल हो सकते हैं। जाहिर सी बात है कि सरकार और विपक्ष दोनों में से कोई भी झुकने के लिए तैयार नहीं है। इन सब के साथ पूर्व नौकरशाहों, विश्वविद्यालयीन छात्रों एवं यशवंत सिन्हा जैसे पुराने नेताओं का एक नया पक्ष भी इस कानून के विरोध में सामने उतर आया है। ऐसे में उम्मीद की एक किरण सर्वोच्च न्यायालय की ओर से दिखाई देती है, परंतु सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एम ए बोबडे की अध्यक्षता वाली पीठ ने साफ कर दिया है कि इस कानून की वैधता वाली सारी याचिकाओं पर सुनवाई तब तक शुरू नहीं की जाएगी, जब तक इस देश में इस कानून को लेकर हो रही हिंसा पूरी तरह थम नहीं जाती। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की इस टिप्पणी पर निश्चित रूप से गौर किया जाना चाहिए कि देश बहुत कठिन दौर से गुजर रहा है। बहुत हिंसा हुई है, अब शांति स्थापना के प्रयास होने चाहिए।
सवाल ये उठता है कि देशभर में पिछले एक माह से चले आ रहे हैं धरना प्रदर्शनों और रैलियों का सिलसिला थमे बगैर क्या शांति स्थापित हो सकती है। जब कोई भी पक्ष सुलह के लिए तैयार ना हो, तब शांति स्थापना के प्रयासों की पहल कौन करेगा। इस टकराव की स्थिति को तभी टाला जा सकता है जब सभी पक्ष एक साथ बैठकर सार्थक संवाद करें। इसके लिए तो पहल सरकार को ही करनी होगी और यदि सरकार पहल करती है तो विपक्ष की ओर से भी सकारात्मक प्रतिउत्तर मिलना चाहिए।
फिलहाल तो ऐसे कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं, लेकिन इतना तो तय है कि देश में इस समय जो माहौल है उस पर GC सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी पूरी तरह से जायज है। सब कुछ अपने आप सामान्य नहीं हो सकता। समस्या कितनी भी गंभीर क्यों ना हो ,विरोध कितना भी सशक्त क्यों ना हो। हिंसा और तोड़फोड़ की एक स्वस्थ और परिपक्व लोकतंत्र में कोई जगह नहीं होना चाहिए। इस सत्य को सभी पक्षों को स्वीकार करना ही होगा।
(लेखक WDS के राष्ट्रीय अध्यक्ष और IFWJ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष है )