Monday - 28 October 2024 - 8:01 PM

गैरराजनीतिक विरोध की मिसाल बनी शाहीनबाग की महिलाएं

प्रीति सिंह

कहते हैं कि जहां सड़के खामोश होती हैं वहां शासन आवारा हो जाता है। भारत के परिप्रेक्ष्य में ऐसा ही कुछ है। पिछले छह साल से भारत की सड़कें खामोश थी। शायद इसीलिए सरकार की मनमानी चरम पर पहुंच गई, लेकिन कहते हैं न देर आए दुरुस्त आए।

नागरिक संसोधन बिल पास होने के बाद से भारत की सड़कें गुलजार हैं। इसके विरोध में लोग सड़क पर उतर गए हैं। एक ओर आम जनता है तो दूसरी ओर केन्द्र सरकार। पिछले एक माह से देश के अधिकांश राज्यों में सीएए और एनआरसी के विरोध में प्रदर्शन हो रहा है।

इस बार देश में जो आंदोलन हो रहा है वह कई मायनों में बहुत दिलचस्प है। शायद भारत के इतिहास में यह पहला मौका होगा कि इतनी भारी संख्या में महिलाएं आंदोलन में भाग ले रही है। यह पहला मौका है जब दादी से लेकर पोती तक अंदोलन का हिस्सा है। दिल्ली के जामिया की छात्राएं हो या दिल्ली के शाहीनबाग में पिछले एक माह से आंदोलन कर रही महिलाए, यहां एक अलग ही भारत देखने को मिल रहा है।

दिल्ली का शाहीनबाग पिछले एक माह से इस कड़ाके की ठंड में गुलजार है। भारी संख्या में महिलाएं और बच्चे हाथों में तख्ती लिए यहां नागरिकता संसोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिक पंजी के खिलाफ आंदोलनरत हैं। यहां राष्ट्रगान से लेकर इंकलाब-जिंदाबाद के नारे आपको सुनाई देंगे। दरअसल ये नारे ही इन्हें मोदी सरकार और ठिठुरती ठंड से लडऩे की हिम्मत दे रहे हैं।

इन महिलाओं के हौसले बुलंद हैं, तभी तो हाड़ कपाती ठंड भी उन्हें धरनास्थल पर आने से नहीं रोक पा रही है। दरअसल उन्हें अपने मुस्तकबिल से ज्यादा अपने बच्चों के मुस्तकबिल की चिंता है। उन्हें इस बात का बखूबी अहसास है कि इस कानून से उनके परिवार को परेशानी हो सकती है।

शाहीनबाग का यह आंदोलन कई मायनों में अलग है। पहली बात की इस आंदोलन का नेतृत्व महिलाएं कर रही है। यह वही महिलाएं है जो तीन तलाक कानून लागू होने पर बहुत खुश थी और मोदी सरकार की तारीफ करते नहीं थक रही थी। दूसरी बात इस आंदोलन का नेतृत्व महिलाएं कर रही है। ये आम महिलाएं जो घरों में अपने काम-काज निपटाने के बाद कड़कड़ाती सर्द रातों में संविधान बचाने की लड़ाई सड़कों पर लड़ रही हैं। इसलिए तो दिल्ली के शाहीनबाग का संघर्ष अब देश के अन्य राज्यों तक भी पहुंच रहा है।

नागरिक संसोधन कानून और एनआरसी को लेकर पूरे देश में विरोध-प्रदर्शन हुआ। आम आदमी से लेकर राजनीतिक दलों ने इसके विरोध में प्रदर्शन किया, लेकिन अधिकांश विरोध-प्रदर्शन सरकार के दबाव में खत्म हो गया। जिन आंदोलन का नेतृत्व पुरुषों के हाथ में था उसमें कुछ ही अभी तक चल रहा है, लेकिन महिलाओं के नेतृत्व वाले आंदोलन आज भी बदस्तूर शांतिपूर्वक जारी है।

सीएए के विरोध में दिल्ली के शाहीन बाग जैसी एक गुमनाम जगह पर चल रहा ये आंदोलन कई मायनों में दिलचस्प है। यहां आ रही महिलाओं का तरीका शांत है। वो उग्र नहीं हैं। ये किसी को पत्थर नहीं मार रहीं हैं। इनके हाथ में लाठी डंडे और तमंचे भी नहीं हैं। जमीन पर बैठकर प्रदर्शन करने वाली इन महिलाओं और लड़कियों के हाथों में प्लेकार्ड है। ये पोस्टर और पैम्पलेट लेकर प्रदर्शन कर रही हैं। अब ऐसी ही तस्वीर उत्तर प्रदेश, बिहार और कोलकाता में भी देखने को मिल रही है।

उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में एक ओर माघ मेले की तैयारी चल रही है तो वहीं दूसरी ओर मंसूर अली पार्क में हजारों की संख्या में महिलाएं सीएए और एनआरसी के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर रही हैं। 12 जनवरी को प्रयागराज के रोशनबाग में भी सीएए के खिलाफ बगावत दिखी। इस कड़कड़ाती ठंड में यहां सैकड़ों की संख्या में महिलाएं अपने बच्चों के साथ रात भर ठंड में बैठी रहीं। इस दौरान इन लोगों ने देशभक्ति गीत गाया, इंकालाब-जिंदाबाद के नारे लगाया और सीएए-एनआरसी के खिलाफ नारेबाजी भी की।

प्रदर्शन करने वाली महिलाओं का कहना है कि सीएए एक काला कानून है। केंद्र की बीजेपी सरकार एनआरसी के माध्यम से मुस्लिमों का उत्पीडऩ करना चाहती है। देश के संविधान की जगह अपनी विचारधारा लोगों पर थोपना चाहती है। जब संविधान सबको बराबरी का अधिकार देता है, किसी में कोई भेदभाव नहीं करता तो सरकार धर्म के आधार पर कैसे लोगों को नागरिकता दे सकती है।

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प्रयागराज में आंदोलन शुरु करने वाली सारा अहमद का कहना है कि ‘अब पानी सर से ऊपर जा चुका है। मर्द हक-हकूक की आवाज उठा रहे हैं तो पुलिस उन्हें जेलों में बंद कर दे रही है। उन पर जुल्म कर रही है। इसलिए अब हम औरतों को संविधान बचाने के लिए सड़कों पर उतरना पड़ा है। दिल्ली के शाहीनबाग, कानपुर समेत कई जगहों पर हमारी बहने लगातार संघर्ष कर रही हैं, इस ठंड में सरकार से लड़ रही हैं, ऐसे में भला इलाहाबाद में हम कैसे चैन से बैठ सकते हैं।’

वहीं तरन्नुम खान कहती है ‘ये लड़ाई सिर्फ मुसलमानों की नहीं है, पूरे देश की है और इसलिए संविधान बचाने के लिए आज हमारे साथ 80 साल की बुजुर्ग महिलाओं से लेकर छोटे बच्चे भी प्रदर्शन में बैठे हैं। हमारा मकसद सबको ये बताना और समझाना है कि ये कानून कैसे एक समुदाय के साथ भेदभाव करता है, कैसे संविधान विरोधी है। हमने शुरुआत महज़ 40-45 महिलाओं से की थी, लेकिन रात होते-होते संख्या हजार पार कर गई। हमारा प्रदर्शन अनिश्चितकालिन है और हम सरकार की मनमानी के आगे डटकर खड़े रहेंगे।’

जाहिर है शाहीनबाग का संघर्ष धीरे-धीरे देश के अन्य राज्यों में भी दिखने लगा है। ये महिलाएं एक-दूसरे से प्रेरणा लेकर सरकार से टक्कर लेने के मूड में आ गई हैं। इन्हें न सरकार से डर है और न ही पुलिस से। ये अपने हक-हकूक के लिए डटकर खड़ी हैं। इन्हें समाज के हर तबके का समर्थन मिल रहा है। बॉलीवुड से लेकर प्रवुद्ध वर्ग की महिलाएं इनके समर्थन में खुलकर आ गई हैं। फिलहाल ये अपने मंसूबे में कितना कामयाब हो पायेगी या नहीं, यह तो वक्त बतायेगा लेकिन एक बात तो तय है कि जब भी आंदोलन का जिक्र होगा तो शाहीनबाग के आंदोलन को जरूर याद किया जायेगा।

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