शबाहत हुसैन विजेता
जिस जेएनयू की रैंकिंग नम्बर वन है। प्रशासनिक सेवाओं में जिसने देश को सबसे ज़्यादा प्रतिभाएं दीं। जो विश्वविद्यालय अभिव्यक्ति की आज़ादी का सलीक़ा सिखाता है। जो विश्वविद्यालय दुनिया के सामने सीना तानकर खड़े होने का तरीका सिखाता है। वह आज तरह-तरह के आरोपों से घिर गया है। उसे देशद्रोही के तमगे से नवाज़ा जा रहा है। उसे टुकड़े- टुकड़े गैंग का संस्थान बताया जा रहा है।
सियासी हवाओं का पूरा का पूरा रुख जेएनयू की तरफ घूम चुका है। ऐसी आवाजें भी मुखर होने लगी हैं कि इस विश्वविद्यालय को बंद कर दिया जाये।
जेएनयू के स्टूडेंट्स का विरोध वास्तव में सियासी नहीं बल्कि बेतहाशा हुई फीस बढ़ोत्तरी के खिलाफ था। स्टूडेंट्स का मानना है कि अगर इतनी ज़्यादा फीस बढ़ जायेगी तो गरीब बच्चे इस विश्वाविद्यालय में पढ़ ही नहीं पायेंगे। विरोध की इन आवाजों को दबाने के लिये जो तरीका अपनाया गया उसने आग में घी का काम किया। अब स्टूडेंट्स वाइस चांसलर को हटाने की मांग पर अड़े हैं। उनका मानना है कि जो कुछ भी हुआ उसमें जेएनयू प्रशासन की भी सहमति थी।
मज़े की बात यह है कि जो सियासी लोग इसी जेएनयू से कम फीस में पढ़कर बाहर निकले वह खुद भी फीस में बढ़ोत्तरी का समर्थन कर रहे हैं। वह भी नहीं चाहते कि कोई स्टूडेन्ट बीस रुपये महीने किराये पर हॉस्टल में रहकर पढ़ाई करे। जेएनयू में चालीस फीसदी ऐसे स्टूडेन्ट हैं जो फीस बढ़ जाने के बाद विश्वविद्यालय छोड़ने पर मजबूर हो जायेंगे।
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आम आदमी के टैक्स से चलने वाली यूनिवर्सिटी में किसी गरीब का बच्चा पढ़कर अगर तरक्की का आसमान छू लेता है तो किसी को भी दिक्कत नहीं होनी चाहिये लेकिन दिक्कत भी बस यही है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि जो आग चिराग के रूप में घर में रौशनी करती है वही घर को जलाकर भस्म भी कर सकती है। यह बात आज बिल्कुल सच होती नज़र आ रही है कि जो विश्वविद्यालय देश को तमाम प्रतिभाएं देता रहा है वहाँ पर आज़ादी- आज़ादी के नारे गूंज रहे हैं। इक्ज़ाम की तैयारी के बजाय स्टूडेंट्स जेएनयू के हमलावरों की गिरफ्तारी और वीसी को हटाने की माँग को लेकर सड़कों पर संघर्ष कर रहे हैं।
जेएनयू का आंदोलन दिल्ली की एक यूनिवर्सिटी का आंदोलन है। देश की तमाम यूनीवर्सिटी में इस तरह के आन्दोलन होते ही रहते हैं लेकिन इस यूनीवर्सिटी के आंदोलन में पूरा देश शामिल हो गया है। कोई इसके समर्थन में खड़ा है तो कोई इसके विरोध में।
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हालात इतने बदतर हो चुके हैं कि दीपिका पादुकोण जेएनयू स्टूडेंट्स के मंच पर चली जाती हैं तो बड़ी तादाद में लोग उनकी फिल्म छपाक के विरोध में खड़े हो जाते हैं। विरोध समझ में आता है लेकिन ऐसा अंधा विरोध किस काम का जिसमें विरोध से तमाम चीजों के मायने ही बदल जाते हैं। छपाक उस मानसिकता के विरोध में बनी फिल्म है जिसमें कुछ मानसिक बीमार जीती- जागती लड़की के चेहरे पर तेज़ाब फेंककर भाग जाते हैं। तो क्या दीपिका के विरोध के नाम पर तेज़ाब फेंकने वालों के समर्थन में खड़ा हुआ जा सकता है।
दीपिका एक अभिनेत्री होने के साथ ही एक इंसान भी तो हैं। वह किसी के भी पक्ष में खड़ी हों, जहाँ उनका दिल चाहे वह जाएँ। इस मुद्दे पर उनकी अभिनीत फिल्म के बहिष्कार के क्या मायने हैं।
कन्हैया कुमार जेएनयू के अध्यक्ष रहे हैं। जेएनयू में हिंसा हुई और मौजूदा अध्यक्ष आइशी घोष को ज़ख्मी किया गया तो कन्हैया भी जेएनयू पहुंचे और आंदोलन का समर्थन किया। इसका नतीजा यह हुआ कि एक टीवी डिबेट में एक राष्ट्रीय स्तर के नेता ने कन्हैया से कहा कि नहीं सुधरोगे तो ठोक दिये जाओगे। सियासत में विरोध की परम्परा बहुत पुरानी है। लोकतंत्र केए बुनियाद ही विरोध पर तिकी है। विपक्ष जहाँ मज़बूत नहीं होता वहाँ सत्ता निरंकुश हो जाती है लेकिन यह कहीं नहीं होता कि एक पार्टी का नेता दूसरी पार्टी के नेता को टीवी पर चल रही बहस के दौरान एलानिया ठोक देने की धमकी दे दे।
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जिस दौर में मर्यादाएं टूटने लगी हों सियासत में एक दूसरे को मार डालने पर नेता खुद आमादा हो गये हों, जहाँ इंसाफ मिलना बहुत मुश्किल हो गया हो, जहाँ अदालत के बाहर ही कानून न समझने वाले भी देशद्रोह की परिभाषा तय करने लगे हों उस दौर में अगर देश में एक नम्बर रैंकिंग वाली यूनीवर्सिटी पर संकट के बादल मंडराएं तो पूरे देश को एक सूत्र में बंध ही जाना चहिये। जेएनयू को बचाये जाने के लिये होने वाली जंग में नहीं खड़ा होना वास्तव में अपनी ज़िम्मेदारी से भागना है। यह मुद्दा किसी सियासी दल का मुद्दा नहीं है। इसके खिलाफ खड़े होने क मतलब है उसके साथ खड़े हो जाना जो देश में प्रतिभाओं को बढ़ते हुए नहीं देख सकते। पढ़ाई का बेहतर महौल मिलने पर जो बच्चे बड़े प्रशासनिक अफसर या सियासत के शानदार सिपाही बन सकते हैं। वह सड़क पर ही आंदोलन करते रहे और उनका भविष्य खराब हुआ तो बात फिर विवेकानंद पर ही आयेगी कि घर में रौशनी करने वाला चिराग़ घर में आग लगने की वजह बन जायेगा।