प्रियंका सेहगल
आयुष्मान भारत केंद्र सरकार द्वारा शुरू की गयी एक ऐसी योजना है जो उपचार के रास्ते में आने वाले वित्तीय संकट को हल करती है। लेकिन लखनऊ के केजीएमयू में इस योजना से जुड़ा एक अलग ही नया खेल चल रहा है। जोकि मरीजों के लिए मुसीबत बनता जा रहा है।
दरअसल, केजीएमयू ने इस योजना के तहत एक नया प्रयोग किया है। उसके इस प्रयोग ने मरीजो को खासा दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। केजीएमयू और आपूर्तिकर्ताओं के बीच एक निजी मेडिकल स्टोर को लाया गया है। केजीएमयू द्वारा सर्जरी के लिए खरीदे गए प्रत्यारोपण के खिलाफ आपूर्तिकर्ताओं को सीधे भुगतान करने के बजाय एक निजी मेडिकल स्टोर को करना पड़ रहा है।
इस प्रयोग के परिणामस्वरूप उन आपूर्तिकर्ताओं को भुगतान में देरी हो रही है जो प्रत्यारोपण की आपूर्ति में देरी कर रहे हैं और सबसे बुरा प्रभाव उन रोगियों को है जो आर्थोपेडिक विभाग से आते हैं।
केजीएमयू द्वारा अपनाई गई इस प्रक्रिया के अनुसार, प्रत्यारोपण के लिए दिए गये आदेश को निजी स्टोर के माध्यम से आपूर्तिकर्ता के पास रखा जाता है। इसके बावजूद, आपूर्तिकर्ता सीधे विभागों को प्रत्यारोपण देते हैं। आपूर्तिकर्ता बिलों को रखते हैं और विश्वविद्यालय आमतौर पर बिना किसी देरी के भुगतान जारी करता है। लेकिन इसका भुगतान तुरंत होने की बजाय महीनों तक तक नहीं होता है।
इस बारे में एक आपूर्तिकर्ताओं ने बताया कि, ‘हम इसको खत्म करने के लिए लंबे समय से चिकित्सा विश्वविद्यालय से पूछ रहे हैं, लेकिन लगता है कि परिसर में कोई ऐसा नहीं है जो ये निर्णय ले सकता है। यहां के अधिकारी बस केवल बैठकें करते रहते हैं’।
इसकी वजह से आपूर्तिकर्ताओं को आपूर्ति में और देरी हो रही है। इस बारे में आपूर्तिकर्ताओं ने विश्वविद्यालय को यह कहते हुए कई अभ्यावेदन दिए हैं कि जब विश्वविद्यालय प्रत्यारोपण की खरीद करता है तो उन्हें भुगतान सीधे दिया जाता है। बिचौलिये के माध्यम से नहीं। लेकिन इस तरह का कोई भी आवेदन अब तक लागू नहीं किया गया है जिससे बिचौलियों को खत्म किया जा सके।
हालांकि, अधिकारियों ने इलाज में देरी से इनकार किया है और दावा किया है कि समस्या जल्द ही हल हो जाएगी। लेकिन सवाल यह है कि जब मेडिकल यूनिवर्सिटी का अपना कल्याणकारी समाज और अस्पताल का चक्कर लगाने वाला फंड है जो मरीजों को दवा की आपूर्ति करता है तो प्रत्यारोपण की खरीद में एक निजी मेडिकल स्टोर क्यों शामिल किया गया है?