केपी सिंह
1971, 1980 और यहां तक कि 1985 में चुनी गई सरकार का अभूतपूर्व बहुमत कई चुनावों के लिए अलंघ्य साबित होने का अनुमान अगले ही चुनाव की कसौटी पर धराशायी हो गया।
1971 लोकसभा के पहले मध्यावधि चुनाव का गवाह बना। यह चुनाव सत्तारूढ़ पार्टी में चल रहे जबरदस्त घमासान के साये में हुआ था। इंदिरा गांधी ने उस समय के दिग्गज पार्टी नेता मोरारजी देसाई को कांग्रेस से निष्कासित कर दिया था। कांग्रेस दो हिस्सों में बंट गई थी। इसके बाद अल्पमत में आई अपनी सरकार को चलाने के लिए कांग्रेस को सीपीएम के समर्थन का सहारा लेना पड़ा।
लेकिन 1971 के बांग्लादेश युद्ध ने देश के राजनैतिक परिदृश्य की तस्वीर ही पलट दी। पाकिस्तान के दो टुकड़े करने के इंदिरा गांधी के कारनामे पर देश इतना रीझ गया कि विपक्ष के प्रमुख नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री को आकुल भावावेश में दुर्गा का अवतार कह डाला। हालांकि बाद में उन्होंने इससे इंकार किया था।
बहरहाल इस उपलब्धि के बाद एक साल पहले लोकसभा का चुनाव कराने का जुआ इंदिरा गांधी को फल गया। उनकी पार्टी ने 352 लोकसभा सीटें जीतकर भारी बहुमत हासिल किया। ध्यान रहे कि इस बार मोदी के नेतृत्व में 2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने सहयोगी दलों के साथ 352 सीटें ही जीती हैं जबकि अकेले भाजपा के हिस्से में 303 सीटें आयी हैं। 1971 में विपक्ष आज से ज्यादा बुरी हालत में पहुंच गया था।
उस समय लोगों को विश्वास था कि इंदिरा गांधी की सत्ता को अब अगले दो दशक तक कोई नहीं हिला पायेगा, जैसा कि आज मोदी को लेकर व्याप्त हो गया है। पर इंदिरा गांधी का प्रभा मंडल तीन-चार साल बाद ही फीका पड़ गया। विपक्ष में कोई मजबूत चेहरा न होने से इंदिरा गांधी निश्चिंत थी लेकिन उनके पिता के समय के नेता जयप्रकाश नारायण राजनीतिक सन्यास की गुफा से निकलकर समवेत विरोध की अगुवाई के लिए तैयार कर लिये गये। जिसके बाद मंजर ही बदल गया।
तब और अब में कुछ और साम्य भी हैं। सरकार के खिलाफ असंतोष प्रचंड होते जाने का मुख्य कारण उस समय भी देश की आर्थिक सेहत का लगातार गिरना था। बांग्लादेश के युद्ध का खर्चा और औद्योगिक उत्पादन में गिरावट इसकी मुख्य वजह थी। आज भी आर्थिक मोर्चे पर देश में निराशाजनक स्थितियां हैं।
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इंद्रासन को हिलाने में मुख्य भूमिका तब छात्रों और युवाओं की रही थी। आज विश्वविद्यालय फिर सरगर्म हो रहे हैं। सीसीए के मुद्दे पर उत्तर प्रदेश में विश्वविद्यालयों से आग भड़कना शुरू हुई और यह आग ऐसी फैली कि 22 जिलों में इंटरनेट सेवायें ठप करने का अभूतपूर्व कदम उठाना पड़ गया। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली को मोदी सरकार पहले ही कार्यकाल से खत्म करने के लिए टारगेट किये हुए है। लेकिन अब जेएनयू देश भर में छात्र आंदोलन को हवा देने का केन्द्र बन गया है। निश्चित रूप से इतिहास मोदी सरकार के जेहन में है जिसके कारण इस चुनौती को संज्ञान में लेकर वह हड़बड़ाई हुई है।
बीते दौर में एक के बाद एक घटनाऐं ऐसी होती चली गई जिससे सरकार की लोकप्रियता गर्त में समाती चली गई। तत्कालीन प्रधानमंत्री के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला नये इतिहास की भूमिका रचने वाला साबित हुआ।
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कुर्सी पर बने रहने के लिए इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लागू कर पूरे विपक्ष को जेल में डाल दिया। फिर भी 19 महीने के बाद लोकतांत्रिक साख की तड़प उन्हें नये चुनाव कराने का जोखिम उठाने की ओर ले गई। इंदिरा गांधी का कैलकुलेशन था कि नसबंदी को लेकर असंतोष के बावजूद उन्हें सफलता मिलेगी। क्योंकि जेल से छूटे विपक्ष को इतनी जल्दी चुनावी व्यूह रचना का मौका नहीं मिल पायेगा। लेकिन लोगों ने देखा कि जब जनता अपने पर उतर आती है तो न नेतृत्व का अभाव देखती है और न दल का।
इसलिए 1977 में उत्तर भारत में हुए सफाये के चलते इंदिरा गांधी की कुर्सी चली गई। विपक्ष में नेतृत्व का ऐसा अकाल था कि जब जनता पार्टी के लिए सरकार बनाने का मौका आया तो किसे प्रधानमंत्री बनायें इसे लेकर उठापटक मच गई। आखिर में चुके हुए नेता मोरारजी देसाई को यह ताज मिल गया। ठीक वैसे ही जैसे लोक कथाओं की कहानी होती है कि एक राजा की निपूते मौत हो गई। देश की परंपरा के अनुसार राजा के ज्येष्ठ पुत्र को राजा का उत्तराधिकारी माना जाता था। लेकिन यहां तो राजा का ज्येष्ठ और कनिष्ठ कोई पुत्र नहीं था सो उत्तराधिकार का चुनाव कैसे हो। सयानों की सलाह पर राज परिषद निकली कि जो पहले दिख जाये उसी के गले में राज्याभिषेक की माला डाल दी जाये। इस संयोग में एक भिखारी की लॉटरी निकल गई।
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लब्बो लुआब यह है कि विपक्ष में मजबूत चेहरे का अभाव फैसला करने पर उतारू जनता के लिए मजबूरी नहीं बनता। 1985 में राजीव गांधी ने विपक्ष के सारे नेताओं को किसी के सामने सुपर स्टार तो किसी के सामने और ग्लैमरस हस्ती खड़ी करके आउट कर दिया था। सिख विरोधी दंगों के बावजूद कांग्रेस को इतना बड़ा बहुमत मिला था कि न तो आज तक किसी को मिला है और न मिलेगा क्योंकि आरएसएस जैसे संगठन भी इन दंगों को लेकर भावनाओं में बह गये थे और कांग्रेस एकछत्र समर्थन बटोर ले गई थी। आज चाहे जो लफ्फाजी की जाये लेकिन राष्ट्रवादी सच का भाष्य उस समय यही बना था और यह सच्चाई कभी बदल नहीं सकती।
बहरहाल राजीव गांधी कुल मिलाकर भले नेता थे लेकिन कहीं न कहीं इस मुगालते में भी काम कर रहे थे कि जब उन्होंने विपक्ष को बचने ही नहीं दिया है तो अभी कई चुनावों तक कौन उन्हें हिला पायेगा। पर वक्त के करिश्में ने नये विपक्ष के नेता का अवतार विश्वनाथ प्रताप सिंह के रूप में उन्हीं की पार्टी से उपजा दिया और एक ही कार्यकाल बाद उनकी सरकार धड़ाम हो गई।
लोकतंत्र में हर दिन और हर घंटे लोगों के मूड की परवाह करनी चाहिए। अलंघ्य बहुमत की गफलत खतरनाक है और असंतोष को दमन से निपटने का तरीका एकदम गलत है। पर यह गलती आज की जा रही है। राजनीतिक प्रतिपक्ष ही नहीं निष्पक्ष मीडिया तक सरकार के खूंखार अहम के निशाने पर चढ़ी हुई है।
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कमाल की बात यह है कि सरकार जिन साहसिक कदमों को उठाने का दम भरकर पिछली सरकारों के पुरूषार्थ को शर्मसार करने में लगी है उन सरकारों की गिनती में मोदी की पहली सरकार भी शामिल है। क्या यह सच नहीं है कि अगर पुलवामा नहीं होता तो देश में जैसा माहौल बन गया था उसमें 2019 का लोकसभा चुनाव मोदी को बहुत भारी पड़ जाता। मोदी को भी पता था कि एक चुनाव जीत लेने के बाद दूसरा चुनाव लगातार जीतने की कोई गारंटी नहीं होती। उनकी पार्टी के अभी तक के सबसे दिग्गज नेता अटल बिहारी वाजपेयी को व्यक्तिगत रूप से समकालीन नेताओं में लोकप्रिय होने के बावजूद 2004 में सत्ता गंवानी पड़ी थी जो इस परिणति की गवाही देता है। इसे ध्यान में रखकर मोदी को अनुच्छेद 370, तीन तलाक, राममंदिर, सीसीए, समान नागरिक संहिता आदि मुद्दों पर पहले ही कार्यकाल में तत्परता दिखानी चाहिए थी लेकिन तब उनके हाथ बंधे रहे और इसके लिए 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्हें कटघरे में भी वायदा फरामोशी का आरोप लगाकर खड़ा किया गया।
पहले कार्यकाल के मोदी गौरक्षा के नाम पर होने वाली हिंसा को गुंडागर्दी कहने से भी नहीं चूक रहे थे। क्या भारत के प्रधानमंत्री की सिंहासन बत्तीसी की कुर्सी पर बैठकर उस समय उनका कोई हृदय परिवर्तन हो गया था जिसके कारण अन्य प्रधानमंत्रियों की तरह अपने पहले कार्यकाल में वे भी भाजपा के मूल एजेंडे के नैतिक, वैधानिक आदि औचित्य को संदिग्ध महसूस कर पहले कार्यकाल में असमंजस के शिकार बने रहे थे। क्या दूसरे कार्यकाल में उन्होंने अपनी अंतरात्मा को सुलाकर कर्तव्य निर्वाह की ठान ली है। साथ-साथ यह जिज्ञासा यक्ष प्रश्न जैसा रूप क्यों लेती जा रही है कि उनके इस कार्यकाल में हो रहे फैसलों का श्रेय उनकी बजाय गृहमंत्री अमित शाह को लोग अवचेतन में दे रहे हैं। क्या वे इस कार्यकाल में रिमोट कंट्रोल से संचालित प्रधानमंत्री बनकर रह गये हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)