Wednesday - 20 November 2024 - 10:04 AM

कार्यकर्ताओं की अनदेखी ने दिखाए बीजेपी के बुरे दिन

कुमार भवेश चंद्र

झारखंड विधानसभा चुनाव के नतीजे ने भारतीय जनता पार्टी के संगठनात्मक ढांचे की अजेय छवि को तार तार कर दिया है। मेरा बूथ सबसे मजबूत का अभियान चलाने वाली पार्टी की एक छोटे से राज्य में करारी हार ने पार्टी की रणनीति को खोखला और दावों को हवा हवाई साबित कर दिया है।

इस नतीजे के बाद अब कोई दावा नहीं कर सकता कि बीजेपी संगठन के रूप में ऐसी पार्टी है जिसे हराना दूसरे दलों के लिए मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। मोदी है तो मुमकिन है के नारे गढ़ने वाली पार्टी  बीजेपी के भीतर भी अब ये सवाल उठने लगे हैं कि पार्टी को अपने तौर तरीकों पर फिर से विचार करने की जरूरत है।

सोचने की जरूरत है कि उससे लगातार ऐसी कौन सी भूल हो रही है, जिसकी वजह से एक-एक कर राज्यों की बागडोर उसके हाथ से फिसलती जा रही है। डबल इंजन की सरकार के नारे धाराशायी हो गए। पार्टी के दिग्गजों की चाणक्य नीति सुपर फ्लाप साबित हो रही है। जमीन पर काम करने वाले कार्यकर्ता वोटरों के सवालों का सामना करने का साहस नहीं कर पा रहे हैं।

सवाल है कि महज छह साल के भीतर ऐसा क्या हुआ है जिसकी वजह से पार्टी का सांगठनिक ढांचा सवालों के घेरे में है? कार्यकर्ताओं की पार्टी कही जाने वाली बीजेपी क्या हाइकमान सिंड्रोम का शिकार हो रही है? क्या कुछ बड़े लोगों के एकतरफा फैसले पार्टी पर भारी पड़ने लगा है? क्या पार्टी हर बड़े फैसले के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की ओर देखने लगी है?

 

क्या पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह और कार्यकारी अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्ढ़ा के बीच बड़े फैसलों पर बेहतर तालमेल नहीं बन पाया है? क्या पार्टी के भीतर हाइकमान कल्चर इतना हावी हो गया है कि कार्यकर्ता जमीनी हकीकत और अपनी बात शीर्ष नेतृत्व तक नहीं पहुंचा पा रहे हैं? क्या पार्टी का शीर्ष नेतृत्व अतिआत्मविश्वास का शिकार हो गया है और वह कार्यकर्ताओं की बात या उनकी शिकायत पर गौर ही नहीं कर पा रहा है? ये सारे सवाल बीजेपी का एक आम कार्यकर्ता आज एक दूसरे से पूछ रहा है।

यह सही है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने बड़ी कामयाबी हासिल की। पार्टी की सीटें बढ़ीं, नेतृत्व की स्वीकार्यता साबित हुई। संगठन की रणनीतिक विजय का संदेश भी स्पष्ट था। लेकिन इसके साथ ही नतीजों से यह भी साबित हुआ कि बीजेपी के डबल इंजन की सरकार के आइडिया को जनता ने बहुत पसंद नहीं किया।

2019 के लोकसभा चुनाव के साथ जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए उनके नतीजे से साफ था कि वोटर परिपक्व हुए हैं। वह केंद्र की स्थिर सरकार के लिए वोट कर रहे हैं लेकिन राज्यों में वह क्षेत्रीय महात्वाकांक्षा रखने वाले दलों को अपने लिए बेहतर मानते हैं। लेकिन जबरदस्त जीत के उत्साह ने बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व को वोटरों के इस संकेत को समझने का वक्त ही नहीं दिया।

नतीजा ये रहा कि लोकसभा चुनाव के तत्काल बाद हुए हरियाणा और महाराष्ट्र में पार्टी की रणनीति और चुनावी अभियान को अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई। केंद्र के राजकाज में उलझी बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व राज्यों के संदेश को पढ़ने की जरूरत नहीं समझी और ना ही राज्यों की जमीनी हकीकत को समझने और उसके हिसाब से रणनीति बनाने और सुझाव रखने के लिए राज्य नेतृत्व पर भरोसा किया।

कार्यकर्ताओं की पार्टी समझी जाने वाली भाजपा के कार्यकर्ता अब समझने लगे हैं उनकी भूमिका वह अब केवल जय जयकार की रह गई है। झारखंड में सरयू राय की आवाज को नहीं सुनना साफ बताता है कि पार्टी नेतृत्व कार्यकर्ताओं से जमीनी हकीकत को समझने की कोशिश में पूरी तरह नाकाम रहा है। कार्यकर्ताओं का ये असंतोष ही बगावत बनकर बीजेपी की राह का रोड़ा बन गई। पार्टी नेतृत्व ने हरियाणा और महाराष्ट्र में स्थानीय नेतृत्व के प्रति असंतोष के बावजूद वहीं गलती झारखंड में भी दोहराया, जिसकी वजह से इतनी करारी हार का उसे सामना करना पड़ा।

इसके अलावा पार्टी क्षेत्रीय आकांक्षाओं को भी समझने की लगातार भूल कर रही है। हरियाणा में महज दस महीने पुरानी पार्टी लोक जननायक पार्टी ने क्षेत्रीय आकांक्षा की ताकत से अपने लिए सत्ता की राह बना ली और बीजेपी को अपना साथ लेने को मजबूर कर दिया। महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी के क्षेत्रीय प्रभुत्व को नजरंदाज करके भी वही भूल की। और आखिर में झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा ने जिस तरह से जमीनी स्तर पर बीजेपी की उपेक्षा को अपनी ताकत बनाया, उसे समझने में भी पार्टी बड़ी भूल कर बैठी।

बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व जिस साहसिक फैसले को अपनी सबसे बड़ी ताकत समझ रहा है वह भी उसकी बड़ी भूल के रूप में सामने आ रहा है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह राज्य के चुनाव में जिस तरह से धारा 370 और दूसरे ऐसे विवादित फैसलों को बढ़ा चढ़ाकर पेश कर रहे हैं उससे विपक्ष की आवाज की अवहेलना का संदेश भी जा रहा है। देश के वोटर छह सालों से लगातार विपक्ष को कमजोर, असमर्थ और नाकारा बताने वाले तंज सुनकर तंग आ गए हैं।

विकास के मोर्चे पर वादे की जो चमक दिखनी चाहिए वह सिरे से गायब है। लिहाजा बीजेपी नेतृत्व के सामने उसकी विश्वसनीयता आज एक बड़ा सवाल बनकर खड़ी है। केवल कांग्रेस की कमजोरियों से ताकत बटोरने का वक्त अब बीत गया है। जबतक बीजेपी अपनी नई लकीर नहीं खींचेगी, उसका काम चलने वाला नहीं।

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)

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