कुमार भवेश चंद्र
झारखंड विधानसभा के चुनाव नतीजे ने साफ कर दिया है कि देश में भगवा लहर की चमक कमजोर पड़ रही है। भाजपा के प्रति समर्थन में कमी आ रही है। वैसे भाजपा के पास इस बात को झुठलाने के तर्क हैं। वह कह सकती है कि झारखंड में उसका समर्थन बढ़ा है। उसकी ये बात सही भी है कि वोट शेयर के मामले में वह पिछली बार के मुकाबले आगे बढ़ी है।
लेकिन सच यही है कि वोट शेयर के मामले में एक फीसदी से अधिक बढ़ोतरी के बावजूद झारखंड ने उसका सपना चकनाचूर कर दिया है। उसकी उम्मीदों को धाराशायी कर दिया है।
नतीजों की इस सच्चाई का सामना अब भाजपा को करना ही होगा। बीजेपी अपनी हार में जीत तलाशने की कोशिश तो करेगी लेकिन महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभा में चुनाव नतीजे के बाद उसकी घटती लोकप्रियता और सरकार बनाने की ताकत में कमी एक ऐसी सियासी सच्चाई है, जिसपर उसे मंथन करने की जरूरत है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने वह सारे तीर इस्तेमाल किए थे, जो किसी भी पार्टी के नेतृत्व के लिए जरूरी था। झारखंड में नरेंद्र मोदी और अमित शाह की रैलियों की संख्या किसी भी दूसरे दल के मुकाबले अधिक थी। मोदी और शाह ने वहां तकरीबन 9-9 बड़ी रैलियां की थी।
बीजेपी के इन दिग्गजों ने पांच चरणों के लिहाज से एक चरण में औसतन दो रैलियां कर अपने मंसूबे बताए। अपनी सरकार का एजेंडा साफ किया। लेकिन नतीजे बता रहे हैं कि झारखंड के लोगों ने कुछ और ही मन बना लिया था। बीजेपी की कहानियों में अब उनकी अधिक रुचि नहीं। राम मंदिर और जम्मू और कश्मीर में 370 को हटाए जाने की दहाड़ में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं।
जड़, जमीन और जंगल के उनके सवाल पर बीजेपी का रुख उसे बिल्कुल भी पसंद नहीं। गैर आदिवासी मुख्यमंत्री के रूप में उसे कोई नेतृत्व मंजूर नहीं। झारखंड के नतीजों में अगर कोई संकेत है तो यही कि बीजेपी पांच साल के शासन के बावजूद आदिवासियों की धड़कन को समझने में चूक कर गई।
पिछली बार जोर तोड़ से उसकी सरकार तो बन गई। अल्पमत को बहुमत में तब्दील करके उनकी स्थिरता भी कायम हो गई लेकिन सच्चाई यही है कि वह आदिवासी मन को समझने में नाकाम रहे। यही वजह है कि संगठन, केंद्र की ताकत और डबल इंजन के मुहावरे की उसकी तमाम कोशिशों पर वोटरों ने पानी फेर दिया।
झारखंड चुनाव के नतीजे इस बात की ओर भी इशारा कर रहे हैं कि राज्यों के चुनाव में बीजेपी की रणनीति काम नहीं कर रही है। केंद्र की ताकत पर अधिक निर्भरता और प्रदेश के सही मुद्दों के अभाव में वह लोगों का मन जीत नहीं पा रही है। यह नतीजा साफ तौर पर यह बता रहा है कि देश का वोटर पहले से अधिक परिपक्व और समझदार हो चुका है।
बीजेपी को 2019 के लोकसभा चुनाव के साथ विधानसभाओं के नतीजों से ही ये सबक सीख लेना चाहिए था। लेकिन उसने तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा के नतीजों से तो नहीं ही सीखा, हरियाणा और महाराष्ट्र के नतीजों के बाद भी उसकी आंख नहीं खुली। मोदी के करिश्मे और शाह के जलवे का नशा पार्टी पर इस कदर सवार है कि उसे जमीन दिख नहीं रही है। और वह भी तब, जबकि जबकि उसका कैडर और उसके वोटर इस ओर लगातार इशारा कर रहे हैं।
अब बात बीजेपी को हासिए पर धकेलने वालों की। कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देने वाली बीजेपी को याद रखने की जरूरत है कि जिसे वे लगातार कमजोर होते हुए बता रहे हैं वह उनके मुकाबले जमीन पर तेजी से अपना कदम जमा रहे हैं। गैर भाजपा प्रदेश की संख्या लगातार बढ़ रही है। हाल के चुनाव की ही बात करें तो कांग्रेस ने महाराष्ट्र में अपनी ताकत का लोहा मनवा लिया है। वह सत्ताधारी गठबंधन का हिस्सा बन ही चुकी है।
हरियाणा में पहले से अधिक मजबूत विपक्ष के रूप में उससे मुकाबले को तैयार है। इसी तरह झारखंड में उसके वोट शेयर और सीटों में इजाफा हो चुका है, जिस कांग्रेस को विचार के आधार पर वह अप्रासंगिक बताने की कोशिश कर रही है वह उसके लिए लगातार मुश्किलें पैदा करती हुई दिख रही है।
झारखंड में झामुमो गठबंधन में अधिक सीटे पाने पाने वाली कांग्रेस ने अपने वोट शेयर में इजाफा कर बता दिया है कि जमीन पर उसका समर्थन पहले के मुकाबले बढ़ा है। 2014 के चुनाव के मुकाबले कांग्रेस ने वोट शेयर में तकरीबन तीन फीसदी का इजाफा कर जता दिया है कि भाजपा के मुकाबले उसका समर्थन बढ़ता जा रहा है। उसकी आवाज़ मजबूत हो रही है।
2019 के लोकसभा चुनाव में मजबूत होकर उभरी बीजेपी को यह भ्रम छोड़ देना होगा कि संसद में उसकी ताकत बढ़ाकर देश ने उसे कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र कर दिया है। उसे विपक्ष की आवाज को नजरंदाज करने का सर्टिफिकेट दे दिया है। उसे मनमाने फैसले के लिए आजाद कर दिया है। देश के लिए फैसला करते हुए उसे उन विचारों को भी महत्व देना होगा, जिन्हें उतना मजबूत समर्थन नहीं मिल पाया है।
पार्टियां कमजोर या मजबूत हो सकती हैं, उन दलों के नेताओं की विश्वसनीयता पर सवाल हो सकते हैं, जमीन पर उनके समर्थन की ताकत भी कमजोर हो सकती है, लेकिन जिस विचारधारा की नुमाइंदगी वे करती हैं, वे विचार अभी भी कमजोर नहीं हुए हैं। सत्ता बहुमत का खेल तो है लेकिन देश अहम मुद्दों पर विचारों के साथ समझौता करने को तैयार नहीं। प्रदेश से आ रहे इन नतीजों को अगर भाजपा वक्त रहते ये पढ़ सके तो बेहतर है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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