Tuesday - 29 October 2024 - 12:33 PM

डंके की चोट पर : सीएए से उपजी हिंसा के मायने

शबाहत हुसैन विजेता

नागरिक संशोधन एक्ट के संसद से पास होते ही देश के विभिन्न इलाकों में गुस्से का उबाल दिखाई देने लगा। सड़कों पर जनसमुद्र उमड़ पड़ा। सरकार के खिलाफ नारेबाजी से शुरु हुआ हंगामा पथराव और तोड़फोड़ तक जा पहुंचा। नागरिक और पुलिस के बीच संघर्ष छिड़ गया। लोगों में असुरक्षा की भावना साफ दिखाई देने लगी। सड़कों पर बवाल बढ़ता रहा लेकिन स्थितियों पर जमा असमंजस के कोहरे को साफ करने वाला कोई नज़र नहीं आया।

मोदी सरकार के खिलाफ यह आक्रोश असम में एनआरसी लागू होने के फौरन बाद ही पनपना शुरु हो गया था लेकिन इस आक्रोश को दूर करने की कोई पहल किये बगैर ही सरकार सीएए लेकर आ गई। यह लोगों के भीतर पनपते आक्रोश में आग में घी की तरह से था। इसका नतीजा दिखाई देने लगा है। देश के तमाम शहर आग में झुलस रहे हैं।

असम में एनआरसी लागू होने के बाद जो हालात बने, वास्तव में वही सीएए आने के बाद भड़के बवाल की हकीकत है। असम में एनआरसी कौन सी तैयारी से लागू किया गया उसे देखा जाये तो पता चलता है कि भारत के राष्ट्रपति रहे फखरुद्दीन अली अहमद का परिवार खुद को भारत का नागरिक साबित नहीं कर पाया। कारगिल की जंग में अपनी जान कुर्बान करने वाले का परिवार भी खुद को भारत का नागरिक साबित नहीं कर पाया।

असम में एनआरसी में अपना नाम न दर्ज करवा पाने वालों के लिये सरकार ने डिटेंशन कैम्प तैयार करवा दिया। इस डिटेंशन कैम्प के बाद भी लोगों का गुस्सा नहीं फूटा था लेकिन जब सरकार सीएबी लेकर आई तो पता चला कि इस बिल के ज़रिये सरकार 31 दिसम्बर 2014 तक पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आये गैर मुस्लिम शरणार्थियों को भारत की नागरिकता देगी। बवाल की असली जड़ यही है कि एनआरसी में जो भारतीय मुसलमान खुद को भारत का नागरिक साबित नहीं कर पायेगा उसे डिटेंशन कैम्प में भेज दिया जायेगा लेकिन दूसरे देश से आने वाले गैर मुसलमान को भारत की नागरिकता दे दी जायेगी।

धर्म के आधार पर भारत में लोगों का बँटवारा किसी भी भारतीय को स्वीकार नहीं है। यही वजह है कि सीएबी जैसे ही एक्ट में बदला वैसे ही पूरा देश सड़क पर उतर आया। देश के बीस से ज़्यादा शहर हिंसा की आग में झुलस गये। तमाम नौजवानों की मौत हो गई। सीएए के खिलाफ जिस तरह से हंगामा हुआ उसने पुलिस से लेकर सरकार तक की नींद उड़ा दी।

बवाल बढ़ा तो सरकार की तरफ से शुरु में बयान आया कि किसी भी भारतीय को कहीं जाना नहीं पड़ेगा। लेकिन इसके साथ ही दिल्ली और मुम्बई की सड़कों पर सीएए के समर्थकों की भीड़ भी जुटना शुरु हो गई। यह वास्तव में बहुत खतरनाक पोज़ीशन है। अभी तक सरकार के विरोध में जो सुर उठे हैं उनका सामना सिर्फ पुलिस के साथ है। नागरिकों का आपसी तालमेल बहुत अच्छा है लेकिन अगर सीएए का विरोध करने वाले और समर्थन करने वाले आमने-सामने आ गये तो हालात कैसे होंगे। यह आपस में टकरा गये तो देश सिविल वार की तरफ बढ़ जायेगा। तब इसे कंट्रोल करना सरकार के लिये आसान नहीं होगा।

सीएए के ज़रिये पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आये चार करोड़ शरणार्थियों को भारत में शरण देने से किसी को भी दिक्क्त नहीं थी लेकिन उन्हें देश की नागरिकता देने की क्या ज़रूरत थी यह बात समझ से परे है। भारत पिछले कई साल से आतंकवाद से जूझता रहा है। जिन देशों की सीमाएँ लांघ कर भारत में आतंकी आते रहे हैं उन देशों के लोगों को भारत में बसा कर क्या भारत की सुरक्षा को खतरे में नहीं डाला जा रहा है। शरणार्थी के रूप में रहने वाले के सिर्फ खाने और कपड़े भर की व्यवस्था करने की ज़िम्मेदारी होती है लेकिन नागरिक बनाने के बाद उनके लिये रोजगार कि व्यवस्था भी सरकार की ज़िम्मेदारी हो जायेगी।

गुजरे सालों में भारत में रोजगार घटे हैं। तमाम लोगों की खुद की नौकरियाँ चली गई हैं। ऐसे में दूसरे देशों से आने वालों के लिये रोजगार का इंतजाम कैसे होगा। 4 करोड़ शरणार्थी जब नागरिक बन जाने के बाद भी नौकरियाँ हासिल नहीं कर पायेंगे तब अपना पेट भरने के लिये वह गैर वाजिब रास्ते अपनाएंगे और सरकार और देश दोनों के लिये मुसीबत बन जायेंगे।

सरकार कोई भी हो उसकी ज़िम्मेदारी होती है हर नागरिक को सुरक्षा का भाव देना। अपने ही देश में नागरिकता छिन जाने का डर और अपना घर छोड़कर डिटेंशन कैम्प में रहने के लिये मजबूर किया जाना किसी भी नागरिक को अपना अधिकार पाने के लिये सड़कों पर उतार सकता है। सरकार के भीतर इतनी लचक तो होनी ही चाहिये कि वह अपने नागरिकों के मन में आ गये डर को निकाल सके। दूसरे देशों से लोगों को लाकर सरकार बसाये लेकिन अपने जिन नागरिकों को उसने सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास का नारा दिया है उसके मन से डर को निकालना भी सरकार की ज़िम्मेदारी है।

सरकार के इस फैसले के खिलाफ सड़कों पर उतरे लोग हिंसा के रास्ते पर कैसे चले गये यह भी जांच का मुद्दा है। इतनी कड़ी सुरक्षा के बावजूद प्रदर्शन करने वालों के पास पत्थर कहाँ से आये यह भी जांच का विषय है। हिंसा और पथराव की छूट किसी को नहीं दी जा सकती। लखनऊ, कानपुर, बहराइच, रामपुर, गोरखपुर और वाराणसी के अलावा बिहार और दिल्ली में जो हालात बने हैं वह नज़रअंदाज़ करने वाले नहीं हैं। हालात बेहतर बनाने के लिये ज़रूरी है कि लोगों के भीतर जो डर का माहौल तैयार हुआ है उसे दूर किया जाना चहिये।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)

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