कुमार भवेश चंद्र
झारखंड के चुनाव बीजेपी के लिए कठिन परीक्षा बन गए हैं। महाराष्ट्र और हरियाणा में कुछ महीने पहले ही हुए विधानसभा चुनाव नतीजे ने बीजेपी की अजेय छवि को करारा झटका दिया। दोनों ही राज्यों में बीजेपी के चुनावी लक्ष्य पूरे नहीं हुए।
यानी पार्टी ने अपने लिए जितनी सीट जीतने का लक्ष्य तय किया था वहां तक नहीं पहुंच सकी। नतीजे आने के बाद हरियाणा में किसी तरह जोड़तोड़ से बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार तो बन गई।
तमाम तरह की जोड़तोड़ के बाद महाराष्ट्र में वह भी नहीं हो पाया। बल्कि एनसीपी के अजित पवार को अपने पाले में कर सरकार बनाने की कोशिश में पार्टी की रही सही साख को धुल गई। अब बीजेपी की कोशिश है कि झारखंड के जरिए देश को एक संदेश दिया जाए कि उसमें दम बाकी है।
जमीन पर बीजेपी का समर्थन अब भी मजबूत है। लेकिन दूसरी ओर विपक्ष की कोशिश है कि बीजेपी की कमजोर होती साख को और झटका दिया जाए। झारखंड की ये चुनावी लड़ाई इसी लिहाज से प्रदेश के बाहर लोगों का ध्यान भी खींचने की कोशिश रही है।
महज 81 सीटों वाली विधानसभा में सरकार बनाने के लिए बीजेपी को 42 सीटें चाहिए। लेकिन जिस तरह के चुनावी समीकरण दिख रहे हैं उसमें बीजेपी के लिए ये टारगेट बेहद मुश्किल दिख रहे हैं। पार्टी ने 65 प्लस का नारा तो दिया है लेकिन रणनीति उस हिसाब से उसके साथ खड़ी नहीं दिख रही है। पार्टी की पहली गलती रघुबर दास के चेहरे को आगे बढ़ाना साबित हुआ है।
शुरुआत में बीजेपी ने झारखंड में भी महाराष्ट्र और हरियाणा की तर्ज पर पुराने चेहरों को आगे बढ़ाकर सत्ता वापसी का सपना देखा और दिखाया। लेकिन चुनाव जैसे ही आगे बढ़ा उसे अपनी गलती का अहसास होने लगा है। हालत ये है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की झारखंड की रैलियों में अब रघुबर दास नज़र नहीं आते हैं।
बीजेपी ने समझ लिया है गैर आदिवासी मुख्यमंत्री का उनका दांव दोबारा काम नहीं आने वाला। ऐसी हालत में उसने फिलहाल केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा को आगे कर दिया है। हालांकि वे उनको नेतृत्व सौंपने की बात नहीं कर रहे हैं। प्रधानमंत्री मंच से उन्हें आदिवासियों के विकास का चेहरा बताकर इशारा भर कर रहे हैं।
प्रदेश विधानसभा के चुनाव में बीजेपी की दूसरी बड़ी कमजोरी साफ तौर पर दिख रही है। बागियों की बहार। रघुबर के नेतृत्व में काम कर चुके सरयू राय तो उनके खिलाफ मैदान में हैं ही। पार्टी का टिकट न मिलने से नाराज दर्जन भर से अधिक नेता- कार्यकर्ता मैदान में बीजेपी को नुकसान पहुंचाते हुए दिख रहे हैं। इसके अलावा अभी तक साथ चल रहे सियासी दलों ने भी चुनाव से पहले बीजेपी से किनारा कर लिया है। जेडीयू, एलजेपी और आज्सू अपने-अपने बूते मैदान में बीजेपी के लिए चुनौती बने हुए हैं। इस तरह बीजेपी अपने ही घर के चिराग से जलती हुई दिख रही है।
अगर देखा जाए तो विपक्ष की ओर से बीजेपी को कोई बड़ी चुनौती नहीं मिल रही है। झारखंड मुक्ति मोर्चा कांग्रेस और राजद के साथ जरूर गठबंधन बनाकर चुनाव मैदान में है। लेकिन उनकी रणनीति भी बहुत मजबूत नहीं मानी जा रही है। इस गठबंधन की सबसे बड़ी कमजोरी मानी जा रही है कांग्रेस को उसकी जमीनी ताकत से अधिक सीटें मिलना। राजद को इस गठबंधन से चार सीटें मिली हैं। इनमें से एक-दो सीटों पर वह मजबूत दिख रही है। लेकिन कांग्रेस कितने सीटों पर कमाल दिखा पाएगी। या बीजेपी की हार का कारण बनेगी इसको लेकर कोई पुख्ता राय नहीं बन पा रही है।
इसके अलावा झारखंड विकास मोर्चा और आज्सू के प्रत्याशी मैदान में हैं। जादुई आंकड़े तक नहीं पहुंच पाने की स्थिति में बीजेपी की नज़र भी इन्हीं दो दलों पर है। आज्सू तो उनके साथ ही रही है। रही बात बालू लाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा की तो यह वहीं पार्टी जिसे तोड़कर पिछली बार बीजेपी ने अपना घर मजबूत किया था। उसके छह विधायकों को तोड़कर बीजेपी ने पिछली सरकार में बहुमत के आंकड़े तक का कांटा दूर किया था।
इस सियासी परिस्थितियों में बीजेपी के लिए मुश्किलें ज्यादा नहीं थी लेकिन वह फंसी है। अगर बीजेपी के घर में चिंता की आग लगी है तो वह अपने ही चिराग से लगी है। यही वजह है कि बीजेपी संघर्ष में दिख रही है। और इस संघर्ष की स्थिति की वजह से रास्ते से भटक भी गई है। नेतृत्व के सवाल पर उलझी है, मुद्दे के जाल में फंसी है। चुनावी मुद्दे की गाड़ी झारखंड के विकास से उतर कर धारा 370, राम मंदिर और राष्ट्रीय मुद्दों की ओर बढ़ गई है। देखना दिलचस्प होगा कि नतीजे बीजेपी को क्या आइना दिखाते हैं?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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