कैसे हो बेहतर शहर-2
रतन मणि लाल
क्या हम अपने शहर को वास्तव में एक अच्छा शहर बनाना चाहते हैं? यदि हाँ, तो पहले हमें अपने शहर को प्यार करना होगा। यह मानना होगा कि इस शहर में कुछ खूबियाँ हैं जिन्हें बनाये रखना जरूरी है। उन खूबियों को बनाये रखने में आने वाली मुश्किलों और अड़चनों को दूर करना होगा। शहर के लोगों में भागीदारी जगानी होगी, उन्हें यह समझना होगा कि यह शहर अगर दुनिया के अच्छे शहरों में शुमार होता है तो इसे ऐसा बनाये रखना हमारी ही जिम्मेदारी है।
शहर को केवल रोजगार के साधन के रूप में देखना, मनोरंजन और शक्ति प्रदर्शन के अखाड़े के रूप में देखना, व्यापार और सेवा क्षेत्र (सर्विस सेक्टर) के सफल इलाके के रूप में देखना ही काफी न होगा। आज अगर लखनऊ फिल्म निर्माता और फैशन जगत के लोगों की पसंदीदा जगह बनता जा रहा है तो यह भी समझना होगा कि यह शहर केवल उन लोगों के लिए ही नहीं, यहाँ के निवासियों के लिए भी पसंदीदा बने रहना जरूरी है।
बढती आबादी, शहरी सुविधाओं पर बढ़ता दबाव, अन्य राज्यों और जिलों से आने वाले प्रवासियों का बढ़ता प्रभाव, राजनीतिक लोगों और परिस्थतियों का बोलबाला, लोगों के बीच घटती आत्मीयता, आदि ऐसे कई आयाम हैं जिन के बारे में उन लोगों को सोचना होगा जो लखनऊ को वास्तव में चाहते हैं।
शहरों में रहने वाले अधिकतर लोग शहरों में रहने के बावजूद गाँव के जीवन को केवल बेहतर बताते हैं और गाँव के जीवन की खूबियाँ गिनने से पीछे नहीं रहते। खुली हवा के नीचे दिन बिताना और रात में सितारों के नीचे सोना, चारों तरफ हरियाली, साफ़ हवा, जिंदगी की आरामदायक रफ़्तार, लोगों में अपनापन, खाने-पीने की बेहतर चीजें, आदि, तमाम ऐसे आयाम हैं जो गाँव के जीवन को निश्चित रूप से शहरी जिंदगी से बेहतर बनाते हैं।
ऐसा विश्वास करने में तब तक कोई दिक्कत नहीं है जब तक शहरों में रहने वाले लोग शहरीकरण को ही गलत न मानने लगें। गाँव में रहने वाले लोग शहर आते हैं यहाँ की शिक्षा व्यवस्था, चिकित्सा, बेहतर बिजली-पानी और ट्रांसपोर्ट, और जिंदगी को बेहतर बनाने वाली कई अन्य सुविधाओं के लिए, जिनमे अच्छा और नए प्रकार का सामान, खरीदारी के विकल्प, मनोरंजन, आदि शामिल हैं। अब अगर कोई गाँव से शहर आये इन सबका लाभ उठाने के लिए, और फिर यही रह कर इन्ही सब से परेशान हो उठे तो इसमें शहर का क्या दोष?
शहरों की अलग किस्म की फितरत होती ही है, जिसमे रफ़्तार, व्यापार, तड़क-भड़क, अलग-थलग से रहने वाले और अपने हितों के बारे में सोचते लोग, आत्मीयता की कमी और अपराध हावी रहते हैं। शहरों की क्षमता से कई गुना ज्यादा लोग शहरी सुविधाओं का लाभ उठाने के लिए गैर-कानूनी तरीके अपनाते हैं, क्योंकि उन्हें रहना इसी शहर में है, यहीं से कमाना है, जमीन-घर खरीदना है, गाडी खरीदनी है, फैशन करना है और लुत्फ़ उठाना है। लेकिन यह सब करना भी है और फिर भी इस शहर को अपना मानने के बजाये गाँव की खूबियों को याद भी करना है।
यह अंतर-विरोध ही प्रमुख कारण है कि हमारे अधिकतर शहर सही मायनों में शहर तो न बन पाए, लेकिन बड़े, असंगठित गाँव बन कर रह गए। लखनऊ में तमाम लोगों को शहर से कई सारी शिकायतें हैं, लेकिन शहरीकरण की मर्यादाओं व अपेक्षाओं को पूरा करना उन्हें मंजूर नहीं।
लखनऊ के पुराने निवासी – जो आज से पांच-छः दशक या उससे भी ज्यादा समय से यहाँ रह रहे हैं – बड़ी संख्या आज उस जगह पर नहीं रह रहे हैं जहां वे पहले रहते थे। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि पुराने क्षेत्रों में बाजारें बढती गईं, रिहाइशी इलाकों में दुकाने और शोरूम खुल गए, प्रदूषण, शोर और अशांति के कारण उन जगहों पर रह पाना मुश्किल हो गया। यह हाल तो अलीगंज, महानगर, गोमतीनगर जैसी जगहों में भी कई सेक्टर (या खण्डों) का हो गया है। शहरी विकास का यह एक पैमाना है कि व्यापार में बढ़ोतरी हो रही है, लेकिन किस कीमत पर? नियम लागू करने वाली अधिकतर एजेंसियां जैसे नगर निगम, विकास प्राधिकरण, जल संस्थान और बिजली निगम आदि नियमों का उल्लंघन जानबूझ कर होने देते हैं। एक विचार के अनुसार, ऐसा इसलिए होता है क्योंकि इन संस्थानों में किसी को इस शहर से लगाव नहीं है। वे नगर निगम या विकास प्राधिकरण आदि संगठनों में केवल नौकरी करते हैं, पैसा कमाते हैं, प्रमोशन की लालसा रखते हैं, भ्रष्ट तरीके अपनाते हैं, भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं, और इस शहर की कोई फ़िक्र नहीं करते। वे अपने राजनीतिक कनेक्शन के प्रति आश्वस्त हैं, अपनी संपत्ति के प्रति आश्वस्त हैं और अपने मूल गाँव में अपनी प्रतिष्ठा के प्रति आश्वस्त हैं। लखनऊ तो केवल उनके लिए रोजगार या नौकरी करने और अपना जीवन बेहतर बनाने का एक जरिया है।
ऐसे में फिर सोचिये – शहर को वाकई अच्छा बनाना कौन चाहता है?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )
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