राजीव ओझा
विजय दशमी बीत गई लेकिन रावण तो मारा नहीं। दशहरे के दिन कल ही तो रावण दहन हुआ था। बुराई के प्रतीक रावण और अच्छाई के प्रतीक राम के बीच हर गली, हर शहर और कसबे-गाँव में युद्ध हुआ था। इसमें रावण मारा गया लेकिन आज कुछ भी नही बदला, सब कुछ पहले जैसा।
साल डर साल यही देखकर हम बड़े हुए हैं। बुराई कम होने के बजाय बढ़ गई हैं। सच्चाई की जीत कभी-कभार मुश्किल से होती है। गड़बड़ कहाँ हो रही? हम रावण का पुतला तो फूंक देते लेकिन उसकी आसुरी प्रवित्ति बची रहती है। बस गड़बड़ यहीं है।
व्हाट्सअप पर तीर चलाने से नहीं मरते रावण
रावण की आसुरी या राक्षसी प्रवित्ति क्या है? व्हाट्सअप पर कॉपी पेस्ट कर हम जिस रावण को मारने का छलावा करते वही है आसुरी प्रवित्ति। मुंह में राम बगल में छुरी लेकिन बुराई पर जीत, सुख समृद्धि की कामना की बौछार भी इसी श्रेणी में आता है।
प्रेमवश नहीं, लोभवश किसी को उपहार या बधाई देना भी आसुरी प्रवृत्ति ही माना जायेगा। कथनी करनी में अंतर, समाज में बढ़ रहा दिखावा, पाखंड और प्रपंच भी आसुरी प्रवित्ति है। हम फिर व्हाट्सअप व्हाट्सअप खेल रहे लेकिन अपनी आदत को नहीं बदल रहे। कुछ अपवाद जरूर हैं लेकिन वो समुद्र में बूँद भर हैं।
खपच्ची के रावण दहन से समृद्धि नहीं आती
सालाना औपचारिकता निभाने और खपच्ची के रावण दहन से तो समृद्धि बिलकुल नही आती। अगर ऐसा होता तो अबतक हर तरफ सुख समृद्धि होती। नवरात्र पर मदिरा, मीट मछली की दुकानों पर सन्नाटा रहता। लेकिन उसके बाद इन दुकानों पर भूखे जानवर की तरह टूट पड़ते हैं।
ऐसा व्रत या संयम किस काम का? मन करे तो मदिरा और मीट का सेवन करिए, आपको किसने रोका, लेकिन संयम और व्रत का स्वांग मत करिए। जो आप हैं नहीं, वैसा अपने को दिखाने का स्वांग भी बुराई की श्रेणी में आयेगा।
खुशियों के छलावे को त्यौहार कैसे मानें?
आपको लग रहा होगा कि खुशी, हर्षोल्लास के त्यौहार को लेकर क्यों सियापा कर रहा। दरअसल खुशी, उल्लास और संयम वास्तव में क्या हैं? इसे समझने के लिए अंधकार, लोभ और ईर्ष्या, द्वेष, काम और क्रोध को समझना होगा। अचानक बधाई और शुभकामना संदेशों की ऐसी बाढ़ आ जाती है जैसे रामराज बस आने वाला है।
जिस मोहल्ले में रावण जला उसी मोहल्ले में अगले दिन कोई बहू जला दी जाती है, कोई बेटी दुष्कर्म का शिकार हो जाती है, सम्पत्ति के लिए हत्या कर दी जाती है। दशहरा तो उत्सव, उल्लास और खुशी मनाने का त्यौहार है। बेशक है। लेकिन उत्सव, उल्लास और संयम के स्वांग करना कतई त्यौहार नहीं। अँधेरे को जाने बिना हम उजाले की बात नहीं कर सकते।
छोटे रावण, बड़े रावण
रावण को समझे बिना हम विजयदशमी कैसे मना सकते हैं। रावण तो प्रकांड विद्वान था फिर क्यों उसे राक्षस कहा जाता है? रावण की विद्वता को अहंकार, घमंड, काम, क्रोध, ईर्ष्या लोभ, स्वार्थ, आसक्ति ने ढंक लिया और वह विद्वान से विध्वंसक बन गया। हर साल हम रावन के पुतले को फूंकते हैं। इस साल भी वही किया। लेकिन रावण तो जिन्दा है। रावण मरा नहीं है।
वो देखिये, नो इंट्री के बैरियर पर रावण वर्दी पहन वसूली कर रहा है। कुछ युवा रावण कस्बे के मेले में लड़कियों पर फब्तियां कस रहे हैं। कुछ रावण पेमेंट न मिलने का गम गलत करने देशी के ठेके पर जा बैठे हैं। एक रावन मोबाइल पर एटीएम का नंबर और पिन पता कर ठगने की कोशिश में लगा है। कुछ छोटे रावण उपहार और मिठाई लेकर बड़े रावण के घर पहुंचे हैं क्योंकि वो भी आगे चल कर बड़ा रावण बनना चाहते हैं।
तो फिर हम करें क्या? बहुत कुछ कर सकते। त्यौहार पर छोटी सी ही सही, किसी की मदद कीजिये, किसी का हाथ बटाएं, सम्पन्न को नहीं गरीब को छोटा ही सही उपहार दीजिये, खाना खिलाइए। व्हाट्सअप पर समय जाया करने से बेहतर है किसी का एकाकीपन दूर करने के लिए उसके घर जाएँ,दो पल के लिए ही सही।
घास फूस या खपच्ची बाँध कर रावण जलाने से क्या होगा। अपने अन्दर बैठे लोभ और लोलुपता को मार कर दिखाइए, बुराई के प्रतीक नहीं, प्रत्यक्ष बुराई को मार कर दिखाइए तब हम मान लेंगे कि सचमुच रावण मारा गया। तब रावण को जलाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। लेकिन कलियुग में रावण इतनी आसानी से नहीं मरा करते। चलिए अगली बार देखा जायेगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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