अशोक कुमार श्रीवास्तव
किसी भी राष्ट्र के विकास, प्रशासन एवं जन समस्याओं के सशक्त निराकरण हेतु उस राष्ट्र की बोली जाने वाली भाषा जब एक होती है तब की स्थिति में राष्ट्र का सर्वांगीण विकास संभव हो पाता है एवं राष्ट्र का जनमानस खुशहाल रहता है।
भारत वर्ष प्राचीन काल से विविधताओं का देश रहा है, 12वीं शताब्दी में मुस्लिम शासकों के आगमन के बाद उनके लिए शासन करना कठिन हो रहा था क्योंकि उनकी भाषा भारतवर्ष में बोले जाने वाली भाषा से भिन्न थी। यही परिस्थिति अंग्रेज शासकों के आने के बाद भी उत्पन्न हुई, मुस्लिम शासकों ने देश संचालित करने के लिए अपनी भाषा के साथ यहां प्रयोग की जाने वाली भाषा का मिश्रण करके नई बोलचाल की भाषा विकसित की जो उर्दू कहलाई। उर्दू का मिश्रण यहां बोले जाने वाली भाषा में समाहित हो गई जिसे हिंदी नाम मुस्लिम शासकों द्वारा दिया गया है, क्योंकि मुस्लिम शासक प्रथम बार खैबर दर्रे को पार कर सिंधु घाटी के तट पर आए थे और अपनी भाषा (अरबी) में “स”को “ह” कहते थे, जिसके कारण उन्होंने सिंधु नदी को हिंदू नदी, कहने वाले लोगों को हिंदू, बोले जाने वाली भाषा को हिंदी और देश को हिंदुस्तान कहा।
अंग्रेज शासकों ने अपनी भाषा का त्याग नहीं किया बल्कि उसे प्रचारित-प्रसारित किया और समस्त कामकाज अपनी भाषा में एवं उर्दू में करते रहे। धीरे उनकी भाषा भारतीय जनमानस की भाषा हो गई, परिणाम स्वरूप सन् 1947 में उनके जाने के बाद भी हम देशवासी अंग्रेजी भाषा को अत्यधिक सम्मानित भाषा मानते रहे जिसके कारण हमारी अपनी मूल भाषा हिंदी विलुप्त प्राय होती जा रही थी, इसलिए भारत सरकार द्वारा 14 सितंबर 1949 को भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को स्वीकार किया गया। आज 70 वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद भी हिंदी ने अपना एक स्वरूप प्राप्त कर लिया है लेकिन अंगीकार नहीं हुआ है।
हिंदी यानी भारत की राजभाषा के प्रति लोगों के हृदय में एक सशक्त भाषा दृष्टि विकसित करने में हिंदी दिवस का आयोजन काफी उपयोगी सिद्ध हुआ है। इससे देश समाज में हिंदी की स्वीकृति काफी बढ़ गई है। अब यह मात्र प्रशासन की ही भाषा नहीं बल्कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी की भाषा भी हो गई है। वित्त और कारोबार के क्षेत्र में भी हिंदी की जड़े मजबूत हुई हैं। एक समय ऐसा था जब भारतवर्ष की राजभाषा हिंदी अंग्रेजी के पीछे चल रही थी जैसे किसी देश में दोयम दर्जे के नागरिक होते हैं, कालांतर में अपनी भाषा के प्रति हमारी मूल दृष्टि बदलने के कारण आज हिंदी का महत्व काफी बढ़ गया है जिसे राजभाषा हिंदी का विकास कहा जा सकता है। इसके लिए हिंदी भाषी लोगों की तरह हिंदीतर प्रदेशों के लोगों की भी महती भूमिका है। स्वातंत्र्योत्तर भारत में राजभाषा हिंदी में कार्यान्वयन के लिए इसे कई प्रकार की कठिनाइयों को पार करना पड़ा।
आज राजभाषा हिंदी ने अपना एक इच्छित स्वरूप प्राप्त किया है। किसी भी देश की उन्नति सही दिशा में हो तो उस देश की मुख्य भाषा की अनदेखी करना मुश्किल है, अर्थ यह है कि देश में विकास के साथ अपनी भाषा का भी महत्व है। विकास यदि प्रौद्योगिकी क्षेत्र का हो तो उसमें भाषा का प्रयोग होता है, विकास यदि बिजनेस क्षेत्र का है तो ग्लोबल ट्रेड में भाषा प्रवेश कर जाती है। पूंजी निवेश के अनुपात में भाषा के उपयोग का अनुपात बढ़ता है। इसलिए हिंदी का विकास भारत के भारत के अपने विकास पर निर्भर है।
वैश्विक बाजार में अगर भारत की भूमिका बढ़ेगी तो निश्चित रूप से हिंदी का क्षेत्र भी बढ़ेगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि आजकल राजभाषा हिंदी अपनी सीमाओं से बाहर आ चुकी है, वह नई प्रौद्योगिकी वैश्विक विपरण तंत्र और अंतरराष्ट्रीय संबंधों की भाषा बन रही है।
राजभाषा से एक नई वैश्विक भाषा के रूप में हिंदी बदल रही है। यह विकास की भाषा भी बन रही है। कंप्यूटर और मोबाइल के आ जाने के बाद पूरे विश्व में सूचना क्रांति आ गई और लोग घर बैठे इंटरनेट पर विश्व की कहीं की भी जानकारी प्राप्त करने लगे। उस समय यह मान लिया गया था कि कंप्यूटर और इंटरनेट केवल अंग्रेजी भाषाओं के लिए है लेकिन विश्व में हिंदी भाषा की अधिक मांग को दृष्टिगत रखते हुए अब फेसबुक और गूगल सर्च ने भी हिंदी को स्थान दे दिया, यहां तक कि स्वयं गूगल ऑनलाइन हिंदी टाइपिंग के लिए” गूगल हिंदी टाइपिंग टूल सेवा” प्रदान करता है।
इस संदर्भ में भारतेन्दू हरिश्चंद्र की यह पंक्तियां स्वयं ही परिभाषित करती हैं-
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय के शूल।
विविध कला शिक्षाअमित, ज्ञान अनेक प्रकार,
सब देशों से लै करहुं, भाषा माही प्रचार।
(लेखक सेवानिवृत्त उपनिदेशक हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)