अभिषेक श्रीवास्तव
बरसों बाद वामपंथियों के खुश होने का मुहूर्त आया है । किसी से भी बात करिये, पता नहीं क्यों सब मन ही मन खुश लग रहे हैं । चेहरे पर भले 370 बजा है, लेकिन दिल में अचानक एक उम्मीद जगी है । यह उम्मीद गहराती आर्थिक मंदी की ख़बरों से पैदा हुई है ।
बात गूढ़ है । समझने की है । एक दौर था जब लोग पैंट के नीचे कच्छा पहनते थे और वामपंथी चुन-चुन के कच्छे का रंग बताते थे । फिर आया मज़बूती का दौर । शर्ट का साइज़ छप्पन इंच हुआ तो कमर से नीचे का पहनावा भी उलट गया । 2014 के बाद अचानक लोगों की शर्म चली गई । आम आदमी सुपरमैन बन गया । पतलून के ऊपर कच्छां पहनने लगा । खुलकर अब वामपंथियों के पास सुरागदेही का कोई काम बचा नहीं । जिसे देखो वही निक्करधारी, कच्छाधारी सरेआम ।
सच्चे वामपंथियों ने कभी पैंट के नीचे कच्छा नहीं पहना । पाखंड से उन्हें आजीवन सख्त नफरत रही । इस मुल्क के स्तर साल में जो पाखंड पोसा गया, एक मज़बूत नेता ने आकर उसे तार-तार कर दिया । लोगों को हिम्मत दी कि वे सच्चे बनें, ईमानदार बनें । जो पहनें, खुलकर पहनें, दिखाकर पहनें । अपना लक पहन कर चलें । पांच साल तक लगातार ईमानदारी से अपना लक पहन कर चलने की सबकी आदत ने वामपंथियों को खुश होने का कारण मुहैया कराया है ।
बरसों पहले वामपंथियों के एक दुश्मन ने मंदी पर ज्ञान दिया था। उनका नाम था एलन ग्रीनस्पैन। बाद में वे अमेरिकी फेडरल रिजर्व के मुखिया भी रहे । वे कहते थे कि आर्थिक मंदी आने के तमाम संकेतों में एक प्रमुख संकेत यह है कि लोग कच्छा खरीदना कम कर देंगे । जून के आंकड़े इस बात की तसदीक करते हैं। जॉकी से लेकर काल्विन क्लीन, डॉलर आदि कंपनियों के कच्छों की बिक्री में भारी कमी देखी गयी है ।
अर्थशास्त्रियों ने कच्छे का नाड़ा पकड़ा, तो पाया कि ऑटो सेक्टर भी मंदी में फंस चुका है। ब्रिटेनिया के मालिक कह रहे हैं कि लोग पांच रुपया का बिस्कुट खरीदने से पहले सोच रहे हैं। लार्सन एंड टुब्रो के मुखिया कह रहे हैं कि मेक इन इंडिया फेल हो गया। टाटा के कारखाने बंद हो गए । हिंडाल्को निपट गया। मारुति की उड़ान थम गई। कैफे कॉफी डे के मालिक ने तो जान ही दे दी। पता चला कि बीजेपी के एक नेता का बेटा भी बेरोजगार होकर मर गया।
मने मामला कच्छे से चलते-चलते खुदकुशी तक पहुंच गया लेकिन यह देश मुसलमानों के मरने से ही संतुष्ट होता रहा। वामपंथी चालाक होते हैं। भावनाओं के चक्कर में नहीं पड़ते। सीधे सुषुम्ना नाड़ी पकड़ते हैं। अर्थव्यवस्था की नब्ज़ो पर उनका डेढ़ सौ साल से हाथ है । वे भांप गए कि अब कोई संकटमोचक, कोई रामचंद्र काम नहीं आने वाला । सबके कच्छे तार-तार होकर गिरेंगे क्योंकि कच्छे खरीदने की बुनियादी औकात ही जाने वाली है। अपना क्या है, हम तो वैसे भी न सुपरमैन हैं न निक्करधारी। जोजो ने सेक्रेड गेम्स के दूसरे मौसम में कहा है न- जो पेलेगा, वो झेलेगा।
एक और बात है जिससे वामपंथी मन ही मन हुलसे हुए हैं। वे जानते हैं कि मज़बूत नेता के पास अर्थशास्त्र जानने वाला कोई नहीं है। सब भाग गए हैं मौका देख के। बस समय की बात है, ये सरकार अब पटकायी तब पटकायी। उनकी इस सदिच्छा में कुछ तार्किकता हो सकती है, लेकिन दिक्कत ये है कि जनता के साथ इनका जुड़ाव नहीं है। ये लोग जनता के फार्मूलों को नहीं जानते। वरना मंदी की खबरों से वाकिफ़ होने के बावजूद मदमस्त जनता का राज़ खोज पाते।
परसों चौराहे पर पार्षदी के सक्षम एक बजरंगी उम्मीदवार से बात हो रही थी मंदी पर। मैंने उन्हें ऑटो सेक्टर में जाने वाली नौकरियों का ज्ञान दिया। वे ऐसे मुस् राये जैसे विष्णु भगवान से लक्ष्मी ने कुछ मूर्खतापूर्ण बात कह दी हो। बोलते भये- ”चलिए, इसी बहाने फिरोजवा का धंधा बंद होगा। न गाड़ी बिकेगी, न पंचर होगी, न इसकी दुकान रहेगी।”
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”लेकिन आपकी जिंदगी पर भी तो कुछ फर्क पड़ेगा?”मेरे इस सवाल पर उन्होंने ढाई किलो का अपना हाथ बाकायदे मेरे कंधे पर रख दिया और बोले- ”झांट नहीं फ़र्क पड़ेगा। चना चबेना खाकर राम-राम करते हुए काट देंगे। अकाल मृत्यु वह मरे जो काम करे चांडाल का, काल भी उसका क्या करे जो भक्त हो महाकाल का।” और कल्ले में पान दबाकर आगे-पीछे महाकाल लिखी हुई बाइक से वे फुर्र हो लिए ।
अर्थशास्त्र को समझना एक बात है। जनता को समझना दूसरी बात। नोटबंदी और जीएसटी इसका उदाहरण है। और इस बार के संकट में तो नुस्खा ज्यादा आसान है। कोई भी नारा दे सकता है- अंडरवियर से लंगोट की ओर लौटो। लंगोट हिंदू है। अंडरवियर ईसाई। अगर यह बात फैला दी गयी तो मंदी तेल लेने चली जाएगी। सारे तकनीकी काम इस देश में मुसलमान करते हैं, यह धारणा अगर स्थापित हो गयी तो मंदी पानी भरती नज़र आएगी।
एलन ग्रीनस्पैन जिस देश में पैदा हुए, वहां लंगोट नहीं पहनी जाती। अपने यहां तो एक ही सूत से झोला भी सिल लो, लंगोट भी और कच्छा भी। ऐसी परंपरागत सहूलियतें अर्थव्यहवस्था के लिए हिंदू शॉक एबजॉर्बर का काम करती हैं। याद करिये, एक ज़माने में हिंदू ग्रोथ रेट की बात होती थी कि नहीं? जहां हिंदू है, वहां मंदी भी एक बार को आने से पहले सोचती है। और गर आ ही गयी, तो हिंदू जनता को खुश कर जाएगी। उसे लगेगा चलो, एक झटके में कुछ कचरा तो साफ़ हो गया। कचरा समझते हैं न?
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भारत में बेअसर मंदी की आहटों को समझने के लिए बुनियादी रूप से यह समझना ज़रूरी है कि यहां ”चांडाल” किसे समझा जाता है। फिर मंदी क्या महामंदी भी महाकाल का प्रसाद दिखायी देगी। अपनी धर्मपारायण जनता उसके आगे नतमस्तक हो जाएगी।
मुझे डर है कि इस बार भी वामपंथियों की खुशी बीच में लटपटा न जाए। वे दुखी रहने को अभिशप्त जो हैं।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और लेखक हैं )
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