डा. रवीन्द्र अरजरिया
अतीत की मान्यताओं को स्वीकारना सुखद होता है। पुरातन परम्पराओं को रूढियां बनने की स्थिति से बचाने के प्रयास जीवित होते हैं। सकारात्मक पक्षों का प्रत्यक्षीकरण होता है। यही कारण है कि बाह्य आक्रान्ताओं ने सबसे पहले हमारी संस्कृति से जुडे संस्कारों पर कुठाराघात किया।
शक्ति के दबाव में स्वीकारोक्ति देने की बाध्यता ठहाके लगाने लगी। दमन की नीतियां पांव पसारने लगीं। ऐसे में मुट्ठी भर लोगों ने तर्क और परिणामों की कसौटी पर खरी उतरने वाली रीतियों को बचाने का काम किया।
आज वहीं रीतियां आम आवाम के मध्य लोकोत्सवों के सामाजिक स्वरूप के साथ अस्तित्व की लडाई लड रहीं हैं। वर्तमान में न तो किसी आगन्तुक आतिताई का अत्याचार है और न ही प्रत्यक्ष में चलने वाला कोई दमन चक्र ही दिखाई देता है।
इन सब से परे अप्रत्यक्ष में षडयंत्रकारी चालें मीठे जहर की तरह हमारी रगों में उतारीं जा रही है। अपने घर का पता भी दूसरे से पूछने का प्रचलन चल निकला है। बुंदेली आल्हा, बृज की रास जैसे कारक जब विदेशों के कथित विद्वानों के प्रमाण पत्र के साथ विकृत स्वरूप में वापिस लौटते हैं तब हमें उसे स्वीकार करने में गर्व का अनुभव होता है।
चिन्तन चल ही रहा था कि फोन की घंटी ने व्यवधान उत्पन्न कर दिया। दूसरी ओर से हमारे वर्षों पुराने मित्र एवं उत्तराखण्ड के जानेमाने लेखक जयसिंह रावत का स्वर सुनते ही बीते हुए पल सजीव हो उठे। उनका 80 के दशक का कार्यकाल सामने आ गया।
देहरादून से प्रकाशित होने वाला हिंदी और अंग्रेजी दो भाषाओं में निकलने वाला एक दैनिक अखबार तब बेबाक लेखनी के लिए खासा चर्चित हुआ करता था। इयर फोन पर हैलो-हैलो का स्वर तेज होता गया। चेतना में जागृति आई। वर्तमान का आभाष जागा। तत्काल फोन पर ही उनका आत्मिक स्वागत किया।
उन्होंने बताया कि वे देश की राजधानी आ चुके हैं और कुछ ही देर में हमारे आवास पर पहुंचने वाले हैं। कथनानुसार वे शीघ्र ही हमारे पास पहुंच गये। कुशलक्षेम पूछने-बताने के बाद हमने उनके सामने अपनी जिग्यासा रखी। सांस्कृतिक विलम्बना की समीक्षा चाही।
हंसी ठिठोली करने वाले जयसिंह रावत का चेहरा सपाट हो गया। चिन्ता की लकीरें उभर आईं। स्वार्थी लोगों की संतुष्टि को हथियार बनाकर प्रहार करने वाले आक्रान्ताओं की विवेचना करते हुए उन्होंने कहा कि प्राचीन समय में पूरी दुनिया को परिवार मानकर चलने की मानसिकता ने स्वयं तक सीमित होकर संकलन की प्रवृत्ति का बीजारोपण किया।
संकलन से भंडारण और भंडारण से वसीयत की स्थितियां निर्मित हुईं। यहीं से प्रारम्भ हुआ वर्चस्व का युद्ध, अहम की लडाई और तुष्टीकरण की मृगमारीचिका। सीमायें खींची जाने लगीं। उनके विस्तार के प्रयासों ने मूर्त रूप लेना शुरू कर दिया। लाभ-हानि का लेखाजोखा रखने वाले सशक्त लोगों ने स्वयं के कथित सुख के सिद्धान्तों को समाज पर थोपना शुरू कर दिया। समर्थकों की भीड जुटाने और चाटुकारों की फौज बढाने के कार्य चल निकले।
दर्शन के विस्तार को आवश्यकता से अधिक लम्बा होते देखकर हमने उन्हें बीच में ही टोकते हुए वर्तमान की स्थितियों को रेखांकित करने को कहा। एक गहरी सांस छोडते हुए उन्होंने कहा कि हर अपरिचित स्थिति को हम किसी चमत्कार से कम नहीं मानते। उसे आंख बंदकर के स्वीकार लेते हैं।
यही स्थिति घातक होती है। आक्रांताओं की शक्ति से प्रभावित होकर उनके संस्कारों को अंगीकार करने लगते हैं। आगन्तुकों के क्षेत्र विशेष की रीतियां वहीं की परिस्थितियों के अनुकूल रही होंगी परन्तु उनका परीक्षण किये बिना स्वीकारना सुखद कदापि नहीं हो सकता।
जब हमारा योग विदेशी धरती से योगा होकर लौटता है तब हम उसे स्वीकारते हैं। योगा मात्र चंद आसनों तक ही सीमित हो सकता है परन्तु हमारा पुरातन योग बेहद विस्त्रित है। यम, नियम सहित अनेक कारकों का समुच्चय है। भविष्य के लिए घातक होता है अंधा अनुसरण। चर्चा चल ही रही थी कि नौकर ने कमरे में प्रवेश किया और सेन्टर टेबिल पर चाय के साथ स्वल्पाहार की सामग्री सजाने लगा।
विचार मंथन की श्रंखला में व्यवधान उत्पन्न हुआ परन्तु तब तक हमारी जिग्यासा काफी हद तक शान्त हो चुकी थी। सो भोज्य पदार्थों को सम्मान देने की गरज से हमने सेन्टर टेबिल की ओर रुख किया।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार है यह लेख उनका निजी विचार है।)
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