सुरेंद्र दुबे
समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव इन दिनों अपने राजनैतिक कॅरियर के बहुत चुनौतीपूर्ण दौर से गुजर रहे हैं। वह वर्ष 2012 से वर्ष 2017 तक उत्तर प्रदेश के शक्तिशाली मुख्यमंत्री रहने के बावजूद इस समय अपनी राजनैतिक जमीन को उर्वरा बनाने की कोशिशों में लगे हुए हैं। उन्होंने समाजवादी पार्टी पर एकछत्र राज करने के लिए अपने पिता मुलायम सिंह यादव को पार्टी से बाहर तो कर दिया पर अभी भी वह मुलायम सिंह जैसी भूमिका में नहीं आ पाये हैं, जबकि जनता उनको मुलायम सिंह की छवि में ही देखना चाहती है।
अगर पार्टी सूत्रों की माने तो आगे की राह आसान बनाने के लिए बड़ेे पैमाने पर धरना व प्रदर्शन की राजनीति शुरु किए जाने का ताना-बाना बुना जा रहा है, ताकि जनता उनमें मुलायम सिंह यादव की छवि निहार सके।
वर्ष 2017 में विधानसभा चुनाव के पूर्व अखिलेश यादव ने मुलायम सिंह यादव को पार्टी के अध्यक्ष पद से अपदस्थ कर पार्टी पर पूरी तरह कब्जा कर लिया। चाचा शिवपाल यादव को भी अपने पोलिटिकल रिंग में घुसने नहीं दिया। बड़ी तमन्नाओं से विधानसभा का चुनाव लड़े पर अकेले एक मुलायम सिंह यादव के न होने से 224 सीटों से सिमट कर 47 पर आ गई। इस पहले ही रणथंबौर में अखिलेश यादव ने कांग्रेस से गठबंधन कर चुनाव लड़ा जिसका मुलायम सिंह यादव लगातार विरोध करते रहे।
मुलायम सिंह ने हमेशा कांग्रेस से दोस्ती रखी पर कभी भी उनके साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ा। यह पहली गलती ही अखिलेश यादव को भारी पड़ गई क्योंकि वह यह बात समझ ही नहीं पाये कि कांग्रेस का मुस्लिम वोट बैंक तोड़कर उसमें अपनी जाति यादवों का वोटबैंक जोड़कर ही मुलायम सिंह ने राजनीति की।
वर्ष 2019 में जब लोकसभा चुनाव हुए तो फिर अखिलेश यादव ने राजनैतिक अदूरदर्शिता का परिचय देते हुए मायावती की पार्टी बहुजन समाज पार्टी से जल्दबाजी में गठबंधन कर लिया। बगैर यह ध्यान रखे कि आज भी गांवों में सारा संघर्ष अनुसूचित जातियों और पिछड़े वर्ग के बीच ही है, जिसमें यादवों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रहती रही है जो काफी अर्से तक मुलायम सिंह के उद्भव के बाद सत्तासीन रहे हैं।
वैसे भी बहन मायावती का जो राजनैतिक स्टाइल है उसमें उनका किसी भी पार्टी से ज्यादा दिन गठबंधन चलने का इतिहास नहीं रहा है। वह कभी भी बिदक सकती हैं और वो वाकई लोकसभा चुनाव परिणाम आने के बाद बिदक गईं और अखिलेश यादव से चर्चा किए बगैर एक तरफा राजनैतिक तलाक दे दिया। इस तलाक में भी मायावती फायदे में रहीं। जहां उनकी पार्टी वर्ष 2014 में खाता खोलने में कामयाब नहीं रही थी वहीं वर्ष 2019 में उनकी पार्टी की 10 सीटों की लॉटरी लग गई। बहनजी के लिए अपनी पार्टी का झंडा बुलंद करने के लिए इतनी सीटें काफी थी।
अब रहे अखिलेश यादव तो उनका वर्ष 2014 तथा वर्ष 2019 में स्कोर तो एक ही रहा यानी कि पांच की पांच सीटें ही जीत लीं पर वर्ष 2014 में जहां उनके परिवार के पांचों सदस्यों ने चुनाव अच्छे मतों से जीता था, वहीं वर्ष 2019 में बदायूं से धर्मेंद्र यादव, कन्नौज से अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव और फिरोजाबाद से राम गोपाल यादव के बेटे अक्षय यादव चुनाव हार गए।
इन दोनों चुनावों में एक समानता थी कि मुलायम सिंह यादव कहीं भी पार्टी के चुनाव प्रचार के लिए नहीं उतरे। मुलायम सिंह की पार्टी अखिलेश यादव की पार्टी बनकर रह गई, परंतु पार्टी कैडर तथा सपा के चाहने वाले मुलायम सिंह की छवि को ही खोजते रहे। सपा परिवार के करीबियों का मानना है कि अखिलेश यादव को अब इस बात का एहसास हुआ है कि लोग उनमें जुझारू मुलायम सिंह को ढूंढ रहे हैं इसलिए अब वह जुझारू दिखने की कोशिश में लग गए हैं।
उन्हें पहला मौका सोनभद्र कांड के दौरान मिला जहां कांग्रेस की प्रियंका गांधी उनसे बाजी मार ले गईं। अखिलेश यादव बाद में सोनभद्र पहुंचे। दूसरा मौका उन्नाव बलात्कार कांड की पीडि़ता की सड़क दुर्घटना ने दिया। यहां भी कांग्रेसी बाजी मार ले गए। अखिलेश यादव कोई धरना-प्रदर्शन करने की योजना बनाते ही रह गए। हां पीडि़ता को देखने मेडिकल कॉलेज गए जहां उन्होंने 10 लाख रुपए पीडि़त परिवार को दिए और उनके रहनुमा बनकर उनकी लड़ाई लडऩे का आश्वासन दिया। इस मौके को भुनाने के लिए समाजवादी पार्टी कुछ बड़ा आंदोलन करने की कोशिश में है, ताकि जनता को लगे कि अखिलेश में भी मुलायम की तरह जुझारू नेता बनने का माद्दा है।
हांलाकि समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह यादव के पराभव के बाद अखिलेश यादव से पार्टी संभाले नहीं संभल रही है, जैसे राष्ट्रीय जनता दल में लालू प्रसाद यादव के जेल जाने के बाद पूरा कुनबा बिखर गया, वैसा ही हाल सपा का है। मुलायम सिंह भले ही जेल नहीं गए हैं पर अखिलेश यादव ने उन्हें पार्टी से अलग-थलग कर दिया है। वह एक राजनैतिक निर्वासन का जीवन व्यतीत कर रहे हैं। बस कहने भर को पार्टी के संरक्षक हैं, जबकि उन्हें स्वयं इस समय संरक्षण की जरूरत है।
अखिलेश यादव को मुलायम सिंह यादव ने एक भरी-पूरी राजनैतिक विरासत सौंपी पर अखिलेश उसे संभाल नहीं पा रहे हैं। वह 2012 से वर्ष 2017 तक पूर्ण बहुमत से मुख्यमंत्री रहने और पार्टी अध्यक्ष होने के बावजूद उनकी पार्टी पर मुलायम सिंह की तरह कोई पकड़ नहीं है।
अखिलेश यादव के चाणक्य चाचा राम गोपाल यादव ने दूसरे चाचा शिवपाल यादव को पूरी तरह से पार्टी से अलग-थलग तो करवा दिया परंतु पार्टी संगठन को वह भी मजबूत करने में नाकाम रहे। जो समाजवादी पार्टी कभी मुलायम सिंह यादव के इशारे पर नाचती थी और पूरे देश में पिछड़ों की एक शक्तिशाली पार्टी समझी जाती थी उसकी वर्ष 2017 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में करारी हार हुई और भाजपा प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आ गई।
कहते हैं कि गायत्री प्रजापति जैसे बदनाम नेताओं के कारण सपा को अपमानजनक पराजय का मुंह देखना पड़ा, परंतु इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि मुलायम सिंह के पास इस तरह के दागी नेता हमेशा रहे हैं, परंतु उनमें संगठन को जोड़े रहने और राजनैतिक दूरदर्शिता की अद्भुत कला थी। इसलिए तमाम बदनामियों के बाद भी जनता उनकी कुछ नेकाकामियों और उनके आत्मीय व्यवहार से प्रभावित होकर वोट दे देती थी। अखिलेश यादव को यह सब विरासत में मिला परंतु वह जनता के साथ कनेक्ट नहीं कर पाये। मुलायम सिंह जहां जोड़ते थे वहीं अखिलेश यादव बिदक जाने के लिए मशहूर हैं।
पार्टी के तमाम नेता बताते हैं कि जब वह नेताजी से मिलने जाते थे तो हर एक से तपाक से मिलते थे और कभी यह एहसास नहीं होने देते थे कि वह बहुत बड़े नेता है। आधे से ज्यादा समय पार्टी व सरकार के कामकाज के बारे में फीडबैक लेते थे और उसके आधार पर अपनी चाले चलते रहते थे।
खुद कम बोलते थे और दूसरों की कम सुनते थे। कभी-कभी तो यह भी एहसास कराते थे कि आया हुआ कार्यकर्ता उनसे ज्यादा बुद्धिमान है, जिसे सुनकर कार्यकर्ता फूलकर कुप्पा हो जाता था। पर अखिलेश यादव के साथ उल्टा है। उनसे जो कोई भी मिलने जाता है उससे वह अपनी कारस्तानियों की डींगे हांकते हैं और उसे यह एहसास कराते हैं कि वह उससे कहीं ज्यादा बुद्धिमान हैं। इसलिए जो कार्यकर्ता दिल से जुड़े थे वे धीरे-धीरे दूर हो गए और गणेश परिक्रमा करने वाले पार्टी में महत्वपूर्ण जगहों पर काबिज हो गए।
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