के. पी. सिंह
सुशासन के मुहावरे को सत्ता चर्चा के केन्द्र में लाने का श्रेय भाजपा को ही है। पर आजकल उत्तर प्रदेश में यही मुहावरा भाजपा के लिए मुसीबत की सबसे बड़ी जड़ बन गया है। एक ही दिन में अपराध नियंत्रण के मोर्चे पर दो ताजा बड़ी घटनाओं ने प्रदेश को हिलाकर रख दिया है। संभल में तीन खूंखार कैदी दो सिपाहियों की हत्या कर चंदौसी में पेशी से मुरादाबाद जेल जाते समय भाग निकले, जिससे पुलिस के इकबाल की धज्जियां उड़ गई।
उधर सोनभद्र में जमीन के विवाद में छिड़ा प्रचंड खूनी संघर्ष नरसंहार में तब्दील हो गया। इन दोनों भीषण घटनाओं के बाद विपक्ष को सरकार पर हमलावर होने का मौका मिल गया है। बहुत जल्द ही प्रदेश में एक दर्जन विधानसभा क्षेत्रों में उपचुनाव होने जा रहे हैं। अगर राजनीतिक वातावरण सामान्य होता तो ये दोनों कांड सरकार में बैठे लोगों की नीदें उड़ाने का सबब बन जाते।
लेकिन लोकसभा चुनाव का खुमार जनमानस पर अभी भी छाया हुआ है जिसकी वजह से फिलहाल कितनी भी बड़ी घटनाये सरकार का कोई नुकसान नहीं कर सकती। लोगों के इस रवैये पर अचरज होता है क्योंकि योगी सरकार के लिए पहले सिर मुड़ाते ही ओला पड़ने की स्थिति पैदा हो गई थी जब नई नवेली होते हुए भी उसने अपने कब्जे की तीन लोकसभा सीटें विपक्ष के हाथों गंवा दी थी।
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उत्तर प्रदेश में पुलिस की यह नाकामी सुशासन के अभाव का नतीजा है। चूंकि पुलिस से जुड़ी विफलताओं का एक्सपोजर ज्यादा होता है इसलिए पुलिस के कारण सरकार की साख पर जल्दी आंच आने लगती है पर उत्तर प्रदेश में गवर्नेंस जैसे कहीं लापता है जिसके चलते हर विभाग अराजकता और भ्रष्टाचार की खाई में समा चुका है।
अपराध नियंत्रण के लिए होना यह चाहिए कि पुलिस में पेशेवर दक्षता का विकास किया जाये लेकिन बदमाशों को ठोक देने की छूट पुलिस को हासिल कराने जैसी घोषणायें सरकार के नौसिखिएपन का इशारा कर रहीं हैं। रूल आफ लाॅ में बहुपक्षीय व्यवस्था के उसूलों पर काम होता है। इसमें स्पष्ट है कि अपराध नियंत्रण के क्षेत्र में पुलिस का कार्यक्षेत्र कहां तक है और इसके बाद कहां से न्यायपालिका की सीमा शुरू हो जाती है। राज्य सरकार का सबसे बड़ा दोष यह है कि वह विकृत सामाजिक धारणाओं के आधार पर काम कर रही है जिसके चलते उसके नेतृत्व में दम्भ पोषित हो रहा है।
अपराध नियंत्रण के नाम पर बदमाशों को ठोक डालने का वैधानिक दृष्टि से त्रुटिपूर्ण ऐलान जुबान पर आना इसी दम्भ की अभिव्यक्ति है। पुलिस भी इसमें निहित भावनाओं को पकड़ चुकी है इसलिए कौन ठोका जायेगा उसके सामने यह स्पष्ट है। उसे पता है कि कहां अपराध रूपांतरित होकर पराक्रम में ढ़ल जाता है इसलिए कई ऐसे लोग जिन्हें जनमानस भले ही अपराधी समझता हो लेकिन पुलिस उन पराक्रमियों की वंदना, अभ्यर्थना करती देखी जा रही है। अधिकारियों की ट्रांसफर पोस्टिंग में भी ऐसी सामाजिक धारणाओं को महत्व मिल रहा है। जिससे उसके कामकाज का तरीका और ज्यादा एकपक्षीय हो चला है।
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दूसरी ओर एसपी से लेकर कोतवाली प्रभारियों तक की पोस्टिंग में लेनदेन की गूंज पूरे प्रदेश में सुनाई दे रही है। यह दूसरी बात है कि सत्ता के शीर्ष तक इसकी जानकारी पहुंचने का मार्ग कर्ताधर्ताओं की जड़ बुद्धि के कारण अवरूद्ध हो। इन स्थितियों ने पुलिस को खोखला कर दिया है। वैसे तो डीजीपी अपने स्तर से दागी पुलिस कर्मियों की खोज करके उन्हें नौकरी से बाहर करने का अभियान चलाने का दावा कर रहे हैं लेकिन हकीकत में इस नाम पर केवल खाना पूरी हो रही है। हालत यह है कि कुछ साल की नौकरी करने वाले सिपाही तक जायलो जैसी महंगी लग्जरी गाड़िया रखे हुए है और कोई देखने वाला नहीं है। अगर सरकार ईओडब्ल्यू से सर्वे कराकर कार्रवाई पर आमादा हो जाये तो आधे से ज्यादा पुलिस बाहर हो जायेगी।
हालांकि ऐसा करना व्यवहारिक रूप से संभव नहीं होगा लेकिन सरकार को कम से कम निगरानी और पूछताछ में सक्रियता लाकर ऐसी हनक तो पैदा करनी ही पड़ेगी जिससे काली कमाई के एक्सपर्ट पुलिस कर्मियों में भविष्य के लिए भय पैदा हो ताकि उनके संयमित होने से आम जनता का शोषण रूक सके।
ट्रांसफर पोस्टिंग में नीलामी के दौर ने मुनाफा सहित अपने निवेश को निकालने की दौड़ में हर स्तर पर पुलिस को इतना व्यस्त कर दिया है कि उन्हें अपराधों पर नजर रखने की फुरसत ही नहीं मिल पा रही है। हर शहर कस्बे में सटटा हो रहा है, हर गांव में जुआ के फड़ ठेका लेकर सजवाये जा रहे है, जिनमें लाखों की हार जीत होती है। कार्रवाई के नाम पर अगर कभी कुछ होता भी है तो कुछ घंटे के लिए कोतवाली लाकर छुटभैयों को बैठा लिया जाता है और थाने से ही उन्हें मुचलके पर छोड़ दिया जाता है। जुआ और सटटा के संचालकों पर गैंगस्टर लगाकर उनकी संपत्ति कुर्क करने जैसी कार्रवाइयां क्यों नहीं की जा रही हैं। यह दर्शाता है कि पुलिस के पास कोई प्रोफेशनल कार्ययोजना नहीं है।
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यातायात सुरक्षा अभियान चलाकर लोगों की गाड़ियों के चालान से वह अपनी हनक कायम करना चाहती है जबकि इसका संबंध अपराध नियंत्रण से नहीं केवल लोगों में नियमों के पालन की भावना पैदा करने से है। दिखने वाले अपराधों में न केवल पुलिस की उदासीनता बल्कि काली कमाई के चक्कर में घनिष्ट सहभागिता तक जब तक बनी रहेगी तब तक अराजक तत्वों के हौसले पस्त नहीं होगे।
पुलिस ने वर्तमान दौर को राम नाम की लूट का अवसर समझ लिया है। अन्याय और पुलिस कर्मियों के भ्रष्टाचार की शिकायत पर कोई प्रभावी कार्रवाई नहीं होती। सरकार का एजेंडा अजब है। वर्ग विशेष और जाति विशेष के लोगों को दबकर रहना सिखाना उसका मुख्य मकसद नजर आता है। इसमें जो पुलिस अफसर चूक जाये फिर वह नितिन तिवारी जैसा बेहतरीन ट्रैक रिकार्ड का अफसर ही क्यों न हो तभी कोई कार्रवाई की जाती है।
कुल मिलाकर आलम यह है कि आम जनमानस ने यह समझ लिया है कि सरकार में भ्रष्टाचार और कोताही को रोकने की कोई इच्छा शक्ति नहीं है। इसलिए उन्होंने अन्याय और बदइंतजामी बर्दाश्त करना अपनी नियति मान लिया है।
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सत्ता पक्ष के लोग इसे भाजपा के प्रति दुराग्रह की भावना रखने वाले आलोचकों की भड़ास कहकर खारिज कर सकते हैं लेकिन ऐसा होता तो योगी सरकार की विफलताओ के समय लोग कल्याण सिंह के पहले कार्यकाल को याद क्यों करते जो उत्तर प्रदेश में पहली भाजपा सरकार के पहले मुख्यमंत्री थे। उस समय किसी ने ट्रांसफर पोस्टिंग में बोली लगने का आरोप नहीं लगाया था।
अपराध नियंत्रण के नाम पर अंधाधुंध पुलिस एक्शन नहीं हो रहा था। स्पष्ट कार्ययोजना थी। हर थाने पर चर्चित अपराधियों की टापटेन सूची बिना किसी जाति धर्म के भेद के बनवाकर अभियान चलवाया गया था और विभिन्न श्रेणियों के माफिया सूचीबद्ध करके संगठित अपराधों के खिलाफ कारगर अभियान चलाया गया था। कल्याण सिंह कार्यकाल शानदार प्रोफेशनल पुलिसिंग के रूप में स्थापित हुआ था।
आज तो किसी थाने में कोई काम बिना पैसे के नहीं हो रहा। रिपोर्ट लिखाने के लिए भी पैसे देने पड़ रहे है और कार्रवाई के भी। केस झूठा प्रमाणित हो जाये तो भी बेकसूर को बिना पैसे दिये निजात नहीं मिल सकती। आखिर पुलिस कर्मियों की हर समय पैसे मांगने की हिम्मत कैसे पड़ रही है। क्या उन्हें शासन का डर नहीं है। पुलिस के डिरेल बने रहने से संगीन अपराध बढ़ते ही जायेगे। कई बार कुछ समय के लिए अपराध थम जाते हैं जिसकी वजह से यह गफलत नहीं होनी चाहिए कि बिना कुछ किये इंतजाम ठीक ठाक होता जायेगा।
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मुख्यमंत्री को भ्रष्टाचार पर नियंत्रण की अपनी हर घोषणा के हश्र को लेकर चिंता करनी पड़ेगी। उन्होंने प्राईवेट प्रैक्टिस करने वाले डाक्टरों को चेताया था लेकिन एक भी डाक्टर उनके हुकुम का अदब करने की जरूरत महसूस नहीं कर रहा। जिलों के नाम बदलने, धार्मिक आयोजनों को भव्यता के साथ सम्पादित कराने, गौ रक्षा आदि अभियान उस समय अतिक्ति प्रतिष्ठा बढ़ाने में सहायक हो सकते हैं जब मूल गवर्नेस चुस्त दुरूस्त हो। यह तो ऐच्छिक विषय हैं, अगर अनिवार्य विषयों में सरकार फेल है तो उसका इतर एजेंडा उसकी प्रतिष्ठा के लिए घातक बन सकता है। इसलिए सीएम योगी को शानदार गवर्नेंस दिखाने की कमर कसनी चाहिए।