के पी सिंह
उत्तर प्रदेश भाजपा की कमान स्वतंत्रदेव सिंह को सौपे जाने में कुछ भी अप्रत्याशित नहीं है क्योंकि डा0 महेन्द्र नाथ पाण्डेय की केन्द्रीय मंत्रिमंडल में शपथ के बाद पहले दिन से ही स्वतंत्रदेव उनके उत्तराधिकारी माने जा रहे थे। मीडिया में इस पद के लिए स्वतंत्रदेव के चुनाव के पीछे बैकवर्ड कार्ड को अधिक महत्व से दर्शाया जा रहा है। उनकी नियुक्ति के पीछे यह भी एक कारक हो सकता है लेकिन मुझे उनके नाम की घोषणा पर अपने कालेज के दिनों की हिट फिल्म रजनीगंधा की याद आ रही है।
फिल्म के हीरो अमोल पालेकर और हीरोइन विद्या सिंहा थी। दोनों में उस ग्लैमर का पूरी तरह अभाव था जो फिल्मों के हीरो हीरोइन के लिए अनिवार्य समझा जाता था। इसलिए फिल्म सफल होने की कल्पना दुस्साहसिक थी लेकिन जब फिल्म सफल हुई तो वालीबुड के लिए यह किसी क्रांति से कम बड़ी परिघटना नहीं मानी गई। अपने बीच के आम चेहरे को दर्शकों ने फिल्म में प्रमाणिक और आत्मीय मानकर उनके लिए जो स्नेह उड़ेला उससे लोगों की मनोवैज्ञानिक समझ का एक नया पहलू सामने आया।
फिल्म की तरह राजनीति में भी विलक्षण और चमत्कारिक व्यक्तित्व के आगे तक जाने का अंदाजा किया जाता था। यह धारणा आजादी के बाद के कई दशकों तक पुख्ता रही। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को एक परंपरागत संस्था माना जाता है लेकिन इस मामले में संघ ने जमीन तोड़ने का काम किया। नरेन्द्र मोदी जब पहली बार गुजरात के अंतरिम मुख्यमंत्री बनाये गये थे तो असाधारण के नाम पर उनके पास कोई पूंजी नहीं थी।
उनकी उपलब्धि को गणेश परिक्रमा के तौर पर लिया गया था और कोई नहीं मान रहा था कि वे मुख्यमंत्री के रूप में भी लम्बी पारी खेल पायेगे। लेकिन आगे चलकर साबित हुआ कि समाज और राजनीति के क्षेत्र के अपने को सबसे विद्वान पंडित मानने वाले लोगों को अपनी परख के पैमाने बदल लेने चाहिए। अवसर मिलने पर राजनीति में आम कार्यकर्ता की अतर्निहित असाधारण क्षमतायें इतने विलक्षण तरीके से प्रस्फुटित हो सकती हैं, नरेन्द्र मोदी के उदाहरण से यह साबित हुआ।
जब वे प्रधानमंत्री पद के लिए प्रोजेक्ट किये गये तो फिर इसे जोड़-तोड़ का परिणाम मानकर उनकी उस महिमा को न समझने की भूल की जा रही थी जो आगे चलकर प्रकट हुई। अब उनके विरोधियों तक को यह स्वीकार है कि इतिहास उन्हें हिन्दुस्तान के सबसे मजबूत प्रधानमंत्री के तौर पर दर्ज करेगा।
लोगों के लिए अविश्वसनीय और अस्वीकार्य
राजनीति में स्वतंत्रदेव सिंह जब तक काग्रेस सिंह थे जो कि उनका वास्तविक नाम है वे जो पींगे बढ़ा रहे थे उससे उनको वरिष्ठों की शाबाशी तो मिल रही थी लेकिन कोई उन्हें बहुत बड़ी शख्सियत के रूप में उभरने के तौर पर नोटिस में नहीं ले रहा था। स्वतंत्रदेव सिंह का नाम उनके लिए गढ़े जाने के बाद भारतीय जनता युवा मोर्चा में वे देश के सबसे बड़े सूबे के अध्यक्ष बने तो लोगों के लिए यह अविश्वसनीय था और अस्वीकार्य भी। इतनी बड़ी जिम्मेदारी पाने की संभावना के लिए जो गढ़ा हुआ सांचा तब तक मौजूद था स्वतंत्रदेव सिंह कहीं से उसमें फिट नहीं माने जा रहे थे।
मिर्जापुर भले ही उनकी जन्म भूमि हो लेकिन उनकी राजनीतिक कुंडली जालौन जिले के बेस पर तैयार की गई है। जिस जिले में उस समय बाबूराम एमकाम जैसे वटवृक्ष की छत्रछाया में भाजपा पोषित हो रही थी। बाबूराम का कद स्थानीय नेता तक सीमित नहीं था। राजेन्द्र गुप्ता और रामप्रकाश गुप्ता के अवसान के बाद वैश्यों की पार्टी कही जाने वाली भाजपा उस समय गर्दिश का जो दौर झेल रही थी उससे उबरने के लिए पार्टी के मूल वोट बैंक को सहेजने के तौर पर बाबूराम एमकाम को मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी देने तक का विचार मंथन पार्टी के अंदरूनी हलकों में शुरू हो गया था।
भाजपा को हार का मुह देखना पड़ा
इसी कारण 2007 में उनके छोटे पुत्र की दुर्घटना में मृत्यु की घनघोर परिस्थिति के बावजूद उन्हें विधान सभा चुनाव लड़ने के अवसर से वंचित करने का क्रूर षड़यंत्र पार्टी के अंदर अंजाम दिया गया, जिसके चलते कानपुर क्षेत्र की कम से कम 10 सीटों पर वैश्य समाज के मुह मोड़ लेने से भाजपा को हार का मुह देखना पड़ा।
तो ऐसे कददावर बाबूराम के आशीर्वाद के बिना उनके जिले का एक युवक पार्टी में इतने ऊंचे मुकाम पर पहुंच जाये तब उसकी खैर नहीं होनी चाहिए थी। भारतीय जनता युवा मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष पद पर उनकी ताजपोशी को गणेश परिक्रमा का नतीजा बताकर भविष्य के लिए उनकी राह में स्पीड ब्रेकर खड़ा करने का काम किया गया। उनका कोई गाडफादर भी नहीं था फिर भी उस समय के संघ और भाजपा के कर्ताधर्ताओं की निगाह में उनके नम्बर कैसे बढ़े यह जानने के बाद आज भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष तक उनके पहुंचने का सफर बहुत सहज लगता है।
युवा मोर्चा का सबसे शानदार राष्ट्रीय अधिवेशन किया
एक ओर उनका मनोबल तोड़ने की मुहिम थी तो दूसरी ओर उनका काम। स्वतंत्रदेव सिंह ने भारतीय जनता युवा मोर्चा के संगठन को जिलों से ब्लाक तक बिजली की तरह गतिशील रखने के लिए ताबड़तोड़ दौरे किये। इसके बाद अपनी मेजबानी में आज तक का भारतीय जनता युवा मोर्चा का सबसे शानदार राष्ट्रीय अधिवेशन आगरा में आयोजित कराकर यह प्रमाणित कर दिया कि उनमें कितनी अंतर्निहित सांगठनिक ऊर्जा है।
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2014 में जब भारतीय जनता पार्टी ने नये युग में प्रवेश किया तब मोदी-शाह से उनका ठीक से परिचय तक नहीं था। लेकिन जल्दी ही वे अपनी इसी कार्यक्षमता की बदौलत पार्टी के इन शिखर पुरूषों की निगाह में भी चढ़ गये। मोदी ने अपने गृह राज्य गुजरात के चुनाव अभियान के सुव्यवस्थित संचालन के लिए भी उनकी जरूरत महसूस की। देश का कोई कोना ऐसा नहीं बचा जहां वे पार्टी को सेवाये देने के लिए न गये हो। योगी सरकार में उनके पास परिवहन विभाग की अहम जिम्मेदारी रही लेकिन उनकी इस उपयोगिता की वजह से ही पार्टी ने उन्हें चुनाव भर मध्य प्रदेश में मोर्चा संभाले रहने के लिए नियुक्त रखा।
खेला है अमोल पालेकर कार्ड
तो यह नहीं भूला जाना चाहिए कि संगठन का उनका जो यह बेमिसाल अनुभव है वह किसी भी कार्ड से ज्यादा महत्वपूर्ण है और इसीलिए उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया है। स्वतंत्रदेव कुर्मी समाज से हैं जरूर लेकिन अस्मिता की राजनीति का उन्होंने सदैव संवरण किया है। सभी जातियों में लोगों से उन्होंने आत्मीयता पूर्ण निजी रिश्ते बनाये हैं। स्वतंत्रदेव का यह जो स्थान है उसमें उनके साथ बैकवर्ड धारणा को जोड़ना उनके प्रभाव को सीमित करने की तरह है। पार्टी ने उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाकर अगर कोई कार्ड खेला है तो वह अमोल पालेकर कार्ड है।
अमोल पालेकर सफल हीरो तो हुए लेकिन सुपरस्टार नहीं बन पाये जबकि संघ के पहले अमोल पालेकर यानि नरेन्द्र मोदी तो मिलेनियम स्टार से भी आगे निकल गये। अब स्वतंत्रदेव उत्तर प्रदेश में संघ के अमोल पालेकर के रूप में सामने लाये गये हैं तो उनके आगे जाने की संभावनाओं का आंकलन करने में संकुचित हृदय का परिचय देने की चूक नहीं की जा सकती।