Friday - 25 October 2024 - 4:03 PM

उलटबांसी- ढक्‍कन खोलने और बचाने की जंग

अभिषेक श्रीवास्तव

बनारस में मुड़कट्टा बाबा का मंदिर है। मंदिर में उनका धड़ विराजमान है। मूड़ी कटी हुई है। चूंकि वे बाबा हैं, तो उनकी लैंगिक पहचान तय है। वरना बाबा स्‍त्रीलिंग भी होते हैं।

हरियाणा के भिवानी में तोशाम की पहाडि़यां हैं। वहां के लोग तोशाम बाबा की पूजा करते हैं। यह बाबा स्‍त्री है। जिसकी मूड़ी कटी हुई हो, उसकी पहचान तो मुश्किल होती ही है।

ज़रूरी नहीं कि जिसकी मूड़ी हो, उसकी लैंगिक पहचान तय ही हो। इसीलिए मनुष्‍य की असल पहचान उसकी लैंगिकता नहीं, उसका ज्ञान है। ज्ञान खत्‍म, तो आदमी भूत बन जाता है।

हमारे सिर में दिमाग होता है। सिर में चेहरा भी होता है। चेहरे में नाक, कान, आंख, मुंह। मुंह में जीभ। एक जीभ दिमाग में होती है जो दिखती नहीं, केवल देखती है। इसे आप दूसरी आंख भी कह सकते हैं। सिर कटे होने पर बच जाती है त्‍वचा।

त्‍वचा पर स्‍पर्श का अहसास बिना मस्तिष्‍क और उसकी तंत्रिका के हो नहीं सकता। इसलिए सिर का मतलब है संपूर्ण ज्ञान। ज्ञान ही मनुष्‍य की पूंजी है। ज्ञान अहं भी है। अहं तिरोहित होना यानी सिर कटवाना। पूंजी से हाथ धोना। ईश्‍वर के समक्ष मासूम लोग जीभ काटते हैं। कुछ सिर। चालाक लोग नारियल फोड़ते हैं। पशुओं की बलि देते हैं।

मान लीजिए एक दिन धरती तबाह हो जाए, न कुछ खाने-पीने को बचे, न संजोने को, न लोभ करने को, न सोचने को, न देखने को। सब मोह-माया खत्‍म। तब बचे हुए लोग अपने सिर का क्‍या करेंगे? सिर पीटेंगे।

जब किसी की मति मारी जाती है तो हम क्‍या कहते हैं उससे? ढक्‍कन हो क्‍या? कानपुर में कहेंगे- एकदम्‍मे टोपा हो क्‍या? मने खाली दिमाग ढक्‍कन होता है। टोपा होता है। ज्ञान मार्ग में उसकी कोई भूमिका नहीं होती। इसीलिए ज्ञान चुक जाए, उससे पहले भक्ति मार्ग अपना लेना चाहिए। सिर कटा लेना चाहिए। सिर पीटने से यह बेहतर है।

लेकिन आदमी तो शैतान है। इतनी सी बात नहीं समझता। बोतल से ढक्‍कन उड़ाने के खेल खेलता है। सिर को बेमतलब बचाए रखता है।

दसेक साल पहले एक वीडियो गेम अमेरिका में आया था। फॉलआउट। इसमें पोस्‍ट-अपोकलिप्‍स (यानी प्रलय के बाद)अमेरिका के जीवन का वर्णन था। सब कुछ न्‍यूक्लियर विस्‍फोट में तबाह हो चुका है। लोग आदिम बार्टर प्रणाली पर लौट आए हैं। उसका एक नया संस्‍करण खोज लाए हैं।

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बोतल के ढक्‍कन को मुद्रा बना लिए हैं। ढक्‍कन देते हैं, सामान लेते हैं। ढक्‍कन लेते हैं, सामान देते हैं। पूरी अर्थव्‍यवस्‍था ढक्‍कनों के विनिमय पर टिकी हुई है। ढक्‍कन ही सोना है। ढक्‍कन ही पूंजी। तबाही के बाद ढक्‍कनवाद नया पूंजीवाद है। कम्‍युनिस्‍ट इसके खिलाफ लड़ रहे हैं। वे ढक्‍कन बंद करने में लगे हुए हैं।

पूंजीवादी लोग किसिम किसिम से ढक्‍कन खोलने में लगे हुए हैं। यह कल्‍पना का अतिरेक है। दिमाग बंद, ढक्‍कन मुक्‍त। जिन्‍न बाहर।

चार दिन पहले रूस की एक महिला नास्‍त्‍या ज़ोलोटाया ने अपने नितंब से बोतल का ढक्‍कन खोल दिया। यहां अक्षय कुमार और टाइगर रिवर्स किक मारते रह गए।

बोतल का ढक्‍कन खोलने की चुनौती अब वैश्विक हो चली है। क्‍या जाने तबाही करीब हो। इतने ढक्‍कन खोल दो कि बाद में डॉलर की कमी अखरने न पाए। आंख में वर्चुअल थ्रीडी चश्‍मा लगा है। कान में मोबाइल का फुंतरू। नाक में मास्‍क। त्‍वचा पर ग्‍लोबल वार्मिंग से बचाने वाला लोशन। जीभ बच रही है किसी संभावना के इंतज़ार में। सिर का क्‍या है, पड़ा रहेगा धड़ के ऊपर। सींग के काम आएगा।

मनुष्‍य के विकासक्रम में कई चीज़ें अप्रासंगिक हो जाती हैं। कई चीज़ें पैदा भी हो जाती हैं। जैसे मोबाइल पर ज्‍यादा बात करने से सींग निकल आते हैं। अभी हाल में पता चला है। कुछ बच्‍चों के सिर से उभरते सींग पाए गए हैं। ये सींग जब पूर्ण विकसित हो जाएंगे, तब मॉब लिंचिंग की शिकायत खत्‍म हो जाएगी।

अभी हिंसा की क्राउड फंडिंग चल रही है। तबाही के बाद हिंसा एक मानवीय आवश्‍यकता होगी। इतनी मुश्किल से सींग उगी है। बिना हिंसा के कहीं गायब न हो जाए। लोग राह चलते सींग मारेंगे। सिर की उपयोगिता बस इतनी होगी। आदमी मने धड़ और सींग। इसके सहारे जो हाथ लगे, उसके सेवन के लिए बची-खुची जीभ। लेनदेन के लिए ढक्‍कन है ही।

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ज़माना कैसा भी हो, कवि हमेशा पाए जाते हैं। ढक्‍कनवाद में भी कवि होंगे। हिंसा की दैनंदिन अनिवार्यता से बेबस होकर किसी दिन कवि दुर्दमनीय तरीके से चीखना चाहेगा। पता चलेगा ऐन मौके पर मुंह खुला ही नहीं। मास्‍क जो लगा है। बाहर नाभिकीय रेडिएशन है।

ट्रक के पीछे लिखा है- चिखला त गइला बेटा। विज्ञान गल्‍प के लेखक हार्लन एलिसन ने 1967 में कहानी लिखी थी- आइ हैव नो माउथ एंड आइ मस्‍ट स्‍क्रीम (मेरे पास मुंह नहीं है और मैं चीखना चाहता हूं)। अपने यहां पचास साल बाद भी सब चीख रहे हैं, बिना जाने कि मुंह बचा भी है या नहीं। हर कोई चीखते हुए दूसरे चीखते से कह रहा है- अपना मुंह देखे हो? तब क्‍यों नहीं चीखे थे?

धड़ के ऊपर सिर का होना एक बात है। सिर में ज्ञानेंद्रियों का होना दूसरी बात। ज्ञानेंद्रियों का उपयोग करना तीसरी बात। आदमी जब से ज्ञानमार्गी हुआ है, कविता नष्‍ट हो गई है। भक्तिमार्गी कवि चीखने के खतरे समझता था। ढक्‍कन खोलने वाले को सीधे सिर सौंप देता था।

कबीर कहते हैं कि रामरस का स्‍वाद अगर लेना है तो कलाल को सिर सौंपना होगा।

कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आई / सिर सौपे सोई पिवै, नहिं तो पिया न जाई

चेला ज्ञानमार्गी था। उसने सोचा कि जिस सिर यानी मुंह से रसपान करना है वही सौंप दिए तो राम का स्‍वाद कहां से आएगा? उसने भक्तिमार्ग का शॉर्टकट अपनाया। पहले सारी ज्ञानेंद्रियां साकी को गिरवी रख दीं। फिर रामरस के नशे में डूब गया। यथा, आदमी का सिर बच तो गया, लेकिन बोतल का ढक्‍कन हो गया।

दुनिया की सारी लड़ाई इसी ढक्‍कन को बचाने और खोलने वालों के बीच की है। मेरा पक्ष इस जंग में नदारद है।

(लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं )  

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