सुरेन्द्र दुबे
एक कहावत है-घर में नहीं है खाने को, अम्मा चली भुनाने को
कुछ ऐसा ही काम हमारी केन्द्र व राज्य सरकारें कर रही हैं। नौकरियों का पता नहीं है, जो पद खाली पड़े हैं उन पर नियुक्तियां करने की सरकार की मंशा नहीं है। जो पद खाली हो रहे हैं उनकी जगह नियुक्तियां करने के बजाए रिटायर्ड लोगों को आउट सोर्सिंग के जरिए पुर्नियुक्त कर दिया जाता है। ये चलन केन्द्र से लेकर राज्य सरकारों तक जारी है।
हालत ये है कि 50 हजार रुपए महीना वेतन पाने वाला कर्मचारी जब रिटायर हो जाता है तो उसे आउटसोर्सिंग के जरिए दस हजार रुपए महीने पर पुर्नियुक्त कर दिया जाता है। एक तीर से दो साजिशें- पहली इस व्यवस्था से नये लोगों के नौकरी पाने का मार्ग अवरुद्ध हो गया।
दूसरे पचास हजार रुपए पाने वाले जिस कर्मचारी को दस हजार रुपए पर पुन: नियुक्त कर दिया जाता है, तो सरकार अपनी पीठ थपथपाती है कि उसने 40 हजार रुपए प्रतिमाह बचा लिया, पर जो कर्मचारी 50 हजार की जगह दस हजार रुपए महीने पर काम कर रहा है उसकी लाटरी लग गई है, क्योंकि कम से कम 30-35 हजार रुपए महीने वह पेंशन पा रहा है, दस हजार रुपए वेतन के रूप में पा रहा है और जो सुविधा शुल्क से कमा रहा है वह अलग, क्योंकि वह यह काम पहले भी करता था। अब क्यों नहीं करेगा?
2017 में संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान कार्मिक मामलों के मंत्री जितेंद्र सिंह ने लोकसभा को बताया था कि सरकार के पास मौजूद ताजा आंकड़ों के मुताबिक 1 जनवरी, 2017 तक सरकारी नौकरियों में SC/ST और OBC समुदाय के लिए आवंटित 28,713 पद खाली पड़े थे।
कार्मिक मंत्रालय के मुताबिक भारत सरकार के 78 मंत्रालयों और विभागों में कुल 32.57 लाख पद में से OBC के कोटे से 7.02 लाख भरे गए यानी 21.58 प्रतिशत जो 27 प्रतिशत के तय OBC कोटा से कम है।
इस हकीकत से दूर हमारी सरकारें रिक्त पदों को भरने पर ध्यान देने के बजाए आरक्षण का झुनझुना बजाकर बैकवर्ड, दलितों को वोट पाने के लिए बहलाती रही हैं। अब कोई इनसे पूछे कि जब आप ये नौकरियां देना ही नहीं चाहते तो आरक्षण की डफली क्यों बजा रहे हैं।
भाजपा सरकार ने पिछले कार्यकाल में सामान्य जाति के लोगों को भी दस प्रतिशत आरक्षण देने का झुनझुना थमा दिया। यह आरक्षण जारी किए हुए लगभग छह महीने हो गए हैं, परंतु इसके आंकड़े आजतक सामने नहीं आए कि सामान्य जाति, जिसका मतलब सीधे-सीधे सवर्णों से है, उन्हें इस व्यवस्था से कितनी नौकरियां मिलीं।
अभी देश में कुल 49.5 फीसदी आरक्षण है। अन्य पिछड़ा वर्ग को 27 फीसदी, अनुसूचित जातियों को 15 फीसदी और अनुसूचित जनजाति को 7.5 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था है।
आइये अब सीधे-सीधे मुद्दे की बात पर आते हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने 28 जून को मोस्ट बैकवर्ड 17 जातियों को अनुसूचित जाति का दर्जा देकर इन अति पिछड़े लोगों को वोट के लिए मूर्ख बनाने का काम किया है।
अब हमारे अति पिछड़े व अनुसूचित जाति के भाई-बहन भले ही इनके बहकावे में आ जाए पर वास्तविकता तो यही है कि सरकार वर्षों से खाली पड़े लाखों पदों को नहीं भर रही है। जब पद नहीं भर रही तो ये आरक्षण किसको देंगे।
उत्तर प्रदेश में करीब 65 हजार से अधिक रिक्त पद है। इनमें करीब 50 हजार पदों पर भर्ती यूपीएसएसएससी को करनी है। इसके अलावा सरकारी प्राथमिक स्कूलों में करीब 68500 सहायक अध्यापकों के लिए भर्ती होनी है। वहीं पुलिस में करीब 41520 पदों पर भर्ती होनी है। इसके अलावा भी अन्य विभागों में भारी संख्या में रिक्तियां है।
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पद भरना तो दूर रहा नौकरियों के लिए जो परीक्षाएं कराने का उपक्रम किया भी जाता है उनमें या तो पर्चा लीक हो जाता है या बड़े पैमाने पर नकल हो जाती है।
हालत तो यहां तक है कि परीक्षा कराने वाले संस्थान मनचाहे ढंग से अपने लोगों को नौकरी देने के लिए नियम व कानूनों में एकतरफा संसोधन कर लेते हैं। जिसके खिलाफ लोग अदालत चले जाते हैं।
अब अगर हमारी सरकार नौकरियों के लिए प्रतियोगी परीक्षाएं कराने में भी अपने को असमर्थ पाती है तो फिर उससे नौकरियां मिलने की उम्मीद क्यों लगानी चाहिए?
पिछले दो साल में राज्य सरकारों ने नौकरियां देने के नाम पर इसी तरह के कारनामे किए हैं। वैकेंसी निकलती है, लोग पैसा खर्च कर अप्लाई करते हैं, सौभाग्यशाली हुए तो परीक्षा भी दे लेते हैं और उसके बाद किसी न किसी कारण से परीक्षाएं रद्द हो जाती हैं।
हालात तो यहां तक खराब हैं कि तमाम युवक प्रतियोगी परीक्षा देते-देते ओवर ऐज हो गए हैं और अभी उनकी उन परीक्षाओं के भी रिजल्ट नहीं आए हैं जब वह वास्तव में ओवर ऐज नहीं हुए थे।
अब अगर रिजल्ट आ भी जाए तो क्या फायदा। ओवर ऐज होने के कारण ज्वाइन नहीं हो पायेंगे। इसके अलावा पुलिस भर्ती, सहायक अध्यापक और शिक्षामित्रों का मामला आपके सामने है।
अखिलेश सरकार में सुप्रीम कोर्ट ने शिक्षामित्रों को अमान्य करार दिया था और यह मामला अब तक चल रहा है। वहीं पुलिस भर्ती के कई मामले कोर्ट में लंबित है।
दरअसल केन्द्र हो या राज्य, हर जगह वोट को ध्यान में रखकर ही सारे काम किए जा रहे हैं। सरकार किसी हाल में मतदाताओं को नाराज नहीं करना चाहती।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)