शुभ्रा सुमन
लड़की कॉलेज जाने के लिए घर से निकलती है.. सलवार कमीज़ पर दुपट्टा ओढ़े हुए शर्माती सकुचाती हुई गली में बढ़ती है.. सामने से आती हुई मोटरबाइक की आहट सुनकर चौकन्ना हो जाती है.. उसको मालूम है कि संकरी गली में बगल से गुज़रती हुई मोटर बाइक के परिणाम दुश्वार हो सकते हैं..
उसके शरीर की बनावट और कपड़ों की कसावट पर भद्दी बातें कही जा सकती हैं, घटिया इशारों से उसे गाली दी जा सकती है, अनजान लोग जानबूझकर उसे छूकर निकल सकते हैं, उसे कोहनी मार सकते हैं, उसका दुपट्टा खींच सकते हैं, उसे अपमानित कर सकते हैं.. उसे सिर झुकाकर बच बचाकर आगे बढ़ना है.. ठहरकर रास्ता देना है.. वो लड़की है उसे संभलकर रहना ही चाहिए..
ये किसी फिल्म का सीन नहीं है.. छोटे शहरों में लड़कियों को आज भी ऐसी सोच और इन हालातों के बीच जीना पड़ता है.. लड़कियों की ज़िन्दगी नर्क बना देने वाली इस घटिया मानसिकता को ‘कबीर सिंह’ जैसी फिल्मों के ज़रिए सेलिब्रेट किया जाता है.. लड़की को घूरना, उसका पीछा करना, उसकी इंसल्ट, छेड़खानी से लेकर वायलेंस तक को कभी प्यार तो कभी मर्दानगी के नाम पर हीरोइक बनाया जाता है..
सिनेमा हाल में दर्शक कबीर सिंह के एटीट्यूड पर ताली बजाता है.. कबीर सिंह के स्टाइल पर खुश होता है.. लड़की उससे प्यार करने लगती है.. दोनों 545 बार सेक्स करते हैं.. सब गुडी-गुडी है.. कहानी में मोड़ आता है.. लास्ट में हीरो-हीरोइन का पैचअप हो जाता है.. पैसा वसूल.. क्या बिंदास पिक्चर है.. सही एक्टिंग है ब्रो.. फाडू मूवी..
अब फ़र्ज़ कीजिए कि लड़की को लड़के से प्यार नहीं हुआ.. रियल लाइफ में सौ में से नब्बे मामलों में यही होता है.. कबीर सिंह जैसे कैरेक्टर समाज का कोढ़ साबित होते हैं.. फ़िल्म कोढ़ को डेकोरेट करके आपको परोस देती है..
(शुभ्रा सुमन टीवी पत्रकार और एंकर हैं )