प्रीति सिंह
किसानों की आत्महत्या से अब किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। तभी तो देश में दशकों से किसान पलायन कर रहे हैं, आत्महत्या कर रहे हैं, लेकिन इस पर कोई शोर-शराबा नहीं है। सरकार अपने काम में मस्त है और लोग अपने में। दरअसल किसानों की समस्याओं से न तो सरकार को सरोकार है और न ही विपक्षी दलों को।
पिछले 20 साल में तकरीबन तीन लाख किसानों ने आत्महत्या कर ली और इस पर कोई शोर-शराबा नहीं हुआ। किसानों की आत्महत्याओं पर संसद में कृषि मंत्री बेतुका बयान देते हैं और सरकार इस पर चुप्पी साध लेती है। यह भारत में ही संभव है कि इतनी संख्या में किसान आत्महत्या कर रहे हैं और किसी को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। कोई दूसरा देश होता तो वहां की सरकार हिल जाती।
महाराष्ट्र में 2019 के शुरुआती चार महीनों में 808 किसानों ने आत्महत्या की है। इस लिहाज से चार किसान रोजाना आत्महत्या कर रहे थे। यह आंकड़ा दिल दहलाने वाला है। हर रोज चार किसान आत्महत्या कर रहे हैं लेकिन विधानसभा से लेकर संसद में इस पर कोई बहस नहीं।
वहीं 2018 में भी शुरुआती चार महीनों में 896 किसानों ने आत्महत्या की थी। महाराष्ट्र के विदर्भ में इस साल सर्वाधिक किसानों ने आत्महत्या की। अप्रैल के अंत तक यहां किसानों की आत्महत्या के 344 मामले सामने आए।
दरअसल किसानों को खेती-किसानी में इतना नुकसान उठाना पड़ता है कि वह कर्ज लेकर भी अपनी खेती को पटरी पर नहीं ला पा रहे है। इसका परिणाम है कि किसान निराशा में कभी रेल की पटरियों पर लेटकर, पेस्टीसाइड पीकर, कभी मवेशियों को बांधने वाली रस्सी अपनी गर्दन के चारों ओर लपेटकर, कभी नहर या कुएं में छलांग लगाकर तो कभी अपनी मां या पत्नी के दुपट्टे से मौत का फंदा बनाकर अपने ही खेत के किसी पेड़ पर ख़ुद झूल रहे हैं।
बीते दो दशकों से किसानों की लगातार खराब होती स्थिति और अनवरत जारी आत्महत्याओं के इस सिलसिले को देखते हुए यह साफ हो जाता है कि शायद किसानों के मरने से वाकई किसी को फर्क नहीं पड़ता।
इस हालात के लिए कौन है जिम्मेदार ?
किसान आज जिस समस्या से परेशान है वह आज की नहीं है। किसानों के आज के हालात के लिए किसी एक सरकार को जिम्मेदार ठहराना सही नहीं है। दरअसल किसानों की न तो कांग्रेस ने सुध ली और न ही वर्तमान सरकार ने। देश की सरकारों ने भले-चंगे किसानों को बीमार बना के अस्पताल में भर्ती करवा दिया। वर्तमान में किसान आईसीयू में पहुंच गए हैं। उन्हें उस आईसीयू से कैसे निकाला जाए, यह बड़ी चुनौती है।
किस संकट से जूझ रहे हैं किसान
देश के किसान कई संकट से जूझ रहे हैं लेकिन तीन बड़े संकट हैं जिसकी वजह से किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं।
सबसे बड़ी समस्या है कि आज खेती घाटे का धंधा बन गई है। किसान उम्मीद करता है कि उसे खेती में अगले साल मुनाफा होगा लेकिन उसकी उम्मीद पूरी नहीं होती। दुनिया का और कोई धंधा घाटे में नहीं चलता, पर खेती हर साल घाटे में चलती है।
दूसरी सबसे बड़ी समस्या है जल संकट। पानी जमीन के काफी नीचे पहुंच गया है, मिट्टी उपजाऊ नहीं रही और जलवायु परिवर्तन किसानों पर सीधा दबाव डाल रहा है। बुंदेलखंड, महाराष्ट्र , मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में पानी की समस्या बड़ी है। इन राज्यों के किसान सूखे की मार से परेशान है।
महाराष्ट्र में 2018-2019 का साल किसानों के लिए बहुत चुनौतिपूर्ण रहा। महाराष्ट्र की 42 फीसदी तालुकाएं सूखे का सामना कर रही हैं। इस सूखे ने राज्य के 60 फीसदी किसानों का प्रभावित किया है, इससे बड़े पैमाने पर किसानों की फसलें चौपट हुई हैं। यही हाल बुंदेलखंड का है। मध्य प्रदेश में भी कई जिलों में पीने के पानी के लिए लोग तरस रहे हैं तो खेतों की सिचाई के लिए पानी की कल्पना करना बेमानी है।
किसानी के अस्तित्व पर संकट
भारत के लिए किसानी की क्या भूमिका है इससे सभी वाकिफ है। कृषि देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है लेकिन आज उसी के अस्तित्व पर संकट का बादल मंडरा रहा है। घाटे का सौदा होने की वजह से किसान किसानी से दूरी बना रहे हैं और वह अपने बच्चों को इससे दूर रखना चाह रहे हैं।
किसानों की बदहाली का क्या है स्थायी इलाज
किसानों की बदहाली का स्थायी इलाज अर्थव्यवस्था को बदलने से होगा। देश में जो सिंचाई की व्यवस्था है, उसे बदलने की जरूरत है। खेती के तरीकों के बदलने की जरूरत है। किसानों को राहत देने के लिए बिल बनाने की जरूरत है।
जानकारों के मुताबिक मौजूदा समय में संसद में दो कानून लंबित है। दोनों प्राइवेट मेंबर बिल हैं। पहले बिल के मुताबिक किसान को अपनी फसल की न्यूनतम कीमत कानूनी गारंटी के रूप में मिले। दूसरे बिल के मुताबिक जो किसान कर्ज में डूबे हुए हैं उसे कर्ज से एक बार मुक्त कर दिया जाए, ताकि वो एक नई शुरुआत कर सके। जानकारों का मानना है कि इससे किसानों को राहत जरूर मिलेगी।