आकृति विज्ञा ‘अर्पण’
(युवा कवियत्री)
जिक्र तेरा करते करते
अंधियारे का छँट जाना
आँखों की दोनों बत्ती का
लैंप सरीखा उग जाना
मितवा तेरे साथ लिखूं
आधार उम्मीदों की नगरी
तूने ही तो सिरजी मुझमें
प्यार उम्मीदों की नगरी
चेतन की बत्ती मन में
लैंप भरोसे का जगमग
अवचेतन भी दीप्त हो सके
तभी दिखे हैं सुंदर जग
स्थिति कैसी भी आये
सच समझूं जानूं यथार्थ को
आदिदेव अजया हे अच्युत
गीतामय कर दो मनस पार्थ को
तनिक चलूं पर नित्य चलूं
डेग मेरे संयम वाले हो
सबके खातिर मंगल गाऊं
जो भी सच के दीवाने हों
हे सर्वव्याप्त कण कण वासी
इक ख़त मौन
नज़रों से लिखकर
तेरे हरिक पते पर डाल रही हूँ
शाश्वत तू है प्रेम तेरा
वै सार उम्मीदों की नगरी
तूने ही तो सिरजी मुझमें
प्यार उम्मीदों की नगरी।
वक्त की सीढ़ियों पर बैठकर
दूर जा रहे अतीत को देखना
तुम्हारी ओर तेजी से बढ़ रहे
वर्तमान को समझने की कोशिश
इतनी ज्यादा न हो कि
तुम खो दो वर्तमान को……
दोस्त , वर्तमान को
ईमानदारी से जीना ही तो
निष्काम कर्म है…………..
अपने हिस्से की ईमानदारी
से विचलित न होना
अपनी ज़िम्मेदारी से
मुंह न मोड़ना
यही तो निष्काम कर्म है……
यही तो भक्ति की संज्ञा है
विशेषण जो भी लगे…….
मनुष्यत्व को अनुभूत करना
यही तो वेदना है दोस्त
अनुभव से जोड़ कर
स्वाध्याय से मिलाकर
कोई भी कदम उठाना
यही तो संस्कार है दोस्त…..
दृष्टि की विशेष परख से
प्रयोग के जगे अलख से
लोक हित के आधार पर
प्रकृति प्रदत्त स्रोतों संग
अपने नवाचारों को मिला
धूनी रमाना…….
यही तो विज्ञान है दोस्त!